श्यामसुन्दर दास
डॉ॰ श्यामसुन्दर दास (१४ जुलाई 1875 - 1945 ई.) हिंदी के अनन्य साधक, विद्वान्, आलोचक और शिक्षाविद् थे। हिंदी साहित्य और बौद्धिकता के पथ-प्रदर्शकों में उनका नाम अविस्मरणीय है। हिंदी-क्षेत्र के साहित्यिक-सांस्कृतिक नवजागरण में उनका योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने और उनके साथियों ने मिल कर सन् 1893 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की थी ।
विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई के लिए यदि बाबू साहब ने पुस्तकें तैयार न की होतीं तो शायद हिंदी का अध्ययन-अध्यापन आज सबके लिए इस तरह सुलभ न होता। उनके द्वारा की गयी हिंदी साहित्य की पचास वर्षों तक निरंतर सेवा के कारण कोश, इतिहास, भाषा-विज्ञान, साहित्यालोचन, सम्पादित ग्रंथ, पाठ्य-सामग्री निर्माण आदि से हिंदी-जगत समृद्ध हुआ। उन्हीं के अविस्मरणीय कामों ने हिंदी को उच्चस्तर पर प्रतिष्ठित करते हुए विश्वविद्यालयों में गौरवपूर्वक स्थापित किया।
बाबू श्यामसुन्दर दास ने अपने जीवन के पचास वर्ष हिंदी की सेवा करते हुए व्यतीत किए। उनकी इस हिंदी सेवा को ध्यान में रखते हुए ही राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने निम्न पंक्तियाँ लिखी हैं-
- मातृभाषा के हुए जो विगत वर्ष पचास।
- नाम उनका एक ही है श्याम सुन्दरदास॥
डॉ॰ राधा कृष्णन के शब्दों में, बाबू श्यामसुन्दर अपनी विद्वत्ता का वह आदर्श छोड़ गए हैं जो हिंदी के विद्वानों की वर्तमान पीढ़ी को उन्नति करने की प्रेरणा देता रहेगा।
जीवनी एवं हिन्दी-सेवा
बाबू श्यामसुंदर दास का जन्म काशी में 14 जुलाई 1875 को हुआ था। इनका परिवार लाहौर से आकर काशी में बस गया था और कपड़े का व्यापार करता था। इनके पिता का नाम लाला देवीदास खत्री था। बनारस के क्वींस कालेज से अँँगरेजी में 1897 में बी. ए. किया। जब इंटर के छात्र थे तभी सन् 1893 में मित्रों रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह के सहयोग से काशी नागरी प्रचारिणी सभा की नींव डाली और 45 वर्षों तक निरंतर उसके संवर्धन में बहुमूल्य योग देते रहे। 1896 में "नागरीप्रचारिणी पत्रिका" निकलने पर उसके प्रथम संपादक नियुक्त हुए और बाद में कई बार वर्षों तक उसका संपादन किया। "सरस्वती" के भी आरंभिक तीन वर्षों (1900 सेे 1902) तक संपादक रहे। 1899 में हिंदू स्कूल के अध्यापक नियुक्त हुए और कुछ दिनों बाद हिंदू कालेज में अंग्रेजी के जूनियर प्रोफेसर नियुक्त हुए। 1909 में जम्मू महाराज के स्टेट आफिस में काम करने लगे जहाँ दो वर्ष रहे। 1913 से 1921 तक लखनऊ के कालीचरण हाई स्कूल में हेडमास्टर रहे। इनके उद्योग से विद्यालय की अच्छी उन्नति हुई। 1921 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग खुल जाने पर इन्हें अध्यक्ष के रूप में बुलाया गया। पाठ्यक्रम के निर्धारण से लेकर हिंदी भाषा और साहित्य की विश्वविद्यालयस्तरीय शिक्षा के मार्ग की अनेक बाधाओं को हटाकर योग्यतापूर्वक हिंदी विभाग का संचालन और संवर्धन किया। इस प्रकार इन्हें हिंदी की उच्च शिक्षा के प्रवर्तन और आयोजन का श्रेय है। उस समय विश्वविद्यालय स्तर की पाठ्यपुस्तकों और अलोचना ग्रंथों का अभाव था। इन्होंने स्वयं अपेक्षित ग्रंथों का संपादन किया, समीक्षाग्रंथ लिखे और अपने सुविज्ञ सहयोगियों से लिखवाए।
