साँचा:आज का आलेख ६ अगस्त २००९
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हिन्दी कथा में अपनी अलग और देशज छवि बनाए और बचाए रखने वाले चर्चित लेखक भगवानदास मोरवाल के इस नये उपन्यास के केन्द्र में है - माना गुरु और माँ नलिन्या की संतान कंजर और उसका जीवन। कंजर यानी काननचर अर्थात् जंगल में घूमने वाला। अपने लोक-विश्वासों व लोकाचारों की धुरी पर अपनी अस्मिता और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती एक विमुक्त जनजाति। राजकमल से प्रकाशित इस उपन्यास में कहानी है कंजरों की - एक ऐसी घुमंतू जाति जो समूचे दक्षिण-पश्चिमी एशिया में कमोबेश फैली हुई है। कहानी घूमती है कमला सदन नाम के एक मकान के इर्द-गिर्द, जो परिवार की मुखिया कमला बुआ के नाम पर रखा गया है और जहां रुक्मिणी, संतो, पिंकी आदि तमाम महिलाओं का जमघट है। ये सभी पारंपरिक यौनकर्मी हैं और जिस कंजर समाज से वे आती हैं, वहां इस पेशे को लंबे समय से मान्यता मिली हुई है।...विस्तार से पढ़ें...