श्रौतसूत्र
श्रौतसूत्र वैदिक ग्रन्थ हैं और वस्तुत: वैदिक कर्मकांड का कल्पविधान है। श्रौतसूत्र के अंतर्गत हवन, याग, इष्टियाँ एवं सत्र प्रकल्पित हैं। इनके द्वारा ऐहिक एवं पारलोकिक फल प्राप्त होते हैं। श्रौतसूत्र उन्हीं वेदविहित कर्मों के अनुष्ठान का विधान करे हैं जो श्रौत अग्नि पर आहिताग्नि द्वारा अनुष्ठेय हैं। 'श्रौत' शब्द 'श्रुति' से व्युत्पन्न है।
ये रचनाएँ दिव्यदर्शी कर्मनिष्ठ महर्षियों द्वारा सूत्रशैली में रचित ग्रंथ हैं जिनपर परवर्ती याज्ञिक विद्वानों के द्वारा प्रणीत भाष्य एवं टीकाएँ तथा तदुपकारक पद्धतियाँ एवं अनेक निबंधग्रंथ उपलब्ध हैं। इस प्रकार उपलब्ध सूत्र तथा उनके भाष्य पर्याप्त रूप से प्रमाणित करते हैं कि भारतीय साहित्य में इनका स्थान कितना प्रमुख रहा है। पाश्चात्य मनीषियों को भी श्रौत साहित्य की महत्ता ने अध्ययन की ओर आवर्जित किया जिसके फलस्वरूप पाश्चात्य विद्वानों ने भी अनेक अनर्घ संस्करण संपादित किए।
प्रमुख श्रौतसूत्र
प्रमुख श्रौतसूत्र ग्रन्थ हैं:
- बौधायन श्रौतसूत्र
- शांखायन श्रौतसूत्र
- मानव श्रौतसूत्र
- वाधूल श्रौतसूत्र
- आश्वलायन श्रौतसूत्र
- कात्यायन श्रौतसूत्र
- वाराह श्रौतसूत्र
- लाटयायन श्रौतसूत्र
परिचय
श्रुतिविहित कर्म को 'श्रौत' एवं स्मृतिविहित कर्म को 'स्मार्त' कहते हैं। श्रौत एवं स्मार्त कर्मों के अनुष्ठान की विधि वेदांग कल्प के द्वारा नियंत्रित है। वेदांग छह हैं और उनमें कल्प प्रमुख है। पाणिनीय शिक्षा उसे 'वेद का हाथ' कहती है। कल्प के अंतर्गत श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्बसूत्र समाविष्ट हैं। इनमें श्रौतसूत्र श्रौतकर्म के विधान, गृह्यसूत्र स्मार्तकर्म के विधान, धर्मसूत्र सामयिक आचार के विधान तथा शुल्बसूत्र कर्मानुष्ठान के निमित्त कर्म में अपेक्षित यज्ञशाला, वेदि, मंडप और कुंड के निर्माण की प्रक्रिया को कहते हैं।
संस्था
श्रौतसूत्र के अनुसार अनुष्ठानों की दो प्रमुख संस्थाएँ हैं जिन्हें हवि:संस्था तथा सोमसंस्था कहते हैं। स्मार्त अग्नि पर क्रियमाण पाकसंस्था है। इन तीनों संस्थाओं में सात सात प्रभेद हैं जिनके योग से २१ संस्थाएँ प्रचलित हैं। हवि:संस्था में देवताविशेष के उद्देश्य से समर्पित हविर्द्रव्य के द्वारा याग किया जाता है। सोमसंस्था में श्रौताग्नि पर सोमरस की आहुति की जाती है तथा पश्वालंभन भी विहित है। इसलिए ये पशुययाग हैं। इन संस्थाओं के अतिरिक्त अग्निचयन, राजसूय और अश्वमेध प्रभृति याग तथा सारस्वतसत्र प्रभृति सत्र एवं काम्येष्टियाँ हैं।
श्रौतकर्म
श्रौतकर्म के दो प्रमुख भेद हैं। नित्यकर्म जैसे अग्निहोत्रहवन तथा नैमितिकर्म जो किसी प्रसंगवश अथवा कामनाविशेष से प्रेरित होकर यजमान करता है। स्वयं यजमान अपनी पत्नी के साथ ऋत्विजों की सहायता से याग कर सता है। यजमान द्वारा किए जानेवाले क्रियाकलाप, ऋत्विजों के कर्तव्य, प्रत्येक कर्म के आराध्य देवता, याग के उपयुक्त द्रव्य, कर्म के अंग एवं उपांगों का सांगोपांग वर्णन तथा उनका पौर्वापर्य क्रम, विधि के विपर्यय का प्रायश्चित्त और विधान के प्रकार का विधिवत् विवरण श्रौतसूत्र का एकमात्र लक्ष्य है।
श्रौतकर्मों में कुछ कर्म प्रकृतिकर्म होते हैं। इनके सांगोपाग अनुष्ठान की प्रक्रिया का विवरण श्रौतसूत्रों ने प्रतिपादित किया है। जिन कर्मों की मुख्य प्रक्रिया प्रकृतिकर्म की रूपरेखा में आबद्ध होकर केवल फलविशेष के अनुसंधान के अनुरूप विशिष्ट देवता या द्रव्य और काल आदि का ही केवल विवेचन है वे विकृतिकर्म हैं, कारण श्रौतसूत्र के अनुसार 'प्रकृति भाँति विकृतिकर्म करो' यह आदेश दिया गया है। इस प्रकार श्रौतसूत्रों के प्रतिपाद्य विषय का आयाम गंभीर एवं जटिल हो गया है, कारण कर्मानुष्ठान में प्रत्येक विहित अंग एवं उपांग के संबंध में दिए हुए नियमों का प्रतिपालन अत्यंत कठोरता के साथ किया जाना अदृष्ट फल की प्राप्ति के लिए अनिवार्य है।
श्रौतकर्म के अनुष्ठान में चारों वेदों का सहयोग प्रकल्पित है। ऋग्वेद के द्वारा होतृत्व, यजुर्वेद के द्वारा अध्वर्युकर्म, सामवेद के द्वारा उद्गातृत्व तथा अथर्ववेद के द्वारा ब्रह्मा के कार्य का निर्वाह किया जाता है। अतएव श्रौतसूत्र वेदचतुष्टयी से संबंध रखते हैं। यजमान जिस वेद का अनुयायी होता है उस वेद अथवा उस वेद की शाखा की प्रमुखता है। इसी कारण यज्ञीय कल्प में प्रत्येक वेदशाखानुसार प्रभेद हो गए हैं जिनपर देशाचार, कुलाचार आदि स्वीय विशेषताओं का प्रभाव पड़ा है। इस कारण कर्मानुष्ठान की प्रक्रिया में कुछ अवांतर भेद शाखाभेद के कारण चला आ रहा है और हर शाखा का यजमान अपने अपने वेद से संबद्ध कल्प के अनुशासन से नियंत्रित रहता है। इस परंपरा के कारण श्रौतसूत्र भी वेदचतुष्टयी की प्रभिन्न शाखा के अनुसार पृथक् पृथक् रचित हैं।