सिंहल साहित्य

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उत्तर भारत की एक से अधिक भाषाओं से मिलती-जुलती सिंहल भाषा का विकास उन शिलालेखों की भाषा से हुआ है जो ई. पू. दूसरी-तीसरी शताब्दी के बाद से लगातार उपलब्ध है।

भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के दो सौ वर्ष बाद अशोकपुत्र महेन्द्र सिंहल द्वीप पहुँचे, तो "महावंश" के अनुसार उन्होंने सिंहल द्वीप के लोगों को द्वीप भाषा में ही उपदेश दिया था। महामति महेंद्र अपने साथ "बुद्धवचन" की जो परंपरा लाए थे, वह मौखिक ही थी। वह परंपरा या तो बुद्ध के समय की "मागधी" रही होगी, या उनके दो सौ वर्ष बाद की कोई ऐसी "प्राकृत" जिसे महेंद्र स्थविर स्वयं बोलते रहे होंगे। सिंहल इतिहास की मान्यता है कि महेंद्र स्थविर अपने साथ न केवल त्रिपिटक की परंपरा लाए थे, बल्कि उनके साथ उसके भाष्यों अथवा उसकी अट्ठकथाओं की परंपरा भी। उन अट्ठकथाओं का बाद में सिंहल अनुवाद हुआ। वर्तमान पालि अट्ठकथाएँ मूल पालि अट्ठकथाओं के सिंहल अनुवादों के पुन: पालि में किए गए अनुवाद हैं।

जहाँ तक संस्कृत वाङ्मय की बात है, उसके मूल पुरुषों के रूप में भारतीय वैदिक ऋषि-मुनियों का उल्लेख किया जा सकता है। सिंहल साहित्य का मूल पुरुष किसे माना जाए? या तो भारत के "लाट" प्रदेश (गुजरात) से ही सिंहल में पदार्पण करने वाले विजय कुमार और उनके साथियों को या फिर महेंद्र महास्थविर और उनके साथियों को।

सिंहल द्वीप का शिलालेखों का इतिहास देवानांप्रिय तिष्य (तृतीय शताब्दी ई. पू.) के समय से ही आरंभ होता है। लेकिन अभी तक जितने भी शिलालेख मिले हैं, उनमें से प्राचीनतम शिलालेख राजा वट्टगायणी (ई. प्रथम शताब्दी) के समय के ही हैं: आठवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी के बीच के समय के जो शिलालेख सिंहल में मिले हं, वे ही सिंहल गद्य साहित्य के प्राचीनतम नमूने हैं।

अनुराधपुर काल की सबसे अधिक महत्वपूर्ण साहित्यिक रचना तो है 'सो गिरि' के गीत। सिंहल शिलालिपियों के बाद यदि किसी दूसरे साहित्य को सिंहल का प्राचीनतम साहित्य माना जा सकता है। तो वे ये सी गिरि के गीत ही हैं।

सी गिरि के गीतों के बाद जिस प्राचीनतम काव्य को वास्तव में महत्वपूर्णं स्थान प्राप्त ह, वह है सिंहल का "सिय बस लकर" नाम का साहित्यालोचक काव्य। यह दंडी के काव्यादर्श का अनुवाद या छायानुवाद होने पर भी वैसा प्रतीत नहीं होता।

पाँचवें काश्यप नरेश का राज्यकाल ई. 908 से 918 तक रहा। उन्होंने पालि धम्मपद अट्ठकथा का आश्रय लेकर "धम्मपिय अटुवा" जैसे पदय की रचना की। यह धम्मपद अट्ठकथा का शब्दार्थ, भावार्थ, विस्तरार्थ सब कुछ है।

पोलन्नरुव काल के आरंभ में संस्कृत साहित्य की जानकारी बड़े गौरव की बात समझी जाती थी। राजाओं के अमात्यों के पुत्र यदि इतनी संस्कृत सीख लेते थे कि वे श्लोकों की रचना कर सकें, तो कभी-कभी राजा प्रसन्न होकर बस इतनी सी बात पर ही उन्हें बहुत सा धन दे डालते थे।

सिंहल भाषा संस्कृत भाषा से कितनी अधिक प्रभावित हो रही थी, इसका स्पष्ट उदाहरण है-महाबोधि वंश ग्रंथिपाद: सारा का सारा नामकरण शुद्ध संस्कृत है। पोलन्नरुव काल के अंतिम भाग में अथवा दंबदेणि काल के आरंभ में "कर्म विभाग" नाम के एक गद्य ग्रंथ की रचना हुई। क्या तो साहित्यिक दृष्टि से और क्या धार्मिक दृष्टि से जो तीन चार अत्यंत जनप्रिय ग्रंथ रचे गए, उनमें एक है "बुतसरण" अथवा "बुद्धशरण"।

