संस्कृत के प्राचीन एवं मध्यकालीन शब्दकोश
1947
निघंटु : आर्यभाषा का प्रथम शब्दकोश
संस्कृत के पुरातनतम उपलब्ध शब्दकोश वैदिक 'निघंटु' है। उसका रचनाकाल कम से कम ७०० या ८०० ई० पू० है। वैदिक शब्दों (केवल विरल या क्लिष्ट शब्द) के संग्रह को 'निघंटु' कहते थे। 'यास्क' का निरुक्त वैदिक निघंटु का भाष्य है। यास्क से पूर्ववर्ती निघंटुओं में एकमात्र यही निघंटु उपलब्ध है पर 'निरुक्त' से जान पड़ता है के 'यास्क' के पूर्व अनेक निघंटु बन चुके थे। अत: कह सकते हैं कि कम से कम ई० पू० १००० से ही निघंटु कोशों का संपादन होने लगा था।
विस्तृत जानकारी के लिये निघण्टु तथा निरुक्त देखें।
निघंटु के पश्चात कोशों की परम्परा
वैदिक निघंटुकोशों और 'निरुक्त ग्रंथों' के अनंतर संस्कृत के प्राचीन और मध्यकालीन कोश हमें उपलब्ध होते हैं। इस संबंध में 'मेक्डानल्ड' ने माना है कि संस्कृत कोशों की परंपरा का उद्भव (निघटु ग्रंथों के अनंतर) धातुपाठों और गणपाठों से हुआ है। पाणिनीय अष्टाध्यायी के पूरक पारिशिष्ट रूप में धातुओं और गणशब्दों का व्याकरणोपयोगी संग्रह इन उपर्युक्त पाठों में हुआ। पर उनमें अर्थनिर्देश न होने के कारण उन्हे केवल धातुसूची और गणसूची कहना अधिक समीचीन होगा।
आगे चलकर संस्कृत के अधिकांश कोशों में जिस प्रकार रचनाविधान और अर्थनिर्देश शैली का विकास हुआ है वह धातुपाठ या गणापाठ की शैली से पूर्णतः पृथक् है। निघंटु ग्रंथों से इनका स्वरूप भी कुछ भिन्न है। निघंटुओं में वैदिक शब्दों का संग्रह होता था। उनमें क्रियापदों, नामपदों और अव्ययों का भी संकलन किया जात था। परंतु संस्कृत कोशों में मुख्यतः केवल नामपदों और अव्ययों का ही संग्रह हुआ।
'निरुक्त' के समान अथवा पाली के 'महाव्युत्पत्ति' कोश की तरह इसमें व्युत्पत्तिनिर्देश नहीं है। वैदिक निघंटुओं में संगृहीत शब्दों का संबंध प्रायः विशिष्ट ग्रंथों से (ऋग्वेदसंहिता या अथर्वसंहिता का अथर्वनिघंटु) होता ता। इनकी रचना गद्य में होती थी। परंतु संस्कृत कोश मुख्यतः पद्यात्मक है और प्रमुख रूप से उनमें अनुष्टुप् छंद का योग (अभिधानरन्तमाला आदि को छोड़कर) हुआ है। संस्कृत कोशों द्वारा शब्दो और अर्थ का परिचय कराया गया हैः धनंदय, धरणी' और 'महेश्वर' आदि कोशों के निर्माण का उद्देश्य था संभवतः महत्वपूर्ण विरलप्रयुक्त और कविजनोपयोगी शब्दों का संग्रह बनाना।
संस्कृत कोशों का ऐतिहासिक सिंहावलोकन करने से हमें इस विषय को सामान्य जानकारी प्राप्त हो सकती है। इस संबंध में विद्वानों ने 'अमरसिंह' द्वारा रचित और सर्वाधिक लोकप्रिय 'नामलिंगानुशासन' (अमरकोश) को केंद्र में रखकर उसी आधार पर संस्कृत कोशों को तीन कालखंडों में विभाजित किया है-
- (१) अमरकोश-पूर्ववर्ती संस्कृत कोश,
- (२) अमरकोशकाल तथा
- (३) अमरकोशपरवर्ती संस्कृत कोश।
प्राचीन (अमरकोश पूर्ववर्ती) संस्कृत कोश
