"गन्ना" के अवतरणों में अंतर
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[[चित्र:Zuckerrohr.jpeg|thumb|200px|right| गन्ना की फसल]] | |||
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'''गन्ना''' (Sugarcane ; [[वानस्पतिक नाम]] - ''Saccharum officinarum'') विश्व की एक प्रमुख नकदी फसल है, जिससे [[चीनी]], [[गुड़]],आदि का निर्माण होता हैं। गन्ने का उत्पादन सबसे ज्यादा [[ब्राज़ील]] में होता है और [[भारत]] का गन्ने की उत्पादकता में संपूर्ण विश्व में दूसरा स्थान हैI गन्ने की खेती बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देती है और विदेशी मुद्रा प्राप्त करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। | |||
== गन्ने के उत्पादन के लिए भौगोलिक कारक == | |||
* उत्पादक कटिबन्ध - उष्ष-आद्र कटिबन्ध | |||
* तापमान - २१ से २७ सें. ग्रे. | |||
* वर्षा - ७५ से १२० सें. मी. | |||
* मिट्टी - गहरी दोमट। | |||
== भारत के प्रमुख गन्ना अनुसंधान केन्द्र == | |||
* भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ | |||
* राष्ट्रीय शर्करा संस्था, कानपुर | |||
* वसंतदादा शुगर इंस्टीटयूट, पुणे | |||
* चीनी प्रौद्योगिकी मिशन, नई दिल्ली | |||
* गन्ना प्रजनन संस्थान, कोयम्बतूर तमिलनाडु | |||
== गन्ने के उत्पादन का विश्व वितरण == | |||
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! देश !! गन्ने का उत्पादन (टन) | |||
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|[[ब्राज़ील]]|| ६४,८९,२१,२८० | |||
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|[[भारत]]|| ३४,८१,८७,९०० | |||
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| [[चीन]] || १२,४९,१७,५०२ | |||
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| [[श्यामदेश]] || ७,३५,०१,६१० | |||
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| [[पाकिस्तान]] || ६,३९,२०,००० | |||
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| [[मेक्सिको]] || ५,११,०६,९०० | |||
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| [[कोलंबिया]] || ३,८५,००,००० | |||
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| [[ऑस्ट्रेलिया]] || ३,३९,७३,००० | |||
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| [[अर्जेण्टीना]] || २,९९,५०,००० | |||
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| [[संयुक्त राज्य]] || २,७६,०३,००० | |||
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== परिचय == | |||
[[Image:Old-fashioned Indian Sugar=cane Press.jpg|350px|thumb|right|गन्ना पेरने का प्राचीन भारतीय कोल्हू]] | |||
इतिहास में एक समय ऐसा भी रहा है जब याचक के पानी मांगने पर उसे [[मिश्री]]मिश्रित [[दूध]] दिया जाता था। तब देश में दूध और घी की नदियां बह रही थीं। हमारे अपने देखे काल में ही किसी के पानी मांगने पर उसे पहले [[गुड़]] की डली भेंट की जाती थी और बाद में पानी। हमारा कोई पर्व या उत्सव ऐसा नहीं होता जिस पर हम अपने बंधु-बांधवों और इष्ट-मित्रों का मुंह मीठा नहीं कराते। मांगलिक अवसरों पर लड्डू, बताशे, गुड़ आदि बांटकर अपनी प्रसन्नता को मिल-बांट लेने की परम्परा तो हमारे देश में लम्बे समय से रही है। सच तो यह है कि मीठे की सबसे अधिक खपत हमारे देश में ही है। | |||
== मिठास भरा प्राचीन == | |||
[[आयुर्वेद]] के ग्रन्थों में मधुर रस के पदार्थों से भोजन का श्रीगणेश करने का परामर्श दिया गया है। "[[ब्रह्मांड पुराण]]" में भोजन का समापन भी मीठे पदार्थों से ही करने का सुझाव है। एक ग्रन्थ में तो भोजन में [[मूंग]] की दाल, शहद, घी और शक्कर का शामिल रहना अनिवार्य कहा गया है। `नामुद्रसूपना क्षौद्र न चाप्य घृत शर्करम्।' ग्रीष्म ऋतु में शाली चावलों के भात में शक्कर मिलाकर सेवन करने का सुझाव है। शक्ति-क्षय पर मिश्री मिले दूध और दूध की मिठाइयों के सेवन करने की बात कही गई है। | |||
[[सुश्रुत]] ने भोजन के छ: प्रकार गिनाए हैं: चूष्म, पेय, लेह्य, भोज्य, भक्ष्य और चर्व्यपाचन की दृष्टि से चूष्य पदार्थ सबसे अधिक सुपाच्य बताए गए हैं। फिर क्रम से उनकी सुपाच्यता कम होती जाती है और चर्व्य सबसे कम सुपाच्य होते हैं। ईख या गन्ने को जो मिठास का प्रमुख स्रोत है, पहले वर्ग में रखा गया है, गन्ने का रस, शरबत, फलों के रस पेय पदार्थों में हैं। चटनी-सौंठ-कढ़ी लेह्य दाल-भात भोज्य, लड्डू-पेड़ा, बरफी भक्ष्य और चना-परवल, मूंगफली चर्व्य हैं। | |||
== मिठास का दूसरा नाम गन्ना == | |||
जब हम मिठास की बात करते हैं, विशेषकर भोजन में मिठास की, तो हमारा ध्यान बरबस गन्ने की ओर जाता है। उससे हम अनेक रूपों में मिठास प्रदान करने वाले पदार्थ प्राप्त करते हैं, जैसे-गुड़, राब, शक्कर, खांड, बूरा, मिश्री,। चीनी आदि। यों मिठास प्राप्त करने के कुछ अन्य स्रोत भी हैं। मधु या शहद हमारे लिए प्रकृति का उपहार हैं जिसे वह मधुमक्खियों द्वारा फलों के रस से तैयार कराती है। दक्षिण भारत में ताड़ से गुड़ और शक्कर तैयार की जाती है। पश्चिम एशिया के देश खजूर से यह काम लेते हैं। यूरोपीय देश चुकंदर से चीनी तैयार करते हैं। अब सैकरीन नाम से कृत्रिम चीनी भी बाजार में उपलब्ध है, जो मधुमेह के रोगियों के लिए भी निरापद बताई गई है। | |||
