सोहराई कला

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
imported>चक्रबोट द्वारा परिवर्तित ०३:५१, ६ मई २०२१ का अवतरण (ऑटोमैटिड वर्तनी सुधार)
(अन्तर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अन्तर) | नया अवतरण → (अन्तर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
आदिवासी कला

सोहराई कला एक आदिवासी कला है। इसका प्रचलन हजारीबाग जिले के बादम क्षेत्र में आज से कई वर्ष पूर्व शुरू हुआ था। इस क्षेत्र के इस्को पहाड़ियों की गुफाओं में आज भी इस कला के नमूने देखे जा सकते हैं। कहा जाता है कि बादम राजाओं ने इस कला को काफी प्रोत्साहित किया था। जिसकी वजह से यह कला गुफाओं की दीवारों से निकलकर घरों की दीवारों में अपना स्थान बना पाने में सफल हुई थी।[१]

झारखंडी संस्कृति में सोहराई कला का महत्त्व सदियों से रहा है। बदलते परिवेश में कथित आधुनिकता के नाम पर लोगों का दुर्भाग्यवश इस कला के प्रति उपेक्षाभाव इसके अस्तित्व पर संकट बनकर आ खड़ा हुआ है। राज्य के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सोहराई पर्व के दौरान देसज दुधि माटी से सजे घरों की दीवारों पर महिलाओं के हाथों के हुनर अब बमुश्किल से देखने को मिलते हैं। अब दुधि माटी की जगह चूने ने ले ली है।

उस समय ऐसा कोई घर नहीं था जहां की महिलाएं इस कला से अपने घरों-दीवारों को सजाना नहीं जानती हों। आज स्थिति बदल चुकी है। अब तो इसके कलाकार और इसे जाननेवाले लोगों की संख्या गिनती में रह गयी है। ऐसे गिने-चुने नामों में से एक नाम है रूकमणी देवी का। हजारीबाग जिले के बड़कागांव प्रखंड की रहनेवाली रूकमणी कहती है कि यह कला मैंने अपनी मां से सीखी थी और मां ने अपनी मां से। वह बतलाती है कि आज इस कला को सीखना तो दूर, लोग इसे जानते तक नहीं हैं।

बकौल रूकमणी आदिवासी संस्कृति में इस कला का महत्त्व जीवन में उन्नति से लगाया गया था, तभी इसका उपयोग दीपावली और शादी-विवाह जैसे अवसरों पर किया जाता था। जिससे कि धन और वंश दोनों की वृद्धि हो सके। रूकमणी बताती है कि इस कला के पीछे एक इतिहास छिपा है। जिसे अधिकांश लोग जानते तक नहीं हैं।

वह बताती हैं कि बादम राज में जब किसी युवराज का विवाह होता था और जिस कमरे में युवराज अपनी नवविवाहिता से पहली बार मिलता था उस कमरे की दीवारों पर यादगार के लिये कुछ चिह्न अंकित किये जाते थे। ये चिह्न ज्यादातर सफेद मिट्टी, लाल मिट्टी, काली मिट्टी या गोबर से बनाये जाते थे। इस कला में कुछ लिपि का भी इस्तेमाल किया जाता था जिसे वृद्धि मंत्र कहते थे।

बाद के दिनों में इस लिपि की जगह कलाकृतियों ने ले ली। जिसमें फूल, पत्तियां एवं प्रकृति से जुड़ी चीजें शामिल होने लगीं। कालांतर में इन चिन्हों को सोहराई या कोहबर कला के रूप में जाना जाने लगा। धीरे-धीरे यह कला राजाओं के घरों से निकलकर पूरे समाज में फैल गयी। राजाओं ने भी इस वृद्धि कला को घर-घर तक पहुंचाने में काफी मदद की। पर आज मदद तो दूर इस सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण के लिये भी कोई आगे नहीं आता।

ऐसे में शायद इस कला को गुमनामी की गुफाओं में लुप्त होने से कोई नहीं बचा पायेगा और आनेवाली पीढ़ियां सोहराई को इतिहास के पन्नों में ही ढूंढा करेंगी।

सन्दर्भ