व्यक्तिवाद

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व्यक्तिवाद एक नैतिक (एथिकल), राजनैतिक एवं सामाजिक दर्शन (outlook) है जो व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं व्यक्तिगत आत्मनिर्भरता पर बल देता है और उसका समर्थन करता है। साधारण अर्थ में, स्वार्थ के समर्थन की, अथवा विशिष्ट समझे जानेवाले व्यक्तियों की महत्ता स्वीकार करने की प्रवृत्ति। दर्शन में, प्रत्येक व्यक्ति को विशिष्ट व्यक्ति ठहराने की प्रवृत्ति।

परिचय

व्यक्तिवाद का विचार समाज-विज्ञान के कई राजनीतिक सिद्धांतों और सामाजिक व्याख्याओं के मर्म में है। तत्त्व-चिंतन की दृष्टि से व्यक्तिवाद ब्रह्माण्ड को अलग-अलग की जा सकने वाली व्यक्तिगत इकाइयों से रचा हुआ मान कर चलता है। ईसाई तत्त्व-चिंतन में इसका संबंध प्रोटेस्टेंट आस्थाओं से जोड़ा जाता है जो पादरी या चर्च के हस्तक्षेप के बिना व्यक्ति और ईश्वर के बीच सीधे तादात्म्य की स्थिति देखती हैं। हालाँकि मनुष्य और भगवान के बीच निजी धरातल पर सीधे तादात्म्य का सिद्धांत हिंदू तत्त्व-चिंतन में भी प्रधान हैसियत रखता है, पर समाज-विज्ञान के हल्कों में इसकी शिनाख्त व्यक्तिवाद के स्रोत के तौर पर नहीं की जाती। मुख्यतः यह एक पश्चिमी विचार है और उदारतावाद जैसे महा-सिद्धांत के लिए इसका महत्त्व विधेयक माना जाता है। उदारतावादी चिंतक व्यक्ति के अविभाज्य अधिकारों के समर्थक हैं। सामाजिक समझौते का सिद्धांत राजनीतिक व्यक्तिवाद की पद्धति का इस्तेमाल करके ही रचा गया है।

राज्य के अधिकार सीमित रखने के आग्रह, मुक्त बाज़ार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत सम्पत्ति जैसी अवधारणाएँ व्यक्तिवाद के बिना नहीं पनप सकती थीं। इनके मुताबिक सरकार नागरिकों के रूप में व्यक्तियों की सहमति से बनती है और उसकी भूमिका उन्हीं नागरिकों के अधिकारों की रक्षा तक ही सीमित रहनी चाहिए। उन्नीसवीं सदी के अमेरिकी व्यक्तिवादी चिंतकों का मत तो यहाँ तक था कि व्यक्ति को किसी भी कीमत पर अपना अंतःकरण किसी निर्वाचित या किसी भी अन्य तरह के नेता के अधीन नहीं करना चाहिए। व्यक्तिवाद का यह आयाम उसे अराजकतावादी फलितार्थों के नज़दीक पहुँचा देता है। लेकिन, व्यक्तिवाद का दिलचस्प पहलू यह है कि आधुनिक समय में इसके ज़रिये समाज-विज्ञान में सामाजिक कल्याण और राज्य के हस्तक्षेप की धारणाओं को भी पुष्ट किया गया है। व्यक्तिवादी सूत्रीकरणों का इस्तेमाल वामपंथियों ने भी किया है और दक्षिणपंथियों ने भी। इस दोतरफ़ा उपयोग के बावजूद सभी व्यक्तिवादी चिंतक इस बात पर एकमत हैं कि व्यक्ति की गरिमा, उसकी निजता और उसके अंतर्भूत मूल्य को हर परिस्थिति में सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