फिर भी चीनी या उसकी शाखा-प्रशाखाओं को प्राप्त करने का सबसे प्रमुख स्रोत गन्ना ही है। कहते हैं, विश्व में जितने क्षेत्र में गन्ने की खेती की जाती है, उसका लगभग आधा हमारे देश में है। कोई आश्चर्य नहीं कि गन्ने की फसल हमारे देश की सबसे महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसलों में से एक है और चीनी उद्योग हमारे देश के प्रमुख उद्योगों में है। हालांकि इस उद्योग को बहुत पुराना नहीं कहा जा सकता चूंकि चौथे दशक के बाद, या दूसरे महायुद्ध के दौरान ही इसका तेजी से विकास हुआ है। | |||
किन्तु शक्कर, गुड़, मिश्री आदि के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। हजारों वर्षों से यह उद्योग यहां स्थापित हैं, बल्कि हम अति प्राचीन काल से ही विश्व के प्राय: सभी भागों को इनका निर्यात करते रहे हैं। प्राचीन रोम, मिस्त्र, यूनान, चीन, अरब आदि सभी देशों को ये वस्तुएं जाती रही हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक हमारा देश चीनी का निर्यातक भी रहा है। कुछ आंतरिक खपत में वृद्धि के कारण और कुछ विभिन्न कारणों से उत्पादन में कमी के कारण इस वर्ष हमें विदेशों से चीनी का आयात करने को बाध्य होना पड़ा है। | |||
[[सिंध]] के प्राचीन इतिहास पर प्रकाशित पुस्तक "सिंधु सौवीर" में टाड द्वारा लिखित `राजस्थान' के हिन्दी अनुवाद में राय बहादुर [[गौरीशंकर ओझा]] की एक अत्यंत दिलचस्प टिप्पणी इस प्रकार दी गई है: | |||
:''घग्घर नदी की एक शाखा का नाम साकड़ा अथवा हाकड़ा था, जो पहले [[पंजाब (भारत)|पंजाब]] से चलकर [[बीकानेर]] और [[जोधपुर]] राज्यों में से बहती सिंध में पड़ती थी। परन्तु बहुत समय से उसका प्रवाह बंद हो गया है, जिसके बारे में बहुत बातें प्रचलित हैं। किन्तु उसके बंद होने का कारण यह है कि इस तरफ (राजस्थान) का किनारा ऊंचा होते-होते बिल्कुल बंद हो गया। अभी तक थोड़ाथोड़ा पानी बीकानेर राज्य के हनुमानगढ़ प्रदेश में आता है, जहां उससे गेहूं आदि की खेती होती है। उसे वहां वाले कग्गर नदी कहते हैं। मारवाड़ में हाकड़ा के बहने का यह प्रमाण है कि जोधपुर और मालानी के परगनों में बहुत से गांवों की सीमा के अंदर गन्ना पेरने के पत्थर के कोल्हू पड़े मिलते हैं, जिनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि पहले यहां हाकड़ा (हाकरो) नदी बहती थी, जिसके किनारे गन्ने की खेती होती थी, जिसे इन कोल्हुओं में पेरकर गुड़ बनाया जाता था। अगर इस नदी का बहाव यहां न होता तो इन रेतीले भागों में ऐसे कोल्हू कैसे संभव होते'' (टाड-`राजस्थान' प्रथम खंड पृष्ठ ३१)। | |||
== रेत में गन्ने के खेत == | |||
[[राजस्थान]] में पत्थर के कोल्हुओं का मिलना गन्ने की कृषि की प्राचीनता का ही प्रमाण है। यहां जिस धग्धर या कग्गर नदी का उल्लेख है, उसे वैदिककालीन सरस्वती होने का विश्वास किया जाता है। ईसा की छठी-सातवीं शती तक इस नदी में पानी था और उसके तट पर रंगमहल जैसे सम्पन्न नगर बसे हुए थे, जो अब अस्तित्व-शेष हो गए हैं। यदि हम प्रागैतिहास की खोज में जाए तो यह क्षेत्र हड़प्पाकालीन संस्कृति का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। | |||
भारत में आयुर्वेद के जनक समझे जाने वाले [[चरक]] और सुश्रुत को गन्ने की विभिन्न जातियों, उससे बनने वाले विभिन्न पदार्थों और उनके औषधीय गुणों का ज्ञान था। चरक कनिष्क (कुषाणवंश) के समकालीन समझे जाते हैं। कहते हैं, उन्होंने कनिष्क की एक रानी को भी एक असाध्य रोग से मुक्ति दिलाई थी। कनिष्क का काल ईसवी सन के प्रारम्भ से पहले का समझा जाता है, अर्थात् लगभग दो हजार वर्ष पूर्व। इक्षु, दीर्घच्छद, भूमिरस, गुड़मूल, असिपत्र, मधुतृण-संस्कृत में गन्ने के अनेक नाम हैं। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में "इक्षुवर्ग:" का पृथक से उल्लेख है। रूपरंग के अनुसार उसकी अनेक जातियां हैं जैसे पौंड्रक, भीसक, वंशक, शतपोरक, करंतार तापसेक्ष, कांडेक्ष, सूचीपत्र, नैपाल, दीर्घपत्र, नीलापोर, कोशक आदि। पौंड्रक से ही उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में गन्ने का एक नाम पौंड़ा भी पड़ गया है। यह सफेद या कुछ पीलापन लिए हुए होता है। पौंड्रक और भीरुक बात-पित्त नाशक, रस और पाक में मधुर, शीतल और बलकर्त्ता बताए गए हैं। कोशक भारी, शीतल और रक्तपित्त तथा क्षय को नष्ट करने वाला है। कांतारेक्षु काले रंग का होता है और भारी कफ पैदा करने वाला और दस्तावर है। दीर्घपोर कड़ा और वंशक क्षारयुक्त होता है वंशक को बंबइया ईख भी कहते हैं। शतपोरक में गांठों की अधिकता होती है और गुण में वह बहुत कुछ कोशक के समान है। वह उष्ण, क्षारयुक्त और वातनाशक है। तापसेक्षु मृदु-मधुर, कफ कुपित करने वाला, तृप्तिकारक, रुचिप्रद और बलकारक है। कांडेक्षु में तापसेक्षु जैसे ही गुण होते हैं। किन्तु वात कुपित करता है। सूचीपत्र