'अमरसिंह' के पूर्ववर्ती कोशों का उनके नामलिंगानुशासन' में उल्लेख नहीं मिलता है। परंतु 'समाहृत्यान्यतन्त्राणि' के ध्वन्यार्थ का आधार लेकर 'अमरकोश' की रचना में पूर्ववर्ती कोशों के उपयोग का अनुमान किया जा सकता है। 'अमरकोश' की एक टीका में लब्ध 'कात्य' शब्द के आधार पर 'कात्य' या 'कात्यायन' नामक 'अमर-पूर्ववर्ती कोशकार का और पाठांतर के आधार पर व्याडि नामक कोशाकार का अनुमान होता है। 'अमरकोश' के टीकाकार 'क्षीरस्वामी' के आधार पर 'धन्वतंरि' के 'धन्वतरपिनिघंटु' नामक वैद्यक निघंटु (कोश) का संकेत मिलता है। 'महाराष्ट्र शब्दकोश' की भूमिका में 'भागुरि' केकोश को भी—जिसका 'त्रिकांडकोश' था—'अमर-पूर्ववती' बताया गया है। यह कोश दक्षिण भारत की एक ग्रथसूची में आज भी उल्लिखित है। 'रंति या 'रंतिदेव' और 'रसभ' या 'रसभपाल' को भी (महाराष्ट्र शब्दकोश की भूमिका के आधार पर) 'अमर-पूर्ववर्ती' कोशकार कहा गया है।
'सर्वानन्द' ने 'अमरकोश की अपनी टीका में बताया है कि 'व्याडि' और 'वररुचि' आदि के कोशों में केवल लिंगों का संग्रह है और 'त्रिकांड' एवं 'उत्पलिनी' में केवल शब्दों का। परंतु 'अमरकोश' में दोनों की विशेषताएँ एकत्र संमिलित हैं। इस प्रकार 'व्याडि', 'वररुचि' (या कात्य) 'भागुरि' और 'धन्वंतरि' आदि अनेक कोशकारों का क्षीरस्वामी ने अमर-पूर्ववर्ती कोशकारों और 'त्रिकांड', 'उत्पलिनी', 'रत्नकोश' और 'माला' आदि अमर-पूर्ववर्ती कोशग्रोथों का परिचय दिया है।
अमरकोशकाल (रचनाकाल—लगभग चौथी पाँचवी शती)
अमरकोश की महता के कुछ कारण हैं। यद्यपि तत्पूर्ववर्ती कोश ('धन्वतरिनिघंटु' तथा पांडुलिपिसूची में उल्लिखित एकाध अन्य ग्रंथ को छोड़कर) आज उपलब्ध नहीं हैं तथापि यह अनुमान किया जाता है कि प्राचीन कोशों में दो प्रकार की शैलियाँ (कदाचित्, प्रचलित थीं—
(१) कुछ कोश (संभवतः) नामों (सज्ञाओं) का ही और कुछ लिंगों का ही निर्देश करते थे। (कदाचित् दो एक कोश धातुसूची भी प्रस्तुत करते थे।) इन्हें नामतंत्र (नामपारायणात्मक) तथा लिंगतंत्र (लिंगपारायणत्मक) कहा जाता था।
(२) द्वितीय विधा के कोशों में लिंगों का विवेचनात्मक निर्देशन ही मुख्य विषय रहता था।
पर 'अमरसिंह ने अपने कोश में दोनों का एक साथ अत्यंत प्रौढ़ संयोजन और विवेचन किया है। आरंभ में ही उन्होंने तीसरे से पाँचवे श्लोक तक अपने कोश में प्रयुक्त नियमों और पद्धति का स्पष्ट निर्देश किया है। इनके आधार पर शब्दार्थ के साथ ही साथ लिंग का निर्णय भी होता है।
तीन कांडों के इस ग्रंथ में क्रमशः दस, दस और पाँच वर्ग हैं। उपक्रम भाग में निर्दिष्ट पद्धति के अनुसार नामपदों के लिंग का आद्यंत निर्देश किया गया है। इसी कारण इसका अभिधान 'नामलिंगानुशासन' है। इसकी विशिष्टता का परिचय देते हुए स्वयं ग्रंथकार ने बताया है कि अन्य तंत्रों से विवेच्य विषय का समाहार करते हुए संक्षिप्त रूप में और प्रतिसंस्कार द्वार उत्कृष्ट रूप से वर्गों में विभक्त—इस नामलिंगानुशासन' को पूर्ण बनाने का प्रयास हुआ है। यही इसकी विंशेषता है।