काशी नागरीप्रचारिणी सभा के माध्यम से बाबू श्यामसुन्दर दास ने हिंदी की बहुमुखी सेवा की और ऐसे महत्वपूर्ण कार्यों का सूत्रपात एवं संचालन किया जिनसे हिंदी की अभूतपूर्व उन्नति हुई। न्यायालयों में नागरी के प्रवेश के लिए मालवीय जी आदि की सहायता में उन्होंने सफल उद्योग किया। हिंदी वैज्ञानिक कोश के निर्माण में भी योग दिया। हिंदी की लेख तथा लिपि प्रणाली के संस्कार के लिए आरंभिक प्रयत्न (1898) किया। हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों की खोज का काम आरंभ कर इन्होंने उसे नौ वर्षों तक चलाया और उसकी सात रिपोर्टें लिखीं। "हिंदी शब्दसागर" के ये प्रधान संपादक थे। यह विशाल शब्दकोश इनके अप्रतिम बुद्धिबल और कार्यक्षमता का प्रमाण है। 1907 से 1929 तक अत्यंत निष्ठा से इन्होंने इसका संपादन और कार्यसंचालन किया। इस कोश के प्रकाशन के अवसर पर इनकी सेवाओं को मान्यता देने के निमित्त "कोशोत्सव स्मारक संग्रह" के रूप में इन्हें अभिनंदन ग्रंथ अर्पित किया गया।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापनकार्य के समय उच्च अध्ययन में उपयोग के लिए इन्होंने भाषाविज्ञान, आलोचना शास्त्र और हिंदी भाषा तथा साहित्य के विकास क्रम पर श्रेष्ठ ग्रंथ लिखे।
श्यामसुंदर दास का व्यक्तित्व तेजस्वी और जीवन हिंदी की सेवा के लिए अर्पित था। जिस जमाने में उन्होंने कार्य शुरु किया उस समय का वातावरण हिंदी के लिए अत्यंत प्रतिकूल था। सरकारी कामकाज और शिक्षा आदि के क्षेत्रों में वह उपेक्षित थी। हिंदी बोलनेवाला अशिक्षित समझा जाता था। ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में हिंदी के प्रचार प्रसार और संवर्धन के लिए उन्होंने कशी नागरीप्रचारिणी सभा को केंद्र बनाकर जो अभूतपूर्व संघबद्ध प्रयत्न किया उसका ऐतिहासिक महत्व है। ये उच्च कोटि के संगठनकर्ता और व्यवस्थापक थे। समर्थ मित्रों के सहयोग और अपने बुद्धिबल तथा कर्मठता से उन्होंने हिंदी की उन्नति के मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों का डटकर सामना किया और सफलता प्राप्त की। उनकी दृष्टि व्यक्तियों की क्षमता पहचानने में अचूक थी। उन्होंने अनेक व्यक्तियों को प्रोत्साहित कर साहित्य के क्षेत्र में ला खड़ा किया। इसीलिए कहा गया है कि उन्होंने "ग्रंथों की ही नहीं, ग्रंथकारों की भी रचना की"।
उनकी हिंदीसेवाओं से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने "रायबहादुर", हिंदी साहित्य सम्मेलन ने "साहित्यवाचस्पति" और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने डी. लिट्. की सम्मानोपाधि प्रदान की।
ग्रंथ-रचना
बाबू श्याम सुन्दर दास ने अनेक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने लगभग सौ ग्रंथों का संपादन किया। उन्हें अप्रकाशित पुस्तकों की खोज करके प्रकाशित कराने का शौक था। उनके मौलिक ग्रंथों में साहित्यालोचन, भाषा विज्ञान, हिंदी भाषा का विकास, गोस्वामी तुलसी दास, रूपक रहस्य आदि प्रमुख हैं।