के पत्ते बहुत बारीक होते हैं। नीलपोर में नीले रंग की गांठें होती हैं। नैपाल नेपाल देश में होता है और दीर्घपात्र के बड़े-बड़े पत्ते होते हैं। ये चारों प्रकार के गन्ने बातकर्त्ता, कफ पित्तनाशक, कसैले और दाहकर्ता हैं। मनोतृप्ता नामक गन्ना वातनाशक, तृषारोग नाशक, शीतल, अत्यंत मधुर और रक्तपित्त निवारक माना गया है। अवस्थानुसार भी गन्ने के गुणों में अंतर आ जाता है। बाल्यावस्था का गन्ना कफ बढ़ाने वाला, मेदा बढ़ाने वाला और प्रमेह रोग को नष्ट करने वाला होता है। युवा गन्ना वायुनाशक, स्वादु, कुछ-कुछ तीखा और पित्तनाशक होता है। पकने पर वह रक्तपित्त का नाश करता है, घावों को भरता है और बल-वीर्य में वृद्धि करता है। गन्ने के जड़ की ओर का नीचे का भाग अत्यंत मधुर, रसयुक्त और मध्य भरंथि या पंगोली में नुनखारा रस रहता है। यदि किसी गन्ने की जड़ और अग्र भाग को जीव-जंतुओं ने खा लिया हो, उसकी गांठों सहित पिराई की गई हो, उसमें मैल मिल गया हो, तो रस बिगड़ जाता है। अधिक काल तक रखे रहने से भी उसके दूषित रहने की संभावना रहती है। तब वह स्वाद में खट्टा, वातनाशक, भारी, पित्त-कफकारक, दस्तावर और बार-बार मूत्र लाने वाला हो जाता है। आग पर पकाया हुआ रस भारी, स्निग्ध, तीखा, वातकफनाशक, गोलानाशक और किंचित पित्त करने वाला होता है। | |||
== गुड़ में कितने गुण == | |||
गन्ने का रस पेरकर और औटाकर उससे विभिन्न पदार्थ तैयार किए जाते हैं, जैसे गुड़ राब, शक्कर, मिश्री, चीनी आदि। इन पदार्थों के भी गुणों में अंतर आ जाता है। राब भारी, कफकत्र्ता और वीर्य बढ़ाने वाली है। यह वात, पित्त, मूत्रविकार आदि का निवारण करती है। मिश्री बलकारक हलकी, वात-पित्तनाशक, मधुर और रक्तदोष, निवारक होती है। गुड़ भारी, स्निग्ध, वातनाशक, मूत्रशोधक, मेदावर्धक, कफकत्र्ता, कृमिजनक और बलकर्ता है। पुराना गुड़ हलके पथ्य का काम देता है। वह अग्निकारक, बलदायक, पित्तनाशक, मधुर, वातनाशक और रुधिर को स्वच्छ करने वाला है। नया गुड़ अग्निकारक है। इसके सेवन से कफ श्वांस, खांसी और कृमिरोग पैदा होते हैं। नित्य अदरक के रस में गुड़ मिलाकर खाने से कफ नष्ट होता है। हरड़ के साथ खाने से पित्तनाश होता है। सोंठ के साथ खाने से सम्पूर्ण वातविकार नष्ट होते हैं। इस प्रकार गुड़ त्रिदोषनाशक है। खांड मधुर, नेत्रों को लाभ पहुंचाने वाली, वात-पित्तनाशक, स्निग्ध, बलकारक और वमननिवारक है। चीनी मधुर रुचिकारी, बात-पित्तनाशक, रुधिर दोष निवारक, दाहशांतिकर्ता, शीतल और वीर्य बढ़ाने वाली है। इससे मूर्छा, वमन और ज्वर में लाभ पहुंचता है। यही गुण गुड़ से बनी फूल चीनी में है। | |||
असल में हम भारतीय सदा से मधुरप्रिय रहे हैं। मीठा खाओ, मीठा बोलो, गुड़ न दो तो गुड़ की सी बात अवश्य करो, हमारे जीवन सिद्धांत रहे हैं। शायद यही कारण है कि आयुर्वेद के जनकों ने पाक, प्राश, अवलेह, आदि के रूप में हमारे लिए अनेक मधुर और बलवर्धक औषधियां तैयार की हैं। अत: हमारे जीवन में गन्ने के महत्व का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। | |||
भारत में गन्ने की खेती लगभग ३२ लाख हैक्टर भूमि पर की जाती है जिससे १,८०० लाख टन गन्ने की उपज प्राप्त होती है। इस प्रकार गन्ने की औसत उपज लगभग ५७ टन प्रति हैक्टर है जो उत्पादन-क्षमता से काफी कम है। यदि किसान भाई यह जान लें कि गन्ने में कब और कितनी खाद दी जाये और कब और कैसे सिंचाई की जाए तो गन्ने की उपज को काफी हद तक बढ़ा सकते हैं। हमारे देश में गन्ने के लिए प्रयुक्त क्षेत्र को देखते हुए उसकी उपज अपेक्षाकृत कम है। इसका प्रमुख कारण आवश्यकतानुसार खाद-पानी की सुविधा और उनका उपयोग उचित समय पर न होना है। देश में कुल बोये गये फसल-क्षेत्र के लगभग ४३ प्रतिशत भाग पर सिंचाई-सुविधा उपलब्ध है। यदि विभिन्न फसलों की सिंचाई सुविधा की दृष्टि से देखा जाये तो गन्ने को केवल ०। ५ प्रतिशत पानी ही मिल पाता है। बोये गये गन्ने के कुल क्षेत्र का लगभग ३४। ६ प्रतिशत भू-भाग पर पूर्ण सिंचाई सुविधा उपलब्ध है और शेष बड़े भाग (६५। ४ प्रतिशत) पर सीमित सिचाई सुविधा है, या कहीं-कहीं पर नहीं के बराबर है। यदि हम गन्ने की उपज का जायजा लें तो पता चलता है कि सिंचित क्षेत्र में गन्ने की औषत उपज ६७ टन/हैओ है। सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों की केवल ४१ टन/हैओ है। गन्ने की फसल को वैसे तो हमेशा नमी की आवश्यकता होती है, लेकिन जमाव, कल्ले निकलने और बढ़ाव के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना अत्यन्त आवश्यक है। पाया गया है कि उत्तरी भारत में गन्ने की फसल के पूरे जीवन-काल में लगभग १५०-१७५ सेंओमीओ पानी की आवश्यकता होती है। वर्षा द्वारा गन्ने की फसल को लगभग १०० सेंओमीओ पानी की आपूर्ति हो जाती है और शेष पानी की मात्रा को सिंचाई द्वारा गन्ने की वृद्धि को क्रान्तिक अवस्थाओं में पूरा करना पड़ता है। गन्ने में उर्वरकों की मात्रा संबंधी सिफारिशों के आधार पर लगभग ४ लाख ५० हजार टन नाइट्रोजन, १ लाख ५० हजार टन फास्फोरस तथा १ लाख ५० हजार टन पोटाश की आवश्यकता है, जो हमारे देश में इसका ४०-५० प्रतिशत ही उर्वरक उपलब्ध हो पाता है। ऐसी स्थिति में गन्ने की फसल से अच्छी उपज प्राप्त करना हमारे कृषि वैज्ञानिकों के समक्ष चुनौती भरा प्रश्न है। यद्यपि इस ओर वैज्ञानिकों ने अनवरत कठोर प्रयास किये हैं जिनके फलस्वरूप अब ऐसी संभावनाएं हो गई हैं कि उपलब्ध सिंचाई सुविधा व उर्वरकों द्वारा वांछित उपज प्राप्ति की जा सकती है। यदि किसान भाई सिंचितसुविधा व खाद की मात्रा तथा उनके प्रयोग करने के उचित समय पर आधारित नवीन तकनीकी की जानकारी लेकर गन्ने की खेती करें तो भारी उपज प्राप्त कर सकते हैं। | |||