राज्य की भूमिका को सीमित रखने का आग्रह रखने वाले व्यक्तिवादी मुक्त बाज़ार आधारित पूँजीवाद का पक्ष  लेते हैं। वे मान कर चलते हैं कि व्यक्ति आत्म-निर्भर और स्व- हित में दिलचस्पी रखने वाली शै है जो मुक्त विनिमय के ज़रिये सम्पत्ति का उत्पादन कर सकता है। वह अपनी क्षमताओं का ख़ुद मालिक है और किसी भी अर्थ में वह समाज का ऋणी नहीं है। लेकिन, व्यक्तिवाद के सिद्धांत का इस्तेमाल एल.टी. हॉबहाउस और टी.एच. ग्रीन ने आर्थिक जीवन में राज्य के हस्तक्षेप को जायज़ ठहराने के लिए किया है। वे व्यक्ति को अपने स्व-हित की संकीर्णता में ही सीमित नहीं देखना चाहते। वे उसे सामाजिक रूप से उत्तरदायी और साथी मनुष्यों के प्रति परोपकारी भावनाओं से परिपूर्ण की तरह देखते हैं। जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी रचना ऑन लिबर्टी में वैयक्तिकता के सिद्धांत का सूत्रीकरण किया। उन्होंने मुक्त व्यापार की वकालत ऐडम स्मिथ की तरह भौतिक ख़ुशहाली की ख़ातिर न करके व्यक्तिगत स्तर पर आत्म-विकास की ख़ातिर की। स्वतंत्रता पर लिखी गयी इस विख्यात रचना में मिल ने जेरेमी बेंथम के विचारों को और परिष्कृत रूप में पेश किया। उन्होंने तर्क दिया कि किसी व्यक्ति के मत का समाज या राज्य के सामूहिक निर्णय के आधार पर दमन नहीं किया जा सकता। वे निजी स्वाधीनता को बचाने की पैरोकारी करते हैं और बेंथम से परे जाते हुए सुख को वैयक्तिकता की रक्षा के रूप में देखते हैं। उनके यहाँ वैयक्तिकता मनुष्य की इयत्ता के विकास की पूर्वशर्त है। प्रगति तभी होगी जब अपनी वैयक्तिकता में दूसरों से भिन्न हो कर व्यक्ति समाज के लिए उपयोगी होगा। मिल स्वाधीनता के तीन आयाम बताते हैं : विचार और बहस की स्वतंत्रता, वैयक्तिकता का सिद्धांत और व्यक्ति की क्रियाओं पर राज्य और समाज के नियंत्रण की सीमा।