सुव्यविस्थित पद्धित के अनुसार कांडों और वर्गों का विभाजन किया गया है। वस्तुतः देखा जाय तो प्रथम दो कांड इस कोश का पर्यायवाची स्वरूप प्रस्तुत करते हैं ओर तृतीय कांड में नाना प्रकृति के इतर नामपदों का संग्रह है। विशेष्यनिघ्न वर्ग में विशेष्या- नुसारी लिंगादि में प्रयुक्त होनेवाले नामपदों का संग्रह है। 'संकीर्ण' वर्ग में प्रकृति प्रत्यादि के अर्थ द्वारा लिंग की ऊहा का विवेचन हुआ है। नानार्थ' वर्ग में नानार्थ नामों का 'कांत', 'खांत' आदि क्रम के अनुसार संग्रह किया गया है। चतुर्थ वर्ग अव्यय शब्दों को संकलित करनेवाला है और अतिम वर्ग लिंगादिसंग्रह कहा गया है एव उसमें शास्त्रीय और व्याकरणनियमानुसारी आधार को लेकर लिंग का अनुशासन मुख्य रूप से तथा गौण रूप से अन्य अनुक्त-लिंगनिर्देश की क्रमबद्ध पद्धति बताई गई है।
यह कोशग्रंथ मुख्यतः पर्यायवाची ही है। फिर भी तृतीय कांड के द्वार, जिसे हम आधुनिक पदावली में परिशिष्टांश कह सकते हैं, इस कोश की पूर्ण और व्यापक तथा उपयोगी बनाया गया है।
अमरकोशपरवर्ती काल के संस्कृत कोश
अमरपरवर्ती काल में संस्कृत कोशों की अनेक विधाएँ लक्षित होती हैं -
- कुछ कोश मुख्यतः केवल नानार्थ कोश के रूप में हमारे सामने आते है,
- कुछ को समानार्थक शब्दकोश और
- कुछ को अशंतः पर्यायवाची कोश कह सकते हैं।
इन विधाओं के अतिरिक्त ऐसे कोश भी मिलते हैं जिनमें क्रमशः एकाक्षर, द्वायक्षर, त्यक्षर और नानाक्षर शब्दों का योजनाबद्ध रूप से संकलन हुआ है। 'द्विरूप' कोश भी बने है।
इनके अरिरिक्त 'पुरुषोत्तमदेव' का ग्रंथ 'वर्णदेशना' है, जिसमें लिखावट में स्वल्पाधिक भेदों के कारण होनेवाले वर्णाविन्यास संबंधी वैरूप्य परिचय मिलता है। इन्हीं का एक कोश 'त्रिकांडकोष' भी है जिसमें अमरसिंह के कोश में छूटे हुए, पर तदयुगीन' भाषा में प्रचलित, शब्दों का संग्रह है। 'पुरुषोत्तमदेव' की ही एक रचना 'हारावली' भी है, जिसमें विरल प्रयोगवाले 'एकार्थ' और 'अनेकार्थ' शब्दों के दो भाग हैं। स्वयं लेखर ने लिखा है कि इस ग्रंथ में अत्यंत विरल शब्दों का संग्रथन हुआ है।
'अमरसिंह' के अनंतर कोशकारों और कोशग्रंथों पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है। पर्यायवाची कोश बहुत कुछ अमरकोश से प्रभाव ग्रहण कर लिखे गए। 'नानार्थ' या 'अनेकार्थ' कोश भी अमरकोश के नानार्थ वर्ग के आधार पर प्रायः बहुमुखी विस्तारमात्र रहे हैं। 'विश्वप्रकाश' कोश में अवश्य कुछ अधिक वैशिष्ट दिखाई देत है। वह विलक्षण 'नानार्थकोश' है जो अनेक अध्ययों में विभक्त है। प्रत्येक अध्याय में एकाक्षर, द्वयक्षर आदि क्रम से सप्ताक्षर शब्दों तक का संकलन है। 'कैकक', 'कद्विक', आदि भी अध्यायों के नाम हैं। 'अमरकोश' की तरह ही शब्द के अंतिम वर्णानुसार कांत, खांत आदि रूप में शब्दों का अनुक्रम है। उनका 'शब्द—भेद—प्रकाशिका' नामक ग्रंथ भी वस्तुतः इसी का अन्य परिशिष्ट है। इसके चार अध्यायों में क्रमशः 'शब्दभेद', 'वकारभेद', 'ऊष्मभेद' और 'लिंगभेद' नामक चार विभिन्न भेद हैं। ऐतिहासिक क्रम से संस्कृत कोशों का निर्देश नीचे किया रहा हैः