== प्यासे गन्ने को पानी दें == | |||
प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि भूमि की जलधारिता के अनुसार औसतन ६० प्रतिशत क्षेत्र क्षमता (फील्ड कैपेसिटी) गन्ने की अच्छी उपज के लिए अति उत्तम है। इस क्षमता से अधिक पानी देने पर उर्वरक तत्वों के बह जाने का भय रहता है। सिंचाई की उचित व्यवस्था होने पर वर्षा के पहले बसन्तकालीन गन्ने में चार-पांच, शरदकालीन गन्ने में किस समय किया जाय कि अधिकतम लाभ उठाया जा सके इस ओर संस्थान ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। परीक्षणों के आधार पर यदि एक सिंचाई सुविधा है तो उसे मई के अंत या जून, तीन सिंचाइयों को अप्रैल, मई, जून और चार सिंचाइयों को गन्ने के जमाव पूरा होने पर मार्च, अप्रैल, मई और जून में करना चाहिए। किसानों की सुविधा के अनुसार पानी लगाने की चारों अवस्थाओं का वर्गीकरण जमाव पूरा होने, पहला, दूसरा तथा तीसरा व्यांत निकलने के आधार पर करना चाहिए। गन्ने की सिंचाई आमतौर पर पूरे खेत में सपाट विधि द्वारा या छोटी-छोटी क्यारियां बनाकर की जाती हैं। इस विधि द्वारा सिंचाई करने से अधिक पानी की आवश्यकता होती है। | |||
== गन्ने का वानस्पतिक वर्गीकरण == | |||
सैकेरम वंश की पाँच महत्वपूर्ण जातियाँ हैं जो निम्नलिखित हैं: | |||
=== सैकेरम साइनेन्स === | |||
* इसे चीनी गन्ना के रूप में जाना जाता है। इसका उदभव स्थान मध्य एवं दक्षिण पूर्व चीन है। | |||
* यह लंबी पोरियों से युक्त पतला वृंत और लंबी एवं संकुचित पत्तियों से युक्त गन्ना है। | |||
* इसमें सुक्रोस अंश एवं शुध्दता कम होती है और रेशा एवं स्टार्च अधिक होता है। | |||
* गुणसूत्र संख्या 2x = 111 से 120 है। इस जाति के अन्तर्गत एक उल्लेखनीय प्रजाति ''ऊबा'' है जिसकी खेती कई देशों में की जाती है। | |||
* इस समय इस जाति को व्यापारिक खेती के लिए अनुपर्युक्त माना जाता है। | |||
=== सैकेरम बार्बेरी === | |||
*[[यह]] जाति उपोष्ण कटिबंधीय भारत का मूल गन्ना है। | |||
* इसे 'भारतीय जाति' माना जाता है। | |||
* उपोष्ण कटिबंधीय भारत में गुड़ एवं खाड़सारी चीनी का निर्माण करने के लिए इसकी बड़े पैमाने पर खेती की जाती है। | |||
* यह अधिक मजबूत एवं रोग प्रतिरोधी जाति है और इसके गन्नों में अधिक शर्करा एवं रेशा अंश होता है। वे पतले वृंत वाले होते हैं। | |||
* इस जाति के क्लोन उच्च एवं निम्न तापमानों, समस्या ग्रस्त मृदाओं और जलाक्रांत दशाओं के लिए अधिक सहिष्णु है। | |||
=== सैकेरम रोबस्टम === | |||
* यह जाति न्यू गिनी द्वीप समूह में खोजी गई थी। इस जाति के गन्नों के वृंत लंबे, मोटे एवं बढ़ने में ओजपूर्ण होते हैं। | |||
* यह रेशा से भरपूर है और अपर्याप्त शर्करा अंश रखती है। गुणसूत्र संख्या 2x = 60 एवं 80 है। | |||
* यह जंगली जाति है और कृषि उत्पादन के लिए अनुपयुक्त है। | |||
=== सैकेरम स्पान्टेनियम === | |||
* इसे भी 'जंगली गन्ने' के रूप में जाना जाता है। इसकी प्रजातियाँ गुणसूत्रों की परिवर्तनशील संख्या (2x = 40 से 128) रखती है। इस जाति की आकारिकी में पर्याप्त परिवर्तनशीलता देखी गई है। | |||
* सामान्यत: इसका वृंत पतला एवं छोटा होता है। और पत्तियाँ संकुचित (तंग) एवं कठोर होती हैं। | |||
* पौधा अधिक मजबूत और अधिकांष रोगों का प्रतिरोधी होता है। | |||
* यह जाति शर्करा (चीनी) उत्पादन के लिए उपयोगी नहीं है क्योंकि शर्करा अंश बहुत कम होता है। | |||
* यह जाति विशेष रूप से रोग एवं प्रतिबल प्रतिरोधी प्ररूप प्राप्त करने के लिए संकर प्रजातियाँ विकसित करने के लिए उपयोगी है। | |||
== कीट एवं रोग == | |||
1. [[पाइरिला]] (Pyrilla) नामक कीट से गन्ने को बहुत क्षति पहुँचती है। | |||
2. [[तना छेदक]] (Chilo infascatellus) यह पौधे के तने में वृद्धि विंदु पर मृत टिश्यू (Dead Heart) पैदा करता है। | |||
3. | |||
== इन्हें भी देखें == | |||
* [[गन्ना कारखाना]] | |||
* [[गन्ना का रस]] | |||
*[[भारत में गन्ने की खेती|गन्ने की खेती कैसे करें]] | |||
* [[रबी की फसल]] | |||
* [[खरीफ की फसल]] | |||
* [[ज़ायद की फसल]] | |||
* [[भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान]] | |||
* [[राष्ट्रीय शर्करा संस्था|राष्ट्रीय शर्करा संस्था, कानपुर]] | |||
== बाहरी कड़ियाँ == | |||
* [https://web.archive.org/web/20160819100336/http://hi.vikaspedia.in/agriculture/crop-production/93594d92f93593893e92f93f915-92b938932947902/92a93e928-915940-916947924940 गन्ने की खेती] (विकासपीडिया) | |||
