संवाद सूक्त

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संवाद सूक्त अर्थात वे सूक्त, जिनमें दो या दो से अधिक देवताओं, ऋषियों या किन्हीं और के मध्य वार्तालाप की शैली में विषय को प्रस्तुत किया गया हो। वेदों में विभिन्न सूक्तों के माध्यम से विभिन्न देवताओं की स्तुति तथा विभिन्न विषयों को प्रस्तुत किया गया है। उनमें कुछ सूक्त, 'संवाद-सूक्त' के नाम से जाने जाते हैं। प्रमुख संवाद सूक्त ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं । संवाद सूक्तों की व्याख्या और तात्पर्य वैदिक विद्वानों का एक विचारणीय विषय रहा है; क्योंकि वार्तालाप करने वालों को मात्र व्यक्ति मानना सम्भव नहीं है। इन आख्यानों और संवादों में निहित तत्त्वों से उत्तरकाल में साहित्य की कथा और नाटक विधाओं की उत्पत्ति हुई है।

प्रमुख सूक्त

वशिष्ठ-सुदास-संवाद [१]
अगस्त्य-लोपामुद्रा-संवाद [२]
इन्द्र-इन्द्राणी-वृषाकपि-संवाद [३]

पुरुरवा उर्वशी संवाद सूक्त

पुरूरवा-उर्वशी-संवाद सूक्त [४] ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 95वां सूक्त है। इसमें 18 मंत्र हैं। इस सूक्त में प्रयुक्त छंद त्रिष्टुप एवं स्वर धैवत है।

सरमा-पणि संवाद सूक्त

सरमा-पणि-संवाद सूक्त ऋग्वेद के 10वें मंडल का 108 वां सूक्त है। [५] इसके ऋषि पणि हैं और देवता सरमा, पणि हैं। छन्द त्रिष्टुप एवं स्वर धैवत है।

यम-यमी संवाद सूक्त

यम-यमी-संवाद सूक्त [६] ऋग्वेद के 10वें मंडल का 10वां सूक्त है। यम यमी संवाद में देवता या ऋषि यमी वेवस्वती या यम वैवस्वत हैं। छंद त्रिष्टुप है।

यम - यमी संवाद

मण्डल - 10

सूक्त - 10

कुल मन्त्र - 14

ऋषि - यम वैवस्वत , यमी

देवता - यम वैवस्वत , यमी वैवस्वती

छन्द - त्रिष्टुप्

ओ चित् सखायं सख्या ववृत्यां तिरः पुरू चिदर्णवं जगन्वान् । पितुर्नपातमा दधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः ॥1 ॥

( यमी अपने सहोदर भाई यम से कहती है ) - विस्तृत समुद्र के मध्य द्वीप में आकर , इस निर्जन प्रदेश में मैं तुम्हारा सहवास ( मिलन ) चाहती हूँ , क्योंकि माता की गर्भावस्था से ही तुम मेरे साथी हो । विधाता ने मन ही मन समझा है कि तुम्हारे द्वारा मेरे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा ; वह हमारे पिता का एक श्रेष्ठ नाती होगा ।

न ते सखा सख्यं वष्ट्येतत् सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवाति । महस्पुत्रासो असुरस्य वीरा दिवो धर्तार उर्विया परिख्यन् ॥2 ॥

( यम ने कहा ) यमी , तुम्हारा साथी यम , तुम्हारे साथ ऐसा सम्पर्क नहीं चाहता ; क्योंकि तुम भी सहोदरा भगिनी हो , अत : अगन्तव्या हो । यह निर्जन प्रदेश नहीं है ; क्योंकि धुलोक को धारण करने वाले महान् बलशाली प्रजापति के पुत्रगण ( देवताओं के चर ) सब कुछ देखते हैं ।

उशन्ति घा ते अमृतास एतदेकस्य चित्त्यजसं मर्त्यस्य । नि ते मनो मनसि धाय्यस्मे जन्युः पतिस्तन्वमा विविश्याः ॥3 ॥

( यमी ने कहा ) यद्यपि मनुष्य के लिए ऐसा संसर्ग निषिद्ध है , तो भी देवता लोग इच्छा पूर्वक ऐसा संसर्ग करते हैं । अत : मेरी इच्छानुकूल तुम भी करो । पुत्र - जन्मदाता पति के समान मेरे शरीर में बैठो ( मेरा सम्भोग करो । ) ।

न यत्पुरा चकमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम । गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिः परमं जामि तन्नौ।।4 ।।

( यम ने उत्तर दिया ) - हमने ऐसा कर्म कभी नहीं किया । हम सत्यवक्ता हैं । कभी मिथ्या कथन नहीं किया है । अन्तरिक्ष में स्थित गन्धर्व या जल के धारक आदित्य तथा अन्तरिक्ष में रहने वाली योषा ( सूर्यस्त्री - सरण्यू ) हमारे माता - पिता हैं । अतः , हम सहोदर बन्धु हैं । ऐसा सम्बन्ध उचित नहीं है ।

गर्भे नु नौ जनिता दम्पती कर्देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः । नकिरस्य प्र मिनन्ति व्रतानि वेद नावस्य पृथ्वी उत द्यौः ॥5 ॥

( यमी ने कहा ) - रूपकर्ता , शुभाशुभ प्रेरक , सर्वात्मक , दिव्य और जनक प्रजापति ने तो हमें गर्भावस्था में ही दम्पति बना दिया । प्रजापति का कर्म कोई लुप्त नहीं कर सकता । हमारे इससे सम्बन्ध को द्यावा - पृथ्वी भी जानते हैं ।

को अस्य वेद प्रथमस्याह्नः क ईं ददर्श क इह प्र वोचत् । बृहन्मित्रस्य वरुणस्य धाम कदु बव आहनो वीच्या नृन् ॥6 ॥

( यमी ने पुनः कहा ) प्रथम दिन ( संगमन ) की बात कौन जानता है ? किसने उसे देखा है ? किसने उसका प्रकाश किया है ? मित्र और वरुण का यह जो महान् धाम ( अहोरात्र ) है , उसके बारे में हे मोक्ष , बन्धनकर्ता यम ! तुम क्या कहते हो ?

यमस्य मा यम्यं काम आगन्त्समाने योनौ सहशेय्याय । जायेव पत्ये तन्वं रिरिच्यां वि चिद् वृहेव रथ्येव चक्रा ॥7 ॥

( यमी ने कहा ) जैसे एक शैया पर पत्नी , पति के साथ अपनी देह का उद्घाटन करती है , वैसे ही तुम्हारे पास मैं अपने शरीर को प्रकाशित कर देती हूँ । तुम मेरी अभिलाषा करो । आओ दोनों एक स्थान पर शयन करें । रथ के दोनों चक्कों के समान एक कार्य में प्रवृत्त हों ।

न तिष्ठन्ति न नि मिषन्त्येते देवानां स्पश इह ये चरन्ति । अन्येन मदाहनो याहि तूयं तेन वि वृह रथ्येव चक्रा ॥8 ॥

( यम ने उत्तर दिया ) - देवों में जो गुप्तचर हैं , वे रात - दिन विचरण करते हैं । उनकी आँखे कभी बन्द नहीं होती । दुःखदायिनी यमी ! शीघ्र दूसरे के पास जाओ , और रथ के चक्कों के समान उसके साथ एक कार्य करो ।

रात्रीभिरस्मा अहभिर्दशस्येत् सूर्यस्य चक्षुर्मुहुरुन्मिमीयात् । दिवा पृथिव्या मिथुना सबन्धू यमीर्यमस्य बिभृयादजामि ॥9 ॥

( यम ने पुन : कहा ) - दिन - रात में यम के लिए जो कल्पित भाग हैं , उसे यजमान दें । सूर्य का तेज यम के लिए उदित हो । परस्पर सम्बद्ध दिन , धुलोक और भूलोक यम के बन्धु हैं । यमी , यम भ्राता के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष को धारण करें ।

आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि । उप बर्वृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत् ॥10 ॥

( यम ने पुन : कहा ) भविष्य में ऐसा युग आयेगा , जिसमें भगिनियाँ अपने बन्धुत्व विहीन भ्राता को पति बनावेंगी । सुन्दरी ! मेरे अतिरिक्त किसी दूसरे को पति बनाओ ।

वह वीर्य सिंचन करेगा ; उस समय उसे बाहुओं में आलिङ्गन करना ।

किं भ्रातासद्यदनाथं भवाति किमु स्वसा यन्निर्ऋतिर्निगच्छात् । काममूता बढे तद्रपामि तन्वा मे तन्वं सं पिपृग्धि ॥11 ।

( यमी ने कहा ) वह कैसा भ्राता है , जिसके रहते भगिनी अनाथा हो जाय , और भगिनी ही क्या है , जिसके रहते भ्राता का दुःख दूर न हो ? मैं काम मूर्च्छिता होकर नाना प्रकार से बोल रही हूँ ; यह विचार करके भली - भाँति मेरा सम्भोग करो ।

न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् । अन्येन मत् प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्टयेतत् ॥12 ॥

( यम ने उत्तर दिया ) - हे यमी ! मैं तुम्हारे शरीर से अपना शरीर मिलाना नहीं चाहता । जो भ्राता , भगिनी का सम्भोग करता है , उसे लोग पापी कहते हैं । सुन्दरी ! मुझे छोड़कर अन्य के साथ आमोद - प्रमोद करो । तुम्हारा भ्राता तुम्हारे साथ मैथुन करना नहीं चाहता ।

बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम । अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् ॥13 ॥

( यमी ने कहा ) हाय यम ; तुम दुर्बल हो । तुम्हारे मन और हृदय को मैं समझ सकती । जैसे - रस्सी घोड़े को बाँधती है , तथा लता जैसे वृक्ष का आलिङ्गन करती है , वैसे ही अन्य स्त्री तुम्हें अनायास ही आलिङ्गन करती है ; परन्तु तुम मुझे नहीं चाहते हो ।

अन्यमूषु त्वं यम्यन्य उ त्वां परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् । तस्य वा त्वं मन इच्छा स वा तवाऽधा कृणुष्व संविदं सुभद्राम् ॥14 ॥

( यम ने यमी से कहा ) - तुम भी अन्य पुरुष का ही भली - भाँति आलिङ्गन करो । जैसे लता , वृक्ष का आलिङ्गन करती है , वैसे ही अन्य पुरुष तुम्हें आलिङ्गित करें । तुम उसी का मन हरण करो । अपने सहवास का प्रबन्ध उसी के साथ करो । इसी में मङ्गल कुछ नहीं होगा ।

विश्वमित्र-नदी सूक्त

विश्वामित्र-नदी-संवाद सूक्त [७] ऋग्वेद के तीसरे मंडल का 33 वां सूक्त है। इसके ऋषि विश्वमित्र और देवता नदी है। इसमें विपाशा और शुतुद्री नदियों का वर्णन आया है। विश्वमित्र-नदी संवाद सूक्त में पंक्ति, उष्णिक और त्रिष्टुप छंद हैं।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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  1. ऋ. 7/83
  2. ऋ. 1/179
  3. कं. 10/86
  4. ऋ. 10/95
  5. ऋ. 10/108
  6. ऋ. 10/10
  7. ऋ. 3/33