ज़ाहिर है कि व्यक्तिवादी चिंतन की यह दूसरी धारा इस सिद्धांत को व्यक्तिगत लालच की सीमाओं से निकाल कर उसका विस्तार व्यक्तिगत आत्म-विकास तक करती है। अहंवादी व्यक्तिवाद इन व्याख्याओं के तहत वैकासिक व्यक्तिवाद का रूप ले लेता है। इसी कारण से कुछ समाजवादी चिंतकों ने भी व्यक्तिवाद को अपनाया है। उनके अनुसार अगर मनुष्य स्वाभाविक रूप से सामाजिक प्राणी है तो व्यक्तिवाद का तात्पर्य स्व-हित तक सीमित न रह कर बिरादराना सहयोग और सामुदायिक जीवन से जुड़ा होना चाहिए। फ़्रांसीसी समाजवादी ज्याँ जौरेज़ ने तो उन्नीसवीं सदी में समाजवाद को व्यक्तिवाद की तार्किक परिणति तक करार दिया था। एंथनी गिडेंस जैसे समकालीन विद्वान तीसरी  धारा की नुमाइंदगी करते हैं। व्यक्तिवाद की नयी परिभाषा करते हुए उन्होंने स्वायत्तता सम्पन्न व्यक्ति को आपसी निर्भरता और पारस्परिकता के माहौल में सक्रिय हस्ती के रूप में देखा है। सेमुअल स्माइल्स ने 1859 में 'सेल्फ़-हेल्प' नामक किताब लिखी थी, जिसे व्यक्तिवाद की बाइबिल समझा जाता है। स्माइल्स ने उद्यम, एकाग्रता और टिकाऊपन की विक्टोरियन ख़ूबियों की सराहना करते हुए बिना किसी बाहरी मदद (यानी समाज-कल्याण) के की गयी ‘सेल्फ़-हेल्प’ को व्यक्ति के सच्चे विकास का आधार करार दिया था। इन विचारों को हरबर्ट स्पेंसर द्वारा प्रतिपादित सामाजिक डार्विनवाद को सर्वोच्च अभिव्यक्ति मिली। इस तरीके से स्पेंसर ने व्यक्तिवाद को जैविक आधार प्रदान करने की कोशिश की। इन विचारों को अस्सी के दशक में रेगनोमिक्स और थैचराइज़ेशन के तहत नव-दक्षिणपंथी स्वर मिला। नये दक्षिणपंथियों ने लोकोपकारी राज्य को ‘निर्भरता की संस्कृति’ कह कर आड़े हाथों लिया। उनकी भाषा में ग़रीब और बेरोज़गार ‘वेलफ़ैयर जंकी’ करार दे दिये गये। व्यक्तिवाद का महत्त्व न केवल एक मानकीय सिद्धांत के रूप में है, बल्कि उसका एक पद्धतिमूलक स्वरूप भी है। इसके तहत व्यक्ति के पूर्व-स्थापित मॉडल के आधार पर मान लिया जाता है कि उसकी आवश्यकताएँ, कामनाएँ और चालक-तत्त्व क्या-क्या हो सकते हैं। इसी ‘निर्धारित’ और ‘प्रदत्त’ मानवीय प्रकृति के आधार पर सत्रहवीं सदी में सामाजिक समझौते के सिद्धांत रचे गये थे और बीसवीं सदी के राजनीति विज्ञान में इसी का इस्तेमाल करके बुद्धिसंगत- चयन की थीसिस तैयार की गयी। व्यक्तिवाद की पद्धति के मुताबिक ही क्लासिकल और नियोक्लासिकल अर्थशास्त्र के सिद्धांतों का सूत्रीकरण हुआ। पद्धतिमूलक व्यक्तिवाद की सबसे बड़ी समस्या यह है कि ग़ैर-सामाजिक और अनैतिहासिक है। मानवीय प्रकृति समाज-दर-समाज बदलती रहती है। उसका कोई सार्वभौम निर्धारित या प्रदत्त रूप नहीं हो सकता।

समुदाय का प्रश्न आते ही व्यक्तिवाद को आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है। व्यक्तिवाद की आलोचना समय-समय पर समाजवादी, समुदायवादी, अनुदारवादी, राष्ट्रवादी और सबसे ज़्यादा फ़ासीवादी चिंतकों द्वारा की गयी है।  इन आलोचनाओं के केंद्र में मुख्यतः  दो प्रश्न हैं : क्या व्यक्ति को समुदाय से स्वतंत्र और आत्म- निर्भर होना चाहिए? क्या ऐसा करने से सामाजिक एकता असम्भव नहीं हो जाएगी और व्यक्ति अलगाव व असुरक्षा का शिकार नहीं हो जाएगा?

इतिहास

पाश्चात्य दर्शन में व्यक्तिवाद की समस्या पहले पहल सोफ़िस्त विचारकों के समय, पाँचवों शताब्दी ईसापूर्व के आसपास, उत्पन्न हुई। मूलत: यह सामाजिक समस्य थी। प्रारंभिक शासन योद्धाओं के शौर्य पर स्थापित हुए थे। कालांतर में, उन प्रारंभिक शासकों के वंशज, परिवार तथा उनके संबंधियों के कुल कुलीन बन गए थे। योद्धा उनके सहायक एवं अनुचर थे। सोफिस्त काल के यूनानी समाज में कुलीनों और योद्धाओं की ही गिनती थी। इन्हीं को सुख-सुविधाएँ उपलब्ध थीं। कुलीन समाज परंपराओं को दैवी बताकर सामान्य जनों के अधिकारों का अपहरण कर रहा था। ऐसी परिस्थितियों में सोफिस्तों ने परंपराओं को मननीय सिद्ध करने का प्रयत्न किया। सोफिस्तों में वयोवृद्ध प्रोतागोरस (480-410) ने मनुष्य को सभी वस्तुओं का मानदंड घोषित किया। प्रोतागोरस का उक्त कथन पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में व्यक्तिवाद का मूल स्रोत के नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रतिज्ञा के अनुरूप प्रोतागोरस ने ज्ञान की व्याख्या में कहा, "हम वस्तुओं को नहीं, प्रत्यक्ष के विषयो को जानते हैं। सामान्य प्रत्यक्ष को ज्ञान का स्रोत बताना मानसिक आधार पर सामान्य व्यक्ति की सत्ता का तथा उसके मूल्य का समर्थन था।" यह "अल्प" की सैद्धांतिक सत्ता के विरुद्ध सामान्यत: ज्ञात "बहु" की सत्ता का समर्थन था। किंतु विवाद का अंत न हुआ।