* [https://web.archive.org/web/20160914141839/http://www.upcane.org/combo2.aspx र्वैज्ञानिक गन्ना खेती की विधियॉं] (यूपी केन) | |||
* [https://web.archive.org/web/20101126094856/http://mahindrakisanmitra.com/crop_details.aspx?lang=2&cropid=87&groupid=12&categoryid=32 गन्ने की व्यावसायिक खेती] | |||
* [https://web.archive.org/web/20110906200416/http://upcsr.org/index.htm उ0प्र0 गन्ना शोध परिषद्] | |||
* [https://web.archive.org/web/20130507043955/http://www.upcane.org/index.aspx उत्तर प्रदेश गन्ना विकास विभाग] | |||
* [https://web.archive.org/web/20090410052151/http://fcamin.nic.in/dirsugar/website47(7).doc चीनी उद्योग में '''विविधीकरण''' की आवश्यकता] | |||
* [http://agropedia.iitk.ac.in/?q=content/गन्ना-वानस्पतिक-विवरण-एवं-वर्धन-अवस्थाएं गन्ना : वानस्पतिक विवरण एवं वर्धन अवस्थाएं]{{Dead link|date=जनवरी 2021 |bot=InternetArchiveBot }} | |||
*[https://web.archive.org/web/20140219130336/http://krishiguru2013.blogspot.in/2013/12/blog-post_14.html सस्टेनबल सुगरकेन इनिसिएटिव (एस.एस.आई.) : गन्ना उत्पादन की नवोन्वेषी तकनीक] (कृषिका) | |||
* [https://web.archive.org/web/20160914191006/http://iisr.nic.in/download/publications/IISRatGlanceH.pdf भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान के द्वारा उपलब्ध करायी गयी तकनीकों का परिचय] | |||
*[http://dantotsu.in/how-to-cultivate-sugarcane-keep-these-things-in-mind-sugarcane-farming/ गन्ने की खेती कैसे करें] | |||
[[श्रेणी:ख़रीफ़ की फ़सल]] | |||
[[श्रेणी:फ़सलें]] |
१३:०६, १८ अप्रैल २०२२ के समय का अवतरण
गन्ना (Sugarcane ; वानस्पतिक नाम - Saccharum officinarum) विश्व की एक प्रमुख नकदी फसल है, जिससे चीनी, गुड़,आदि का निर्माण होता हैं। गन्ने का उत्पादन सबसे ज्यादा ब्राज़ील में होता है और भारत का गन्ने की उत्पादकता में संपूर्ण विश्व में दूसरा स्थान हैI गन्ने की खेती बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देती है और विदेशी मुद्रा प्राप्त करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
गन्ने के उत्पादन के लिए भौगोलिक कारक
- उत्पादक कटिबन्ध - उष्ष-आद्र कटिबन्ध
- तापमान - २१ से २७ सें. ग्रे.
- वर्षा - ७५ से १२० सें. मी.
- मिट्टी - गहरी दोमट।
भारत के प्रमुख गन्ना अनुसंधान केन्द्र
- भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ
- राष्ट्रीय शर्करा संस्था, कानपुर
- वसंतदादा शुगर इंस्टीटयूट, पुणे
- चीनी प्रौद्योगिकी मिशन, नई दिल्ली
- गन्ना प्रजनन संस्थान, कोयम्बतूर तमिलनाडु
गन्ने के उत्पादन का विश्व वितरण
देश | गन्ने का उत्पादन (टन) |
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ब्राज़ील | ६४,८९,२१,२८० |
भारत | ३४,८१,८७,९०० |
चीन | १२,४९,१७,५०२ |
श्यामदेश | ७,३५,०१,६१० |
पाकिस्तान | ६,३९,२०,००० |
मेक्सिको | ५,११,०६,९०० |
कोलंबिया | ३,८५,००,००० |
ऑस्ट्रेलिया | ३,३९,७३,००० |
अर्जेण्टीना | २,९९,५०,००० |
संयुक्त राज्य | २,७६,०३,००० |
परिचय
इतिहास में एक समय ऐसा भी रहा है जब याचक के पानी मांगने पर उसे मिश्रीमिश्रित दूध दिया जाता था। तब देश में दूध और घी की नदियां बह रही थीं। हमारे अपने देखे काल में ही किसी के पानी मांगने पर उसे पहले गुड़ की डली भेंट की जाती थी और बाद में पानी। हमारा कोई पर्व या उत्सव ऐसा नहीं होता जिस पर हम अपने बंधु-बांधवों और इष्ट-मित्रों का मुंह मीठा नहीं कराते। मांगलिक अवसरों पर लड्डू, बताशे, गुड़ आदि बांटकर अपनी प्रसन्नता को मिल-बांट लेने की परम्परा तो हमारे देश में लम्बे समय से रही है। सच तो यह है कि मीठे की सबसे अधिक खपत हमारे देश में ही है।
मिठास भरा प्राचीन
आयुर्वेद के ग्रन्थों में मधुर रस के पदार्थों से भोजन का श्रीगणेश करने का परामर्श दिया गया है। "ब्रह्मांड पुराण" में भोजन का समापन भी मीठे पदार्थों से ही करने का सुझाव है। एक ग्रन्थ में तो भोजन में मूंग की दाल, शहद, घी और शक्कर का शामिल रहना अनिवार्य कहा गया है। `नामुद्रसूपना क्षौद्र न चाप्य घृत शर्करम्।' ग्रीष्म ऋतु में शाली चावलों के भात में शक्कर मिलाकर सेवन करने का सुझाव है। शक्ति-क्षय पर मिश्री मिले दूध और दूध की मिठाइयों के सेवन करने की बात कही गई है।
सुश्रुत ने भोजन के छ: प्रकार गिनाए हैं: चूष्म, पेय, लेह्य, भोज्य, भक्ष्य और चर्व्यपाचन की दृष्टि से चूष्य पदार्थ सबसे अधिक सुपाच्य बताए गए हैं। फिर क्रम से उनकी सुपाच्यता कम होती जाती है और चर्व्य सबसे कम सुपाच्य होते हैं। ईख या गन्ने को जो मिठास का प्रमुख स्रोत है, पहले वर्ग में रखा गया है, गन्ने का रस, शरबत, फलों के रस पेय पदार्थों में हैं। चटनी-सौंठ-कढ़ी लेह्य दाल-भात भोज्य, लड्डू-पेड़ा, बरफी भक्ष्य और चना-परवल, मूंगफली चर्व्य हैं।
मिठास का दूसरा नाम गन्ना