शाश्वत का अनेकार्थसमुच्चय नामक नानार्थ कोश है। समय पूर्णतः निश्चित न होने पर भी ६०० ई० के आसपास के काल में इसकी रचना मानी जाती है। इसी को 'शाश्वतकोश' भी कहते हैं। 'अमरकोश' के संक्षिप्त नानार्थ वर्ग का यह विस्तार जान पड़ता है। ८०० अनुष्टुप छंदों के इस कोश को छह भागो में विभक्त किया गया है। आद्य तीन भागों में क्रमबद्ध रूप से शब्द के अर्थ क्रम से चार चरणों (पूरे श्लोक), दो चरणों (आधे श्लोक) और एक चरण में दिए गए हैं। चौथे भाग में एक-एक चरण में नानार्थबोधक शब्द है और पंचम तथा षष्ठ विभागों में अव्यय हैं।
भट्ठ हलायुध (समय लगभग १० वीं० शताब्धी ई०) के कोश का नाम 'अभिधानरत्नमाला' है, पर 'हलायुधकोश' नाम से यह अधिक प्रसिद्ध है। इसके पाँच कांड (स्वर, भूमि, पाताल, सामान्य और अनेकार्थ) हैं। प्रथम चार पर्यायवाची कांड हैं, पंचम में अनेकार्थक तथा अव्ययशब्द संगृहीत है। इसमें पूर्वकोशकारों के रूप में अमरदत्त, वरुरुचि, भागुरि और वोपालित के नाम उद्धृत है। रूपभेद से लिंग- बोधन की प्रक्रिया अपनाई गई है। ९०० श्लोकों के इस ग्रंथ पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव जान पड़ता है। 'पिंगलसूत्र' की टीका के अतिरिक्त 'कविरहस्य' भी इनका रचित है जिसमें 'हलायुध' ने धातुओं के लट्लकार के भिन्न भिन्न रूपों का विशदीकरण भी किया है।
यादवप्रकाश (समय १०५५ से १३३७ के मध्य) का वैजयंती कोश अत्यंत प्रसिद्ध भी है और महत्वपूर्ण भी। इसकी कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। यह बृहदाकार भी है और प्रामाणिक भी माना गया है। इसकी सर्वप्रमुख विशेषता है - नानार्थ भाग की आदिवर्ग-क्रमानुसारी वर्णक्रमयोजना जिसमें आधुनिक कोशों की अकारादि- वर्णानिक्रमपद्धति का बीज दृष्टिगोचर होता है। परंतु कोठोरता और पूर्णता के साथ इस नियम का पालन नहीं है। केवल प्रथमाक्षर का आधार लिया गया है—दितीय, तृतीय आदि अक्षर या ध्वनि का नहीं। इसके दो भाग हैं—(१) पर्यायवाची और (२) नानार्थक। दोनों ही भाग—अमरकोश की अपेक्षा अधिक संपन्न है। नानार्थभाग के तीन का में द्वयक्षर, त्रयक्षर और शेष शब्दो को संकलित किया गया है। नानार्थभाग के कांडों का अध्याविभाग— उपप्रकरणों में लिंगानुसार (पुल्लिंगाध्याय, स्त्रीलिंगाध्याय, नपुंसकलिंगाध्याय, अर्थल्लिंगाध्याय और नानालिंगाध्याय) हुआ है। अंतिम चार अध्यायों में और भी अनेक विशेषताएँ हैं। अमरकोश की परिभाषाएँ संक्षेपीकृत रूप से गृहीत है। इसमें कुछ वैदिक शब्द भी संगृहीत है।