अफलातून (प्लेटो) ने सत्ता की समस्या पर विचार करते हुए वस्तुओं के "सार" को सत्ता स्वीकार किया। उसी को उसने द्रव्य ठहराया। पर वह "सार" वस्तुओं के वर्गों में व्यास "सामान्य" था। इस प्रकार उसने विशिष्ट वस्तुओं को अयथार्थ और उनके सामान्यों को यथार्थ दिखाने का प्रयत्न किया। अफलातून प्रत्यक्ष की बहुता को, उसके सार की पृथक् सत्ता मानकर, निस्सार एवं असत्य सिद्ध करना चाहता था। अरस्तू ने अफलातून के सामान्यवादी दर्शन में तत्काल कोई विशेष परिवर्तन तो नहीं किया, किंतु उसने इस बात पर बल दिया कि "पदार्थ" और "आकार" वस्तु के दो सहयोगी कारण हैं। इन्हें वस्तु से अलग नहीं किया जा सकत। बात ठीक लगती है। वस्तुएँ केवल सारभूत गुण तो नहीं हो सकतीं; केवल सार समग्र वस्तु का स्थानापन्न कैसे हो सकता है,

अफलातून और अरस्तू के दर्शन के बाद, सिनिक और स्टोइक दार्शनिकों ने भौतिक वस्तु की सत्ता पर बल दिया तथा नैतिक आधार पर व्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन किया। छठी शताब्दी में बीथियस ने, अरस्तू की "कैतागोरिया" नामक पुस्तक का पॉर्फिरी (233-304) कृत परिचय अनूदित कर, नामवाद (नॉमिनलिज्म) का मार्ग प्रशस्त किया। पाश्चात्य दर्शन के मध्यकाल में, 11 वीं से 14 वीं शताब्दी तक, नामवादी विचारकों ने बराबर ही कहा कि सामान्य प्रत्यय नाम के अतिरिक्त कुछ नहीं है, वास्तविक सत्ता वस्तुओं की है। इस प्रसंग में विलियम ऑव ओखम (1280-1349) का स्मरण किया जा सकता है। उसने स्पष्ट रूप से कहा था कि विशिष्ट वस्तुएँ ही होती है। इन्हीं की हमें अपरोक्षानुभूति होती है, जिसे हम निर्णय के माध्यम से व्यक्त करते हैं। वस्तुओं के सामान्य धर्मों को अलग कर, हम सामान्य प्रत्ययों की रचना करते हैं। किंतु विवाद चलता रहा। परंपराओं के पोषक जगत् की व्यवस्था में प्रत्येक वस्तु को स्थान देने के लिए तैयार न थे।

आधुनिक काल में, जर्मन दार्शनिक इमैनुएल काँट के समय (1724-1804) तक, बाह्य जगत् की बहुता को असत्य सिद्ध करने के प्रयत्नों का सिलसिला चलता रहा। प्राकृतिक विज्ञानों का विकास भी होता रहा। इस विकास ने प्रत्यक्ष का भ्रामक मानने में अड़चन पैदा कर दी थी। कांट ने, जो स्वयं विज्ञान का अध्येता रह चुका था, वस्तुओं की सत्ता स्वीकार की। उसने जगत् की भ्रमात्मकता को कायम रखा, किंतु ज्ञान की प्रक्रिया को इसके लिए उत्तरदायी ठहराया। अब वस्तु जगत् के समर्थन की समस्या समाप्त हो गई थी; समस्या थी उसे जानने की।