इन्होंने परिचयात्मक और आलोचनात्मक ग्रंथ लिखने के साथ ही कई दर्जन पुस्तकों का संपादन किया। पाठ्यपुस्तकों के रूप में इन्होंने कई दर्जन सुसंपादित संग्रह ग्रंथ प्रकाशित कराए। इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं - हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1, 2 (1909-1914), साहित्यालोचन (1922), भाषाविज्ञान (1923), हिंदी भाषा और साहित्य (1930) रूपकहस्य (1931), भाषारहस्य भाग 1 (1935), हिंदी के निर्माता भाग 1 और 2 (1940-41), मेरी आत्मकहानी (1941), कबीर ग्रंथावली (1928), साहित्यिक लेख (1945)।
श्याम सुंदर दास ने अपना पूरा जीवन हिंदी-सेवा को समर्पित कर दिया। उनके इस तप-यज्ञ से अनेक पुस्तकें साहित्य को प्राप्त हुईं : जैसे नागरी वर्णमाला (1896), हिंदी कोविद रत्नमाला (भाग 1 और 2) (1900), हिंदी हस्तलिखित ग्रंथों का वार्षिक खोज विवरण (1900-05), हिंदी हस्तलिखित ग्रंथों की खोज (1906-08), साहित्य लोचन (1922), भाषा-विज्ञान (1929), हिंदी भाषा का विकास (1924), हस्तलिखित हिंदी ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण (1933), गद्य कुसुमावली (1925), भारतेंदु हरिश्चंद्र (1927), हिंदी भाषा और साहित्य (1930), गोस्वामी तुलसीदास (1931), रूपक रहस्य (1913), भाषा रहस्य (भाग-1, 1935), हिंदी गद्य के निर्माता (भाग 1 और 2) (1940) और आत्मकथा मेरी आत्म कहानी (1941)।
श्यामसुंदर दास ने सम्पादन के क्षेत्र में तो अद्भुत, अपूर्व प्रतिभा का परिचय दिया : जैसे, नासिकेतोपाख्यान अर्थावली (1901), छत्रप्रकाश (1903), रामचरितमानस (1904), पृथ्वीराज रासो (1904), हिंदी वैज्ञानिक कोष (1906), वनिता विनोद (1906), इंद्रावती (भाग-1, 1906), हम्मीर रासो (1908), शकुंतला नाटक (1908), प्रथम हिंदी साहित्य सम्मेलन की लेखावली (1911), बाल विनोद (1913), हिंदी शब्द सागर (खण्ड- 1 से 4 तक, 1916), मेघदूत (1920), दीनदयाल गिरि ग्रंथावली (1921), परमाल रासो (1921), अशोक की धर्मलिपियाँ (1923), रानीखेत की कहानी (1925), भारतेंदु नाटकावली (1924), कबीर ग्रंथावली (1928), राधाकृष्ण ग्रंथावली (1930), द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ (1933), रत्नाकर (1933), सतसई सप्तक (1933), बाल शब्द सागर (1935), त्रिधारा (1935), नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1 से 18 तक), मनोरंजन पुस्तक माला (1 से 50 तक), सरस्वती (1900 तक)।
बाबू श्यामसुंदर दास ने इतना काम हिंदी साहित्य के लिए किया है कि वे एक व्यक्ति से ज़्यादा संस्था बन गये। उन्होंने मानस सूक्तावली (1920), संक्षिप्त रामायण (1920), हिन्दी निबंधमाला (भाग-1/2, 1922), संक्षिप्त पद्मावली (1927) और हिंदी निबंध रत्नावली (1941) का सम्पादन भी किया।