हेमचंद्र - संस्कृत के मध्यकालीन कोशकारों में हेमचंद्र का नाम विशेष महत्त्व रखता है। वे महापंडित थे और 'कालिकालसर्वज्ञ' कहे जाते थे। वे कवि थे, काव्यशास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्रमर्मज्ञ ते, जैनधर्म और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे, टीकाकार ते और महान कोशकार भी थे। वे जहाँ एक ओर नानाशास्त्रपारंगत आचार्य थे वहीं दूसरी ओर नाना भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार एवं अनेकभाषाकोशकार भी थे (समय १०८८ से ११७२ ई०)। संस्कृत में अनेक कोशों की रचना के साथ साथ प्राकृत—अपभ्रंश—कोश भी (देशीनाममाला) उन्होंने संपादित किया। अभिधानचिंतामणि (या 'अभिधानचिंतामणिनाममाला' इनका प्रसिद्ध पर्यायवाची कोश है। छह कांडों के इस कोश का प्रथम कांड केवल जैन देवों और जैनमतीय या धार्मिक शब्दों से संबंद्ध है। देव, मर्त्य, भूमि या तिर्यक, नारक और सामान्य—शेष पाँच कांड हैं। 'लिंगानुशासन' पृथक् ग्रंथ ही है। 'अभिधानचिंतामणि' पर उनकी स्वविरचित 'यशोविजय' टीका है—जिसके अतिरिक्त, व्युत्पत्तिरत्नाकर' (देवसागकरणि) और 'सारोद्धार' (वल्लभगणि) प्रसिद्ध टीकाएँ है। इसमें नाना छंदों में १५४२ श्लोक है। दूसरा कोश 'अनेकार्थसंग्रह (श्लो० सं० १८२९) है जो छह कांडों में है। एकाक्षर, द्वयक्षर, त्र्यक्षर आदि के क्रम से कांडयोजन है। अंत में परिशिष्टत कांड अव्ययों से संबंद्ध है। प्रत्येक कांड में दो प्रकार की शब्दक्रमयोजनाएँ हैं—(१) प्रथमाक्षरानुसारी और (२) 'अंतिमंक्षरानुसारी'। 'देशीनाममाला' प्राकृत का (और अंशतः अपभ्रंश का भी) शब्दकोश है जिसका आधार 'पाइयलच्छी' नाममाला है'।
महेश्वर (११११ ई०) के दो कोश (१) विश्वप्रकाश और (२) शब्दभेदप्रकाश हैं। प्रथम नानार्थकोश है। जिसकी शब्दक्रम-योजना अमरकोश के समान 'अंत्याक्षरानुसारी है। इसके अध्यायों में एकाक्षर से लेकर 'सप्ताक्षर' तक के शब्दों का क्रमिक संग्रह है। तदनसार 'कैकक' आदि अध्याय भी है। अंत में अव्यय भी संगृहीत हैं। 'स्त्री', 'पुम्' आदि शब्दों के द्वारों नहीं अपितु शब्दों की पुनरुक्ति द्वारा लिंगनिर्देश किया गया है। इसमें अनेक पूर्ववर्ती कोशकारों के नाम— भोगींद्र, कात्यायन, साहसांक, वाचस्पति, व्याडि, विश्वरूप, अमर, मंगल, शुभांग, शुभांक, गोपालित (वोपालित) और भागुरि—निर्दिष्ट हैं। इस कोश की प्रसिद्ध, अत्यंत शीघ्र हो गई थी क्योंकि 'सर्वानंद'और 'हेमचंद्र' ने इनका उल्लेख किया है। इसे 'विश्वकोश' भी अधिकतः कहा जाता हैं। शब्दभेदप्रकाशिका वस्तुतः विश्वप्रकाश का परिशिष्ट है जिसमें शब्दभेद, बकारभेद, लिंगभेद आदि हैं।
मंख पंडित (१२ वीं शती ई०) का अनेकार्थ—१००७ श्लोकों का है और अमरकोश एवं विश्वरूपकोश के अनुकरण पर बना है। 'भागुरि', अमर, हलायुध, शाश्वत' और 'ध्नवंतरि के आधारग्रहण का उसमें संकेत है। शब्दक्रमयोजना अंत्याक्षरानुसारी है।