जब हम मिठास की बात करते हैं, विशेषकर भोजन में मिठास की, तो हमारा ध्यान बरबस गन्ने की ओर जाता है। उससे हम अनेक रूपों में मिठास प्रदान करने वाले पदार्थ प्राप्त करते हैं, जैसे-गुड़, राब, शक्कर, खांड, बूरा, मिश्री,। चीनी आदि। यों मिठास प्राप्त करने के कुछ अन्य स्रोत भी हैं। मधु या शहद हमारे लिए प्रकृति का उपहार हैं जिसे वह मधुमक्खियों द्वारा फलों के रस से तैयार कराती है। दक्षिण भारत में ताड़ से गुड़ और शक्कर तैयार की जाती है। पश्चिम एशिया के देश खजूर से यह काम लेते हैं। यूरोपीय देश चुकंदर से चीनी तैयार करते हैं। अब सैकरीन नाम से कृत्रिम चीनी भी बाजार में उपलब्ध है, जो मधुमेह के रोगियों के लिए भी निरापद बताई गई है।
फिर भी चीनी या उसकी शाखा-प्रशाखाओं को प्राप्त करने का सबसे प्रमुख स्रोत गन्ना ही है। कहते हैं, विश्व में जितने क्षेत्र में गन्ने की खेती की जाती है, उसका लगभग आधा हमारे देश में है। कोई आश्चर्य नहीं कि गन्ने की फसल हमारे देश की सबसे महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसलों में से एक है और चीनी उद्योग हमारे देश के प्रमुख उद्योगों में है। हालांकि इस उद्योग को बहुत पुराना नहीं कहा जा सकता चूंकि चौथे दशक के बाद, या दूसरे महायुद्ध के दौरान ही इसका तेजी से विकास हुआ है।
किन्तु शक्कर, गुड़, मिश्री आदि के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। हजारों वर्षों से यह उद्योग यहां स्थापित हैं, बल्कि हम अति प्राचीन काल से ही विश्व के प्राय: सभी भागों को इनका निर्यात करते रहे हैं। प्राचीन रोम, मिस्त्र, यूनान, चीन, अरब आदि सभी देशों को ये वस्तुएं जाती रही हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक हमारा देश चीनी का निर्यातक भी रहा है। कुछ आंतरिक खपत में वृद्धि के कारण और कुछ विभिन्न कारणों से उत्पादन में कमी के कारण इस वर्ष हमें विदेशों से चीनी का आयात करने को बाध्य होना पड़ा है।
सिंध के प्राचीन इतिहास पर प्रकाशित पुस्तक "सिंधु सौवीर" में टाड द्वारा लिखित `राजस्थान' के हिन्दी अनुवाद में राय बहादुर गौरीशंकर ओझा की एक अत्यंत दिलचस्प टिप्पणी इस प्रकार दी गई है:
- घग्घर नदी की एक शाखा का नाम साकड़ा अथवा हाकड़ा था, जो पहले पंजाब से चलकर बीकानेर और जोधपुर राज्यों में से बहती सिंध में पड़ती थी। परन्तु बहुत समय से उसका प्रवाह बंद हो गया है, जिसके बारे में बहुत बातें प्रचलित हैं। किन्तु उसके बंद होने का कारण यह है कि इस तरफ (राजस्थान) का किनारा ऊंचा होते-होते बिल्कुल बंद हो गया। अभी तक थोड़ाथोड़ा पानी बीकानेर राज्य के हनुमानगढ़ प्रदेश में आता है, जहां उससे गेहूं आदि की खेती होती है। उसे वहां वाले कग्गर नदी कहते हैं। मारवाड़ में हाकड़ा के बहने का यह प्रमाण है कि जोधपुर और मालानी के परगनों में बहुत से गांवों की सीमा के अंदर गन्ना पेरने के पत्थर के कोल्हू पड़े मिलते हैं, जिनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि पहले यहां हाकड़ा (हाकरो) नदी बहती थी, जिसके किनारे गन्ने की खेती होती थी, जिसे इन कोल्हुओं में पेरकर गुड़ बनाया जाता था। अगर इस नदी का बहाव यहां न होता तो इन रेतीले भागों में ऐसे कोल्हू कैसे संभव होते (टाड-`राजस्थान' प्रथम खंड पृष्ठ ३१)।
रेत में गन्ने के खेत
राजस्थान में पत्थर के कोल्हुओं का मिलना गन्ने की कृषि की प्राचीनता का ही प्रमाण है। यहां जिस धग्धर या कग्गर नदी का उल्लेख है, उसे वैदिककालीन सरस्वती होने का विश्वास किया जाता है। ईसा की छठी-सातवीं शती तक इस नदी में पानी था और उसके तट पर रंगमहल जैसे सम्पन्न नगर बसे हुए थे, जो अब अस्तित्व-शेष हो गए हैं। यदि हम प्रागैतिहास की खोज में जाए तो यह क्षेत्र हड़प्पाकालीन संस्कृति का एक प्रमुख केन्द्र रहा है।
भारत में आयुर्वेद के जनक समझे जाने वाले चरक और सुश्रुत को गन्ने की विभिन्न जातियों, उससे बनने वाले विभिन्न पदार्थों और उनके औषधीय गुणों का ज्ञान था। चरक कनिष्क (कुषाणवंश) के समकालीन समझे जाते हैं। कहते हैं, उन्होंने कनिष्क की एक रानी को भी एक असाध्य रोग से मुक्ति दिलाई थी। कनिष्क का काल ईसवी सन के प्रारम्भ से पहले का समझा जाता है, अर्थात् लगभग दो हजार वर्ष पूर्व। इक्षु, दीर्घच्छद, भूमिरस, गुड़मूल, असिपत्र, मधुतृण-संस्कृत में गन्ने के अनेक नाम हैं। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में "इक्षुवर्ग:" का पृथक से उल्लेख है। रूपरंग के अनुसार उसकी अनेक जातियां हैं जैसे पौंड्रक, भीसक, वंशक, शतपोरक, करंतार तापसेक्ष, कांडेक्ष, सूचीपत्र, नैपाल, दीर्घपत्र, नीलापोर, कोशक आदि। पौंड्रक से ही उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में गन्ने का एक नाम पौंड़ा भी पड़ गया है। यह सफेद या कुछ पीलापन लिए हुए होता है। पौंड्रक और भीरुक बात-पित्त नाशक, रस और पाक में मधुर, शीतल और बलकर्त्ता बताए गए हैं। कोशक भारी, शीतल और रक्तपित्त तथा क्षय को नष्ट करने वाला है। कांतारेक्षु काले रंग का होता है और भारी कफ पैदा करने वाला और दस्तावर है। दीर्घपोर कड़ा और वंशक क्षारयुक्त होता है वंशक को बंबइया ईख भी कहते हैं। शतपोरक में गांठों की अधिकता होती है और गुण में वह बहुत कुछ कोशक के समान है। वह उष्ण, क्षारयुक्त और वातनाशक है। तापसेक्षु मृदु-मधुर, कफ कुपित करने वाला, तृप्तिकारक, रुचिप्रद और बलकारक है। कांडेक्षु में तापसेक्षु जैसे ही गुण होते हैं। किन्तु वात कुपित करता है। सूचीपत्र के पत्ते बहुत बारीक होते हैं। नीलपोर में नीले रंग की गांठें होती हैं। नैपाल नेपाल देश में होता है और दीर्घपात्र के बड़े-बड़े पत्ते होते हैं। ये चारों प्रकार के गन्ने बातकर्त्ता, कफ पित्तनाशक, कसैले और दाहकर्ता हैं। मनोतृप्ता नामक गन्ना वातनाशक, तृषारोग नाशक, शीतल, अत्यंत मधुर और रक्तपित्त निवारक माना गया है। अवस्थानुसार भी गन्ने के गुणों में अंतर आ जाता है। बाल्यावस्था का गन्ना कफ बढ़ाने वाला, मेदा बढ़ाने वाला और प्रमेह रोग को नष्ट करने वाला होता है। युवा गन्ना वायुनाशक, स्वादु, कुछ-कुछ तीखा और पित्तनाशक होता है। पकने पर वह रक्तपित्त का नाश करता है, घावों को भरता है और बल-वीर्य में वृद्धि करता है। गन्ने के जड़ की ओर का नीचे का भाग अत्यंत मधुर, रसयुक्त और मध्य भरंथि या पंगोली में नुनखारा रस रहता है। यदि किसी गन्ने की जड़ और अग्र भाग को जीव-जंतुओं ने खा लिया हो, उसकी गांठों सहित पिराई की गई हो, उसमें मैल मिल गया हो, तो रस बिगड़ जाता है। अधिक काल तक रखे रहने से भी उसके दूषित रहने की संभावना रहती है। तब वह स्वाद में खट्टा, वातनाशक, भारी, पित्त-कफकारक, दस्तावर और बार-बार मूत्र लाने वाला हो जाता है। आग पर पकाया हुआ रस भारी, स्निग्ध, तीखा, वातकफनाशक, गोलानाशक और किंचित पित्त करने वाला होता है।
गुड़ में कितने गुण
गन्ने का रस पेरकर और औटाकर उससे विभिन्न पदार्थ तैयार किए जाते हैं, जैसे गुड़ राब, शक्कर, मिश्री, चीनी आदि। इन पदार्थों के भी गुणों में अंतर आ जाता है। राब भारी, कफकत्र्ता और वीर्य बढ़ाने वाली है। यह वात, पित्त, मूत्रविकार आदि का निवारण करती है। मिश्री बलकारक हलकी, वात-पित्तनाशक, मधुर और रक्तदोष, निवारक होती है। गुड़ भारी, स्निग्ध, वातनाशक, मूत्रशोधक, मेदावर्धक, कफकत्र्ता, कृमिजनक और बलकर्ता है। पुराना गुड़ हलके पथ्य का काम देता है। वह अग्निकारक, बलदायक, पित्तनाशक, मधुर, वातनाशक और रुधिर को स्वच्छ करने वाला है। नया गुड़ अग्निकारक है। इसके सेवन से कफ श्वांस, खांसी और कृमिरोग पैदा होते हैं। नित्य अदरक के रस में गुड़ मिलाकर खाने से कफ नष्ट होता है। हरड़ के साथ खाने से पित्तनाश होता है। सोंठ के साथ खाने से सम्पूर्ण वातविकार नष्ट होते हैं। इस प्रकार गुड़ त्रिदोषनाशक है। खांड मधुर, नेत्रों को लाभ पहुंचाने वाली, वात-पित्तनाशक, स्निग्ध, बलकारक और वमननिवारक है। चीनी मधुर रुचिकारी, बात-पित्तनाशक, रुधिर दोष निवारक, दाहशांतिकर्ता, शीतल और वीर्य बढ़ाने वाली है। इससे मूर्छा, वमन और ज्वर में लाभ पहुंचता है। यही गुण गुड़ से बनी फूल चीनी में है।
असल में हम भारतीय सदा से मधुरप्रिय रहे हैं। मीठा खाओ, मीठा बोलो, गुड़ न दो तो गुड़ की सी बात अवश्य करो, हमारे जीवन सिद्धांत रहे हैं। शायद यही कारण है कि आयुर्वेद के जनकों ने पाक, प्राश, अवलेह, आदि के रूप में हमारे लिए अनेक मधुर और बलवर्धक औषधियां तैयार की हैं। अत: हमारे जीवन में गन्ने के महत्व का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
भारत में गन्ने की खेती लगभग ३२ लाख हैक्टर भूमि पर की जाती है जिससे १,८०० लाख टन गन्ने की उपज प्राप्त होती है। इस प्रकार गन्ने की औसत उपज लगभग ५७ टन प्रति हैक्टर है जो उत्पादन-क्षमता से काफी कम है। यदि किसान भाई यह जान लें कि गन्ने में कब और कितनी खाद दी जाये और कब और कैसे सिंचाई की जाए तो गन्ने की उपज को काफी हद तक बढ़ा सकते हैं। हमारे देश में गन्ने के लिए प्रयुक्त क्षेत्र को देखते हुए उसकी उपज अपेक्षाकृत कम है। इसका प्रमुख कारण आवश्यकतानुसार खाद-पानी की सुविधा और उनका उपयोग उचित समय पर न होना है। देश में कुल बोये गये फसल-क्षेत्र के लगभग ४३ प्रतिशत भाग पर सिंचाई-सुविधा उपलब्ध है। यदि विभिन्न फसलों की सिंचाई सुविधा की दृष्टि से देखा जाये तो गन्ने को केवल ०। ५ प्रतिशत पानी ही मिल पाता है। बोये गये गन्ने के कुल क्षेत्र का लगभग ३४। ६ प्रतिशत भू-भाग पर पूर्ण सिंचाई सुविधा उपलब्ध है और शेष बड़े भाग (६५। ४ प्रतिशत) पर सीमित सिचाई सुविधा है, या कहीं-कहीं पर नहीं के बराबर है। यदि हम गन्ने की उपज का जायजा लें तो पता चलता है कि सिंचित क्षेत्र में गन्ने की औषत उपज ६७ टन/हैओ है। सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों की केवल ४१ टन/हैओ है। गन्ने की फसल को वैसे तो हमेशा नमी की आवश्यकता होती है, लेकिन जमाव, कल्ले निकलने और बढ़ाव के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना अत्यन्त आवश्यक है। पाया गया है कि उत्तरी भारत में गन्ने की फसल के पूरे जीवन-काल में लगभग १५०-१७५ सेंओमीओ पानी की आवश्यकता होती है। वर्षा द्वारा गन्ने की फसल को लगभग १०० सेंओमीओ पानी की आपूर्ति हो जाती है और शेष पानी की मात्रा को सिंचाई द्वारा गन्ने की वृद्धि को क्रान्तिक अवस्थाओं में पूरा करना पड़ता है। गन्ने में उर्वरकों की मात्रा संबंधी सिफारिशों के आधार पर लगभग ४ लाख ५० हजार टन नाइट्रोजन, १ लाख ५० हजार टन फास्फोरस तथा १ लाख ५० हजार टन पोटाश की आवश्यकता है, जो हमारे देश में इसका ४०-५० प्रतिशत ही उर्वरक उपलब्ध हो पाता है। ऐसी स्थिति में गन्ने की फसल से अच्छी उपज प्राप्त करना हमारे कृषि वैज्ञानिकों के समक्ष चुनौती भरा प्रश्न है। यद्यपि इस ओर वैज्ञानिकों ने अनवरत कठोर प्रयास किये हैं जिनके फलस्वरूप अब ऐसी संभावनाएं हो गई हैं कि उपलब्ध सिंचाई सुविधा व उर्वरकों द्वारा वांछित उपज प्राप्ति की जा सकती है। यदि किसान भाई सिंचितसुविधा व खाद की मात्रा तथा उनके प्रयोग करने के उचित समय पर आधारित नवीन तकनीकी की जानकारी लेकर गन्ने की खेती करें तो भारी उपज प्राप्त कर सकते हैं।
