शतरंज के खिलाड़ी (कहानी)

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शतरंज के खिलाड़ी मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी है। इसकी रचना उन्होने अक्टूबर 1924 में की थी और यह 'माधुरी' पत्रिका में छपी थी। 1977 में सत्यजीत राय ने इसी नाम से इस कहानी पर आधारित एक हिन्दी फिल्म बनायी।

कथा

यह पतनशील सामंतवाद का जीवंत चित्र प्रस्तुत करने वाली रचना है। वाजिद अलीशाह (शाशनकाल 1847 -1856) का समय है। लखनऊ में लोग विलासता में डूबे हैं। समाज का उपरी तबका घोर आत्मकेंद्रित है। देश और दुनिया में क्या हो रहा है इसके प्रति वे लोग बेखबर हैं। मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रोशन अली के चरित्रों द्वारा प्रभुवर्ग की दिग्भ्रमित मानसिकता का चित्रण किया है। लखनऊ पर अंग्रेजी सेना का कब्जा हो गया। वाजिद अलीशाह बंदी बना लिए गये। मीर और मिर्जा इससे परेशान नहीं होते किन्तु शतरंज खेलते हुए अपनी जान दे देते हैं।आज

कथासार

इस कहानी में प्रेमचंद ने वाजिदअली शाह के वक्त के लखनऊ को चित्रित किया है। भोग-विलास में डूबा हुआ यह शहर राजनीतिक-सामाजिक चेतना से शून्य है। पूरा समाज इस भोग-लिप्सा में शामिल है। इस कहानी के प्रमुख पात्र हैं - मिरज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अली। दोनों वाजिदअली शाह के जागीरदार हैं। जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। दोनों गहरे मित्र हैं और शतरंज खेलना उनका मुख्य कारोबार है। दोनों की बेगमें हैं, नौकर-चाकर हैं, समय से नाश्ता-खाना, पान-तम्बाकू आदि उपलब्ध होता रहता है।

एक दिन की घटना है- मिरजा सज्जाद अली की बीवी बीमार हो जाती हैं। वह बार-बार नौकर को भेजती हैं कि मिरज़ा हकीम के यहाँ से कोई दवा लायें, कितु मिरज़ा तो शतरंज में डूबे हुए हैं। हर घड़ी उन्हें लगता है कि बस अगली बाजी उनकी है। अंत में तंग आकर मिरज़ा की बेगम उन दोनों को खरी-खोटी सुनाती हैं। खेल का सारा ताम-झाम ड्योढी के बाहर फेंक देती है। नतीजा यह निकलता है कि शतरंज की बाजी अब मिरज़ा के यहाँ से उठकर मीर के दरवाजे जा बैठती है।

मीर साहब की बीवी शुरू में तो कुछ नहीं कहतीं लेकिन जब बात हद से आगे बढ़ने लगती है तब इन दोनों खिलाड़ियों को मात देने के लिए वह एक नायाब तरकीब निकालती है। जैसा कि हमेशा होता था, दोनों मित्र शतरंज की बाजियों में खोये हुए थे कि उसी समय बादशाही फौज का एक अफ़सर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ खड़ा होता है। उसे देखते ही मीर साहब के होश उड़ गये। वह शाही अफ़सर मीर साहब के नौकरों पर खूब रोब ग़ालिब करता है और मीर के न होने की बात सुनकर अगले दिन आने की बात करता है। इस प्रकार यह तमाशा खत्म होता है। दोनों मित्र चिन्तित हैं, इसका क्या समाधान निकाला जाय।

मीर और मिरज़ा भी छोटे खिलाड़ी नहीं थे। उन्होंने भी गज़ब की तोड़ निकाली। दोनों मित्रों ने एक बार पुनः स्थान-परिवर्तन करके ही अपना अगला पड़ाव माना। न होंगे, न मुलाकात होगी। इधर बेगम आज़ाद हुई उधर मीर बेपरवाह। नया स्थान था शहर से दूर, गोमती के किनारे एक विरान मस्ज़िद। वहाँ लोगों का आना-जाना बिल्कुल नहीं था। साथ में जरूरी सामान, जैसे हुक्का, चिलम दरी आदि ले लिये। कुछ दिनों ऐसा ही चलता रहा। एक दिन अचानक मीर साहब ने देखा कि अंग्रेजी फौज गोमती के किनारे-किनारे चली आ रही है। उन्होंने मिरज़ा से हड़बड़ी में यह बात बताई। मिरज़ा ने कहा - तुम अपनी चाल बचाओ। अंग्रेज आ रहे हैं आने दो। मीर ने कहा साथ में तोपखाना भी है। मिरज़ा साहब ने कहा- यह चकमा किसी और को देना। इस प्रकार पुनः दोनों खेल में गुम हो गए।

कुछ समय में नवाब वाजिद अली शाह कैद कर लिए गए। उसी रास्ते अंग्रेजी सेना विजयी-भाव से लौट रही थी। पूरा शहर बेशर्मी के साथ तमाशा देख रहा था। अवध का इतना बड़ा नवाब चुपचाप सर झुकाए चला जा रहा था। मीर और रौशन दोनों इस नवाब के जागीरदार थे। नवाब की रक्षा में इन्हें अपनी जान की बाजी लगा देनी चाहिए। परंतु दुर्भाग्य कि जान की बाजी तो इन्होंने लगाई ज़रूर पर शतरंज की बाजी पर। थोड़ी ही देर बाद खेल की बाजी में ये दोनों मित्र उलझ पड़े। बात खानदान और रईसी तक आ पहुँची। गाली-गलौज होने लगी। दोनों कटार और तलवार रखते थे। दोनों ने तलवारें निकालीं और एक दूसरे को दे मारीं। दोनों का अंत हो गया। काश! यह मौत नवाब वाजिदअली के पक्ष में और ब्रिटिश सेना के प्रतिपक्ष में हुई होती! लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

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