20 वीं शताब्दी के व्यवहारवादी दर्शन (प्रैग्मेटिज्म) ने प्रत्यक्ष का ज्ञान का उचित माध्यम बनाने में काफी योग दिया। इस दार्शनिक प्रवृत्ति का विकास अमरीका में हुआ। चार्ल्स एस. पीयर्स (1839-1914) को इसका संस्थापक माना जाता है। किंतु इसके प्रमुख व्याख्याता विलियम जेम्स (1842-1910) हैं। जेम्स ने प्रयोग को सत्यासत्य विवक का माध्य बताया। उनके अनुसार हमें देखना चाहिए कि दी हुई वस्तु हमारी आकांक्षाओं को पूरी करती है अथवा नहीं। यदि करती है तो वह उसी प्रकार की वस्तु है जैसी हम उसे समझते हैं। प्रत्ययवादी अद्वैत के विरुद्ध उसने ठोस वस्तुओं की बहुता की स्थापना की। उसने कहा, यदि मनुष्य सहित प्रत्येक वस्तु मात्र प्राथमिक निराकार या असीम द्रव्य का परिणाम है, तो नैतिक उत्तरदायित्व, कर्म सबंधी स्वतंत्रता, व्यक्तिगत प्रयत्नों और आकांक्षाओं का अर्थ क्या होगा?

यहीं से मनुष्य सहित प्रत्यक्ष जगत् की बहुता दार्शनिकों के तात्विक ऊहापोह से मुक्त हुई। मनोविज्ञान ने प्रत्यक्ष का अध्ययन कर उचित प्रत्यक्ष और भ्रम के आधारों को अलग किया। मनोविज्ञान के प्रभाव से यथार्थवादी चिंतन व्यापक हुआ। मनुष्य और जगत् की सत्ता पर संदेह करने की कोई बात न रह गई और प्रत्यक्ष दोनों के बीच प्रेषणीयता का माध्यम समझा जाने लगा। 20 वीं शताब्दी में दार्शनिक ज्ञानमीमांसा और मनोवैज्ञानिक व्याख्याओं में समझौता हो जाने से दार्शनिकों ने अपरोक्षानूभुति अथवा अव्यवहित प्रत्यक्ष पर बल दिया। मनोविज्ञान ने व्यक्तित्व के अध्ययन से प्रत्येक व्यक्ति को एक स्वतंत्र प्रकार निश्चित किया। फ्रांसीसी विचारक हेनरी वर्ग् साँ (1859-1941) ने वस्तुओं के मानसिक बोध की अपेक्षा आंतरिक अनुभव (इंट्वीशन) को अधिक मूल्य दिया। व्यक्ति की अपरोक्षानुभूति उसे अन्य व्यक्तियों से विशिष्ट बना देती है। यह अनुभूति किसी विशिष्ट व्यक्ति में नहीं, सभी में होती है। अभिप्राय यह है कि एक ही संसार में रहते हुए, सबके दृष्टिकोण भिन्न हैं, सभी अपने अपने ढंग के व्यक्ति हैं। इस प्रकार, वर्तमान ज्ञानमीमांसा व्यक्तियों की समष्टि में प्रत्येक व्यक्ति को एक विशिष्ट स्थान देती है।

वर्तमान अस्तित्ववाद इससे भी थोड़ा आगे बढ़कर विशिष्ट मनस्थितियों एवं वासनाओं का उद्घाटन करने में प्रवृत्त है। यदि हम व्यपारसमष्टि में, इन व्यक्तिगत मानवीय व्यापारों को स्थान देते हैं, तो निश्चय ही समान रूप से सभी व्यक्तियों के अस्तित्व एवं मूल्य को स्वीकार करते हैं। दार्शनिक व्यक्तिवाद का यही आशय है।

सन्दर्भ

1. जे. किंगडम (1992), नो सच थिंग एज़ सोसाइटी? इंडिविडुअलिज़म ऐंड कम्युनिटी, ओपन युनिवर्सिटी प्रेस, बकिंघम.

2. एस. ल्यूक्स (1973), इनडिविडुअलिज़म, ब्लैकवेल, ऑक्सफ़र्ड.

3. जी. ज़िमेल (1971), ऑन इनडिविडुअलिटी ऐंड सोशल फ़ॉर्म्स, युनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो प्रेस, शिकागो.

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