अजयपाल (लगभग १२ वीं—१३ वी शती के बीच) के नानार्थसंग्रह नामक कोश में १७३० श्लोक हैं। से देखने से जान पड़ता है कि शाश्वतकोश या अनेकार्थसमुच्चय के आधार पर इसकी रचना की गई है। उन्हीं का अनुकरण भी उसमें आभासता है। प्रत्येक अध्याय के अंत में अव्यय शब्द है। धनंजय (ई० १२ वी० शताब्दी उत्तरार्ध के आसपास अनुमानित) की नाममाला नामक कोशकृति है। यह लगउकोश है। नाममाल नाम के अनेक कोशग्रंथ मिलते हैं। इसमें केवल २०० श्लोक हैं। कुछ पांडुलिपियों में नानार्थ शब्द नहीं है पर एक में तत्सबंद्ध ५० श्लोक हैं।
पुरुषोत्तमदेव (समय ११५९ ई० के पूर्व) — संस्कृत में पाँच कोंशों के निर्माता माने गए हैं — (१) त्रिकांडकोश, (२) हारावली, (३) वर्णदेशन, (३) एकाक्षरकोश और (५) द्विरूपकोश। 'अमरोकश' के टीकाकार 'सर्वानद' ने अपनी टीका में इनके चार कोशों के वचन उदधृत किए हैं जिससे इनका महत्वपूर्ण कोशकर्तृत्व प्रकट हैं। ये बौद्ध वैयाकरण थे। 'भाषावृत्ति' इनकी प्रसिद्ध रचना है। इन्होंने 'वाचस्पति' के 'शब्दार्णव' 'व्याडि' की 'उत्पलिनी' 'विक्रमादित्य' के 'संसारवर्त' को अपना आधार घोषित किया है। 'आफ्रेक्त ग्रंथसूची में नौ अन्य (ब्याकरण और कोश के) ग्रंथों का पुरूषोत्तमदेव के नाम से संकेत मिलता है। इनका त्रिकांडकोश'— नाम से ही 'अमरकोश' का परिशिष्ट प्रतीत होता है। फलतः वहाँ अप्राप्त शब्दों का इसमें संकलन है। ('अमरकोश' से पूर्व का भी एक 'त्रिकांडकोश' बताया जाता है पर उससे इसका संबंध नहीं जान पडता।) इसमें अनेक छंद हैं और इसकी टीका भी हुई है। हारावली में पर्याय शब्दों और नानार्थ शब्दों के दो विभाग गै। श्लोकसंख्या २७० है। पर्यायवाची विभाग का तीन अध्यायों—(१) एकश्लोकात्मक (२) अर्धश्लोकात्मक तथा (३) पादात्मक—में उपविभाजन हुआ है। नानार्थ विभाग में भी—(१) अर्धश्लोक, (२) पादश्लोक और एक शब्द में दिए गए हैं। इसमें प्रायः विरलप्रयोग और अप्रसिद्ध शब्द हैं जबकि त्रिकांडकोश में प्रसिद्ध शब्द। ग्रंथकार की उक्ति के अनुसार १२ वर्षा में बड़े श्रम के साथ इसकी रचना की गई है। (१२ मास में एक पाठ के अनुसार)। वर्णदेशना अपने ढंग का एक विचित्र और गद्यात्मक कोश है। देशभेद, रूढिभेद और भाषाभेद से ख, क्ष या ह, ड अथवा ह, घ, में होनेवाली भ्रांति का अनेक ग्रंथों के आधार पर निराकरण ही इसका उद्देश्य जान पड़ता है—
- "अंत्र" ही प्रयोगे बहुदश्वानां श्रुतिसाधारणमात्रेण गृहणातां खुरक्षुरप्रादौ खकराक्षकारयौः सिंहाशिंघानकादौ हकारघकारयौ..... तथः गौडा दिलिपि साधारण्याद् हिण्डीगुडोकेशादौ हकार—डकारयोः भ्रांतय उपजायन्तो। अतस्ताद्विवेचनाय क्वाचिद्धातुपरायणे धातुवृत्ति- पूजादिषु प्रव्यक्तलेखनेन प्रसिद्धी देशेन धातुप्रत्ययोणादिव्याख्यालेखनेन क्वचिदाप्तवंचनेन श्लेषादिदर्शनेन वर्णदेशनेमानभ्यते। (इंडिया आफिस केटेलाग, पृ० २९४)।
'महाक्षपणक', 'महीधर' और 'वररुचि' के बनाए 'एकाक्षर' कोशों का समान 'पुरुषोत्तमदेव' ने भी एकाक्षर कोश बनाया जिसमें एक एक अक्षर के शब्द के अर्थ वर्णित हैं। द्विरूपकोश भी ७५ श्लोकों का लघुकोश है। नैषधकार 'श्रीहष' ने भी एक द्विरूपकोश लिखा था।