प्यासे गन्ने को पानी दें
प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि भूमि की जलधारिता के अनुसार औसतन ६० प्रतिशत क्षेत्र क्षमता (फील्ड कैपेसिटी) गन्ने की अच्छी उपज के लिए अति उत्तम है। इस क्षमता से अधिक पानी देने पर उर्वरक तत्वों के बह जाने का भय रहता है। सिंचाई की उचित व्यवस्था होने पर वर्षा के पहले बसन्तकालीन गन्ने में चार-पांच, शरदकालीन गन्ने में किस समय किया जाय कि अधिकतम लाभ उठाया जा सके इस ओर संस्थान ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। परीक्षणों के आधार पर यदि एक सिंचाई सुविधा है तो उसे मई के अंत या जून, तीन सिंचाइयों को अप्रैल, मई, जून और चार सिंचाइयों को गन्ने के जमाव पूरा होने पर मार्च, अप्रैल, मई और जून में करना चाहिए। किसानों की सुविधा के अनुसार पानी लगाने की चारों अवस्थाओं का वर्गीकरण जमाव पूरा होने, पहला, दूसरा तथा तीसरा व्यांत निकलने के आधार पर करना चाहिए। गन्ने की सिंचाई आमतौर पर पूरे खेत में सपाट विधि द्वारा या छोटी-छोटी क्यारियां बनाकर की जाती हैं। इस विधि द्वारा सिंचाई करने से अधिक पानी की आवश्यकता होती है।
गन्ने का वानस्पतिक वर्गीकरण
सैकेरम वंश की पाँच महत्वपूर्ण जातियाँ हैं जो निम्नलिखित हैं:
सैकेरम साइनेन्स
- इसे चीनी गन्ना के रूप में जाना जाता है। इसका उदभव स्थान मध्य एवं दक्षिण पूर्व चीन है।
- यह लंबी पोरियों से युक्त पतला वृंत और लंबी एवं संकुचित पत्तियों से युक्त गन्ना है।
- इसमें सुक्रोस अंश एवं शुध्दता कम होती है और रेशा एवं स्टार्च अधिक होता है।
- गुणसूत्र संख्या 2x = 111 से 120 है। इस जाति के अन्तर्गत एक उल्लेखनीय प्रजाति ऊबा है जिसकी खेती कई देशों में की जाती है।
- इस समय इस जाति को व्यापारिक खेती के लिए अनुपर्युक्त माना जाता है।
सैकेरम बार्बेरी
- यह जाति उपोष्ण कटिबंधीय भारत का मूल गन्ना है।
- इसे 'भारतीय जाति' माना जाता है।
- उपोष्ण कटिबंधीय भारत में गुड़ एवं खाड़सारी चीनी का निर्माण करने के लिए इसकी बड़े पैमाने पर खेती की जाती है।
- यह अधिक मजबूत एवं रोग प्रतिरोधी जाति है और इसके गन्नों में अधिक शर्करा एवं रेशा अंश होता है। वे पतले वृंत वाले होते हैं।
- इस जाति के क्लोन उच्च एवं निम्न तापमानों, समस्या ग्रस्त मृदाओं और जलाक्रांत दशाओं के लिए अधिक सहिष्णु है।
सैकेरम रोबस्टम
- यह जाति न्यू गिनी द्वीप समूह में खोजी गई थी। इस जाति के गन्नों के वृंत लंबे, मोटे एवं बढ़ने में ओजपूर्ण होते हैं।
- यह रेशा से भरपूर है और अपर्याप्त शर्करा अंश रखती है। गुणसूत्र संख्या 2x = 60 एवं 80 है।
- यह जंगली जाति है और कृषि उत्पादन के लिए अनुपयुक्त है।
सैकेरम स्पान्टेनियम
- इसे भी 'जंगली गन्ने' के रूप में जाना जाता है। इसकी प्रजातियाँ गुणसूत्रों की परिवर्तनशील संख्या (2x = 40 से 128) रखती है। इस जाति की आकारिकी में पर्याप्त परिवर्तनशीलता देखी गई है।
- सामान्यत: इसका वृंत पतला एवं छोटा होता है। और पत्तियाँ संकुचित (तंग) एवं कठोर होती हैं।
- पौधा अधिक मजबूत और अधिकांष रोगों का प्रतिरोधी होता है।
- यह जाति शर्करा (चीनी) उत्पादन के लिए उपयोगी नहीं है क्योंकि शर्करा अंश बहुत कम होता है।
- यह जाति विशेष रूप से रोग एवं प्रतिबल प्रतिरोधी प्ररूप प्राप्त करने के लिए संकर प्रजातियाँ विकसित करने के लिए उपयोगी है।
कीट एवं रोग
1. पाइरिला (Pyrilla) नामक कीट से गन्ने को बहुत क्षति पहुँचती है। 2. तना छेदक (Chilo infascatellus) यह पौधे के तने में वृद्धि विंदु पर मृत टिश्यू (Dead Heart) पैदा करता है। 3.
इन्हें भी देखें
- गन्ना कारखाना
- गन्ना का रस
- गन्ने की खेती कैसे करें
- रबी की फसल
- खरीफ की फसल
- ज़ायद की फसल
- भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान
- राष्ट्रीय शर्करा संस्था, कानपुर
बाहरी कड़ियाँ
- गन्ने की खेती (विकासपीडिया)
- र्वैज्ञानिक गन्ना खेती की विधियॉं (यूपी केन)
- गन्ने की व्यावसायिक खेती
- उ0प्र0 गन्ना शोध परिषद्
- उत्तर प्रदेश गन्ना विकास विभाग
- चीनी उद्योग में विविधीकरण की आवश्यकता
- गन्ना : वानस्पतिक विवरण एवं वर्धन अवस्थाएंसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- सस्टेनबल सुगरकेन इनिसिएटिव (एस.एस.आई.) : गन्ना उत्पादन की नवोन्वेषी तकनीक (कृषिका)
- भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान के द्वारा उपलब्ध करायी गयी तकनीकों का परिचय
- गन्ने की खेती कैसे करें