"दंबदेणि कालय" की एक विशिष्ट रचना है सिदत् संगरा। यह सिंहल भाषा का प्राचीनतम प्राप्य व्याकरण है। जिस प्रकार अभावतुर, बुतसरण तथा रत्नावलि ने सिंहल गद्य साहित्य को समृद्ध किया है, उसी प्रकार सिंहल उम्मग जातक ने भी सिंहल गद्य साहित्य को बहुत ऊँचे उठाया है। लेकिन सिंहल गद्य साहित्य का विशालतम ग्रंथ तो सिंहल "जातक पोत" को ही माना जाएगा। यह पालि जातक अट्ठकथा का ही सिंहल भावानुवाद है।

लगभग पचास वर्षों का "करुण-गल-काल एक प्रकार से" "दंबदेणि कालय" का ही विस्तार मात्र है। किंतु कुछ विशिष्ट रचनाओं के कारण उसका भी स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता है। कुरुणै-गल-कालय की अपेक्षा कुछ अधिक ही साहित्य सेवा हुई। "निकाय-संग्रह" जैसी महत्वपूर्ण कृति की रचना इसी काल में हुई।

"गमपोल कालय" के बाद है "कोट्टे कालय"। आज सिंहल कविता की जो विशिष्ट स्थिति है, वह बहुत करके "कोट्टे कालय" में ही हुए विकास का परिणाम है।

जिसने भी कभी सिंहल भाषा के साहित्य का कुछ भी परिचय प्राप्त किया वह लो बैउ संग्रा (लोकार्थ संग्रह) से अपरिचित न रहा होगा। अत्यंत छोटी कृति होने पर भी इसका घर-घर प्रचार है। न जाने कितने लोगों को यह कृति कंठाग्र है।

श्री राहुल महास्थविर द्वारा रचित काव्य शेखर तथा उन्हीं के शिष्य वैत्तेवे द्वारा रचित गुत्तिल काव्य "कोट्टे कालय" की दो विशिष्ट रचनाएँ हैं।

"कोट्टे कालय" के बाद आता है "सीतावक कालय" तथा सीतावक कालय के बाद आता है "सेनकड कालय"। इस अंतिम काल की विशेषता है तमिल ग्रंथों के सिंहल अनुवाद होना।

यदि हम "महनुवर कालय" के पूर्व भाग अर्थात् "सेनकड कालय" की साहित्यिक प्रवृत्ति का अनुशीलन करें तो हम देखेंगे कि इससे पहले इतने भिन्न-भिन्न तरह के विषय कभी काव्यगत नहीं हुए।

अट्ठारहवीं शताब्दी के पूर्व भाग से आरंभ होने वाला समय ही श्रीलंका के इतिहास का वर्तमान युग है। इस नूतन युग के सरलता से दो हिस्से किए जा सकते हैं- पहला हिस्सा ई. 1706 से ई. 1815 तक, दूसरा हिस्सा ई. 1815 से आगे।

"महनुवर कालय" में धर्मशास्त्र संबंधी साहित्य ने जितनी भी उन्नति की उसका सारा श्रेय एक ही महान विभुति को दिया जा सकता है। उस विभूति का नाम था संघराज अरणंकार। उन्होंने इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए चतुर्मुख प्रयास किए।

"कोलंबु कालय" में जिन साहित्यिक प्रवृतियों की प्रधानता रही, उनमें से कुछ हैं पुरानी पुस्तकों के नए संस्करण, सिंहल टीकाएँ, अंग्रेजी तथा अन्य भाषा की पुस्तकों के अनुवाद और आलोचना-प्रत्यालोचना-संबंधी साहित्य। नई विधाओं में नाट्य ग्रंथों तथा उपन्यासों की प्रधानता है।

जबसे इधर सिंहल भाषा की शिक्षा के माध्यम से रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, तब से शास्त्रीय पुस्तकों के लिए उपयोगी होने की दृष्टि से कई "पारिवारिक शब्दकोश" तैयार किए गए हैं।

इधर सिंहल साहित्य में हिंदी से अनूदित कुछ ग्रंथ भी पाए हैं, वैसे ही जैसे हिंदी में भी सिंहल साहित्य के कुछ ग्रंथ।

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