विद्यार्थियों के लिए उन्होंने उच्चस्तरीय पाठ्य पुस्तकें तैयार कीं। इस तरह की पाठ्य पुस्तकों में भाषा सार संग्रह (1902), भाषा पत्रबोध (1902), प्राचीन लेखमाला (1903), हिंदी पत्र-लेखन (1904), आलोक चित्रण (1902), हिंदी प्राइमर (1905), हिंदी की पहली पुस्तक (1905), हिंदी ग्रामर (1906), हिंदी संग्रह (1908), गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया (1908), बालक विनोद (1908), नूतन-संग्रह (1919), अनुलेख माला (1919), हिंदी रीडर (भाग-6/7, 1923), हिंदी संग्रह (भाग-1/2, 1925), हिंदी कुसुम संग्रह (भाग-1/2, 1925), हिंदी कुसुमावली (1927), हिंदी-सुमन (भाग-1 से 4, 1927), हिंदी प्रोज़ सिलेक्शन (1927), गद्य रत्नावली (1931), साहित्य प्रदीप (1932), हिंदी गद्य कुसुमावली (1936), हिंदी प्रवेशिका पद्यावली (1939), हिंदी गद्य संग्रह (1945), साहित्यिक लेख (1945)।
श्याम सुंदर दास जीवन के अंतिम क्षण तक साहित्य-सेवा में सक्रिय रहे। स्वतंत्रता से ठीक पहले और बाद की हिंदी की पूरी पीढ़ी ही बाबूजी के कंधों पर बैठकर ही बढ़ी हुई।
समय-समय पर विभिन्न विषयों पर सम्मेलनों में दिये जाने वाले उनके वक्तव्यों की संख्या अनगिनत है। इस समस्त चिंतन पर दृष्टि डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे किस तरह हिंदी साहित्य को अनेक विषयों से जोड़कर आगे बढ़ाना चाहते थे। आज भी बाबूजी की बहुत बड़ी देन है पाठ्य-सामग्री की प्रामाणिक रचना तथा अध्ययन के क्षेत्र का विवेक। विद्यार्थियों के लिए ताज़ा सामग्री लाने के उनके हर क्षण के प्रयास का नतीजा यह हुआ कि वे संग्रहकार बनते रहे। आलोचना की जाती है कि इसी कारण उनके लेखन में गहरायी और मौलिकता का अभाव होता गया। लेकिन देखने की बात यह है कि उनकी समन्वयवादी बुद्धि अनेक ज्ञान- क्षेत्रों की सामग्री-संग्रह में निमग्न रही। यहाँ तक कि व्यावहारिक-आलोचना में भी बाबूजी ने सामंजस्यवाद का सौंदर्य स्थापित किया। इसीलिए उनकी आलोचना में तुलना, ऐतिहासिक दृष्टि, व्याख्या, भाष्य आदि का प्रवेश होता गया। इस तरह हिंदी में व्यावहारिक-आलोचना का आरम्भिक मार्ग भी उन्होंने तैयार किया। उनका यह कुशल नेतृत्व आगे चलकर हिंदी-भाषी क्षेत्र के लिए वरदान सिद्ध हुआ।
वर्ण्य विषय
बाबू श्यामसुंदर दास ने विचारात्मक तथा भावात्मक दोनों ही एक प्रकार के निबंध लिखे हैं। उनके निबंधों के विषय में पर्याप्त विविधता है। उन्होंने बहुत से अछूते विषयों पर भी लेखनी चलाई कवियों की खोज तथा इतिहास संबंधी निबंधों में उनकी प्रतिभा के दर्शन होते हैं।
भाषा
बाबू श्याम सुंदर दास की भाषा शुद्ध साहित्यिक हिंदी है, जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है। भाषा के संबंध में उनका विचार था- 'जब हम विदेशी भावों के साथ विदेशी शब्दों को ग्रहण करें तब उन्हें ऐसा बना लें कि उनमें से विदेशीपन निकल जाए और वे अपने होकर हमारे व्याकरण के नियमों से अनुशासित हों।' इसलिए जहाँ कहीं उन्होंने अपनी भाषा में 'उर्दू' के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया है, वहाँ उनका उर्दूपन निकाल दिया है, कलम, कवायद, कानून आदि शब्दों के नीचे की बिंदी हटाकर और उनके उच्चारण बदल कर उन्होंने उनका प्रयोग लिया है। इसी प्रकार संस्कृत के शब्दों की क्लिष्टता दूर कर के उन्हें हिंदी में सरल ढंग से लिखा है- जैसे- कार्य के स्थान पर कार्य, अञ्जन के स्थान पर अंजन।