केशवस्वामी (समय १२ वीं या १३ वीं शताब्दी) एक का नानार्थार्णव - संक्षेप को अपनी शैली के कारण बड़ा महत्त्व प्राप्त है। एक एक लिंग के एकाक्षर से षडक्षर तक के अनेकार्थक शब्दों का क्रमशः छह कांडों में संग्रह है और प्रत्येक कांड के भी क्रमशः स्त्रीलिंग, पुंल्लिंग, नपुंसकलिंग, वाच्यर्लिंग तथा नानालिंग पाँच पाँच अध्याय है। प्रत्येक अध्याय की शब्दानुक्रमयोजना में अकारादिवर्णक्रम की सरणि अपनाई गई है। 'अमरकोश' में अनुपलब्ध शब्द ही प्रायः इसमें संकलित है। ५८०० श्लोकसंख्यक इस बृहत्रनार्थकोश में कुछ बैदिक शब्दों का और ३० प्राचीन कोशकारों के नामों का निर्देश है।
मेदिनिकर का समय लगभग १४ वी शताब्दी के आसापास या उससे कुछ पूर्ववती काल माना गया है। एक मत से ११७५ ई० के पूर्व भी इनका समय बताया जाता है। इनके कोश का नाम 'नानार्थशब्दकोश' है पर 'मेदिनिकोष' नाम से वह अधिक विख्यात है। इसकी पद्धति और शैली पर 'विश्वकोश' की रचना का पर्याप्त प्रभाव है। उसके अनेक श्लोक भी यहाँ उदधुत् है। ग्रंथारंभ के परिभाषात्मक अंश पर 'अमरकोश' की इतनी गहरी छाप है कि इसमें 'अमरकोश' के श्लोक तक शब्दशः ले लिए गए हैं। इसमें कोई खास विशेषता नहीं है।
मेदिनीकोश के अनन्तर के लघुकोश
मेदीनी के अनंतर के लघुकोश न तो बारबार उद्धृत् हुए है और न पूर्वकोशों के समान प्रमाणरूप में मान्य है। परंतु इनमें कुछ ऐसे प्राचीनतर और प्रामाणिक कोशों का उपयोग हुआ है जो आज उपलब्ध नहीं हैं अथवा और अशुद्ध रूप में अंशतः उपलब्ध हैं।
- (१) 'जिनभद्र सुरि' का कोश है अपवर्गनाममाला— जिसका नाम 'पंचवर्गपरिहारनाममाला भी है। इनका काल संभवतः १२ वीं शताब्दी के आस पास है।
- (२) 'शब्दरत्नप्रदीप'—संभवतः यह कल्याणमल्ल का शब्दरत्नप्रदीप नामक पाँच कांडोवाला कोश है। (समय लगभग १२९५ ई०)।
- (३) महीप का शब्दरत्नाकर—कोश है जिसके नानार्थभाव का शीर्षक है—अनेकार्थ या नानार्थतिलक; समय है लगभग १३७४ ई०।
- (४) पद्यगदत्त के कोश का नाम 'भूरिक- प्रयोग है। इसका समय लगभग वही है। इस कोश का पर्यायवाची भाग छोटा है और नानार्थ भाग बड़ा। *(५) रामेश्वर शर्मा की शब्दमाला भी ऐसी ही कृति है।
- (६) १४ वी शताब्दी के विजयनगर के राजा हरिहरगिरि की राजसभा में भास्कर अथवा दंमडाधिनाथ थे। उन्होने नानार्थरत्नमाला बनाया।
- (७) अभिधानतंत्र का निर्माण जटाधर ने किया।
- (८) 'अनेकार्थ' या नानार्थकमंजरी'— 'नामांगदसिंह' का लघु नानार्थकारी है।
- (९) रूपचंद्र की रूपमंजरी—नाममाला का समय १६ वी शती है।
- (१०) शारदीय नाममाला 'हर्षकीर्ति' कृत है (१६२४ ई०)।
- (११) शब्दरत्नाकर के कर्ता 'वर्मानभट्ट वाण' हैं।
- (१२) नामसंग्रहमाला की रचना अप्पय दीक्षित ने की है। इनके अतिरिक्त
- (१३) नामकोश (सहजकीर्ति) का (१६२७) और
- (१४) पंचचत्व प्रकाश (१६४४) सामान्य कोश हैं।