शब्द चयन के बारे में बाबू श्यामसुंदर दास का मत था- 'सबसे पहला स्थान शुद्ध हिंदी के शब्दों को, उसके पीछे संस्कृत के सुगम और प्रचलित शब्दों को, इसके पीछे फारसी आदि विदेशी भाषाओं के साधारण और प्रचलित शब्दों का और सबसे पीछे संस्कृत के अप्रचलित शब्दों को स्थान दिया जाए। फारसी आदि विदेशी भाषाओं के कठिन शब्दों का प्रयोग कदापि न हो।
शैली
बाबू श्यामसुन्दर दास ने मुख्यतः दो प्रकार की शैलियों में लिखा है-
१. विचारात्मक शैली- विचारात्मक शैली में विचारात्मक निबंध लिखे गए हैं। इस शैली के वाक्य छोटे-छोटे तथा भावपूर्ण हैं। भाषा सबल, सरल और प्रवाहमयी है। उदाहरणार्थ-
- गोपियो का स्नेह बढ़या है। ये कृष्ण के साथ रास लीला में संकलित होती हैं। अनेक उत्सव मनाती है। प्रेममयी गोपिकाओं का यह आचरण बड़ा ही रमणीय है। उसमें कहीं से अस्वाभाविकता नहीं आ सकी।
२. गवेषणात्मक शैली- गवेषणात्मक निबंधों में गवेषणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। इनमें वाक्य अपेक्षाकृत कुछ लंबे हैं। भाषा के तत्सम शब्दों की अधिकता है। विषय की गहनता तथा शुष्कता के कारण यह शैली में कुछ शुष्क और रहित है। इस प्रकार की शैली का एक उदाहरण देखिए-
- यह जीवन-संग्राम दो भिन्न सभ्यताओं के संघर्षण से और भी तीव्र और दुखमय प्रतीत होने लगा है। इस अवस्था के अनुकूल ही जब साहित्य उत्पन्न होकर समाज के मस्तिष्क को प्रोत्साहित और प्रति क्रियमाण करेगा तभी वास्तविक उन्नति के लक्षण देख पड़ेंगे और उसका कल्याणकारी फल देश को आधुनिक काल का गौरव प्रदान करेगा।
बाबू श्याम सुंदरदास की किसी प्रकार की शैली में अलंकारों की सजावट नहीं पाई जाती। कहावतों और मुहावरों का प्रयोग तो नहीं के बराबर हुआ है। अपने विचारों को भली प्रकार समझाने के लिए बाबू श्याम सुन्दर दास ने एक ही बात को 'सारांश यह है' 'अथवा', 'जैसे' आदि शब्दों के साथ बार-बार दुहराया है।
साहित्य सेवा और स्थान
हिंदी साहित्य में बाबू श्यामसुंदर दास का स्थान उनके हिंदीप्रचारक और हिंदी उन्नायक के रूप में। उन्होंने अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना की। अनेक ग्रंथों का संपादन किया। काशी नगरी-प्रचारिणी सभा की स्थापना में उनका प्रमुख हाथ था। उन्होंने अपने प्रयत्नों से हिंदी को विश्वविद्यालय की उच्च कक्षाओं में स्थान दिलाया।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आने से पूर्व उन्होंने 1900 में हिंदी साहित्य की समृद्धि के लिए न्यायालयों में हिंदी के प्रवेश का आंदोलन चलाया। 1900 तक श्यामसुंदर दास ने ही सरस्वती पत्रिका का सम्पादन किया। उन्होने हस्तलिखित ग्रंथों की खोज की तथा हिंदी शब्दसागर का भी सम्पादन किया। 1902 में नागरी प्रचारिणी सभा के भवन का निर्माण भी उन्हीं की देखरेख में कराया गया। 1907 में उन्होंने हिंदी आर्य भाषा पुस्तकालय की स्थापना की, प्राचीन महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का सम्पादन किया और शिक्षा स्तर के अनुरूप पाठ्य पुस्तकों का निर्माण कार्य भी आरंभ किया।
रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में लिखा है :
- बाबू साहब ने बड़ा भारी काम लेखकों के लिए सामग्री प्रस्तुत करने का किया है। हिंदी पुस्तकों की खोज के विधान द्वारा आपने साहित्य का इतिहास, कवियों के चरित और उन पर प्रबंध आदि लिखने का बहुत बड़ा मसाला इकट्ठा करके रख दिया। इसी प्रकार हिंदी के नये-पुराने लेखकों के जीवनवृत्त हिंदी कोविद रत्नमाला के दो भागों में संगृहीत किये हैं। शिक्षोपयोगी तीन पुस्तकों, भाषा विज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य तथा साहित्य लोचन, भी आपने लिखी या संकलित की है।
श्यामसुंदर दास न केवल संस्थान-निर्माता थे, बल्कि प्रबंध-कला में भी बेजोड़ थे। साहित्य के समस्त क्षेत्रों के अभावों को दूर करने के लिए उन्होंने संकल्पबद्ध होकर श्रम किया। भाषा तत्त्ववेत्ता के रूप में या सिद्धांतों के व्याख्याता रूप में उन्हीं की उपलब्धियों के कारण साहित्यालोचन हिंदी के विद्यार्थियों का बहुत समय तक कंठहार बना रहा। इनके मन में यह धारणा निर्भांत रही कि हिंदी की सैद्धांतिक समीक्षा का आधार संस्कृत और पश्चिमी आलोचना-सिद्धांतों को मिला कर और उन्हें एक ख़ास सामंजस्य के साथ ही बनाया जाना चाहिए। श्याम सुंदर दास से पहले हिंदी और नागरी लिपि के लिए विशेष रूप से संकटपूर्ण समय था। प्रताप नारायण मिश्र ने कई स्थानों पर हिंदी के प्रचार के लिए सभाएँ स्थापित की थीं। ऐसी ही एक सभा 1884 में ‘हिंदी उद्धारिणी प्रतिनिधि मध्य भारत सभा’ के नाम से प्रयाग में प्रतिष्ठित की गयी। सरकारी दक्रतरों में नागरी के प्रवेश के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी कई बार उद्यम किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। इसके बावजूद प्रयत्न बराबर चलता रहा। अदालती भाषा उर्दू होने के कारण नवशिक्षितों में उर्दू पढ़ने वालों की संख्या अधिक थी, जिससे हिंदी पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य आगे नहीं बढ़ पाता था। इस साहित्य-संकट के अतिरिक्त नागरी का प्रवेश सरकारी दक्रतरों में न होने से नागरी जानने वाली जनता के सामने घोर संकट था। इसी दौर में कुछ उत्साही छात्रों के उद्योग से, जिनमें बाबू श्याम सुंदर दास प्रमुख थे, 1893 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की गयी। यहाँ भी रामचंद्र शुक्ल का कथन याद रखना चाहिए कि, ‘सच पूछिए तो इस सभा की सारी समृद्धि और कीर्ति बाबू श्याम सुंदर दास के त्याग और सतत परिश्रम का फल है। वे आदि से अंत तक इसके प्राणस्वरूप स्थित होकर बराबर इसे अनेक बड़े उद्योगों में तत्पर करते रहे। इसके प्रथम सभापति भारतेंदु के फुफ़ेरे भाई राधाकृष्ण दास हुए।’ नागरी प्रचार के आंदोलन ने हिंदी-प्रेमियों में नया उत्साह पैदा किया और बहुत से लोग साहित्य की श्रीवृद्धि में समर्पित भाव से लग गये।
सन्दर्भ
1. धीरेन्द्र वर्मा (सम्पा.) (संवत 2020), हिंदी साहित्य कोश, भाग-2, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी।
2. रामचंद्र शुक्ल (1940), हिंदी साहित्य का इतिहास, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, काशी।
3. हजारी प्रसाद द्विवेदी (1941), हिंदी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।
4. रामस्वरूप चतुर्वेदी (1993), हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।