- (१५) कल्पद्रु कोश केशवकृत है। नानार्थर्णवसक्षेपकार 'केशवस्वामी' से ये भिन्न हैं। यह ग्रंथ संस्कृत का बृहत्तम पर्यायवाची कोश है। इसमें नानार्थ का प्रकरण या विभाग नहीं है। इसमें पर्यायों की संख्या सर्वाधिक है, यथा—पृथ्वी के १६४ तथा अग्नि के ११४ पर्याय इत्यादि। 'मल्लिनाथी' टीका में उदधृत वचन के आधार पर 'केशव नामक' तृतीय कोशकार भी अनुमानित है। तीन स्कंधों के इस कोश की श्लोकसंख्या लगभग चार हजार है। स्कंधों के अंतर्गत अनेक प्रकांड हैं। लिंगबोध के लिये अनेक संक्षिप्त संकेत हैं। पर्यायों की स्पष्टता और पूर्णता के लिये अनेक प्रयोग तथा प्रतिक्रियाएँ दी हुई हैं। इसमें कात्य, वाचस्पति, भागुरि, अमर, मंगल, साहसांक, महेश और जिनांतिम (संभवतः हेमचंद्र) के नाम उल्लिखित हैं। चतुर्थ श्लोक से नवम श्लोक तक—कोश में विनियुक्त पद्धति का निर्देश किया गया है। रचनकाल १६६० ई० माना जाता है। केशवस्वामी के नानार्थर्णव कोश से यह भिन्न है।
- (१६) शब्दरत्नावली के निर्माता मथुरेश है (समय १७वी शताब्दी)। इनके अतिरिक्त कुछ और भी साधारण परवर्ती कोश हैं।
- (१७) कोशकल्पतरु—विश्वनाथ;
- (१८) नानार्थपदपीठिका तथा शब्दलिंगार्थचंद्रिका—सुजन (दोनों ही नानार्थकोश हैं)। इनमें प्रथम में—अंत्यव्यंजनानुसारा क्रम है और द्वितीय में तान कांड हैं जिसमें क्रमशः एक, दो और तीन लिंगों के शब्द हैं)।
- (१९) पर्यायपदमंजरी और शब्दार्थमंजूषा—प्रसिद्ध कोश हैं।
- (२०) महेश्वर के कोश का नाम 'पर्यायरत्नमाला' है— संभवतः पर्यायवाची कोश विश्वप्रकाश' के निर्माता महेश्वर से भिन्न हैं। पर्यांयशब्दरत्नाकर के कर्ता धनंजय भट्टाचाई है।
- (२१) विश्विमेदिनी— सारस्वत भिन्न का है।
- (२२) विश्वकवि का विश्वनिघंटु है।
- (२३) १७८६ और १८३३ के बीच बनारस में संस्कृत-पर्यायवाची श्ब्दों की एक 'ग्लासरी' 'एथेनियन' ने अपने एक ब्राह्मण मित्र द्बारा अपने निर्देशन में बनवाई थी। इसमें मूल शब्द सप्तमी विभक्ति के थे और पर्याय, कर्ता कारक (प्रथमा) के, परंतु संभवतः इसमें बहुत सा अंश आधारहीनता अथवा दिषपूर्ण विनियोग के कारण संदिग्ध रहा। 'बोथलिंक' का संक्षिप्त शब्दकोश भी 'ग्यलनास' के अनेक उद्धरणों से युक्त है।
इनके अलाव क्षेमेन्द्र का लोकप्रकाश, महीप की अनेकार्थमाला का हरिचरणसेन की पर्यामुक्तावली, वेणीप्रसाद का पंचनत्वप्रकाश, अनेकार्थनिलक, राघव खांड़ेकर का केशावतंस, 'महाक्षपणक की अनेकार्थध्वनिमंजरी आदि साधारण शब्दकोश उपलब्ध है। भट्टमल्ल की आख्यातचन्द्रिका (क्रियाकोश), हर्ष का लिंगानुशासन, अनिरुद्ध का शब्दभेदप्रकाश और शिवदत्त वैद्य का शिवकोश (वैद्यक), गणितार्थ नाममाला, नक्षत्रकोश आदि विशिष्ट कोश है। लौकिक न्याय की सूक्तियों के भी अनेक संग्रह हैं। इनमें भुवनेश की लौकिकन्यायसाहस्री के अलावा लौकिक न्यायसंग्रह, लौकिक न्यायमुक्तावली, लौकिकन्यायकोश आदि हैं। दार्शनिक विषयों के भी कोश— जिन्हें हम 'परिभाषिक' कहते हैं— पांडुलिपि की सूचियों में पाए जाते है।