वैधता

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किसी कार्य, समझौते या संविदा की वैधता (Legality) का अर्थ है कि वह विधि के संगत (consistent) है।

वैधता विधि के अनुसार वैधता एक ऐसा संबंध है जिसमें वाध्यता का समावेश होता है। पुरुष और संतान का संबंध, पिता तथा पुत्र या पुत्री के रूप में उसका संबंध, पुरुष और स्त्री के संबंध पर आधारित है जिनसे उस संतान की उत्पत्ति होती है। सभी सभ्य पद्धितियों में विवाह, जो भी इसका रूप हो, प्रामाणिक व्यवस्था है और उसे नैतिक तथा विधिक अनुमोदन प्राप्त है। विवाह के पूर्व की संतानोत्पत्ति अनुमोदित नहीं होती और संतान के लिए उत्तराधिकार से वंचित करनेवाली तथा माता के लिए निंदा की वस्तु मानी जाती है। उसी प्रकार विधवाओं की संतानें भी, मरणोपरांत उत्पन्न संतान को छोड़कर, समाज द्वारा घृणा की निगाह से देखी जाती हैं। जहाँ पति जीवित है लेकिन यदि संतान की उत्पत्ति उसकी माता तथा दूसरे पुरुष से अनुचित संबंध से होती है, तो वह वर्णसंकर या जारज समझी जाती है। केवल उन्हीं संतानों की, जो वैध वैवाहिक संबंध से उत्पन्न होता है, वैधानिक स्थिति होती है और वे ही वैध समझी जाती है।

आंग्ल विधि के अंतर्गत, जो भारतवर्ष में स्वीकृत तथा अपनाई गई हैं, संतान की वैधता का सर्वमान्य प्रमाण तभी है जब उसकी उत्पत्ति उसकी माता तथा पुरुष के वैध विवाह से हुई जो या विवाह के विच्छेद के उपरांत दो सौ अस्सी दिन के भीतर अपनी माता तथा पिता से उसकी उत्पत्ति हुई हो जब तक यह न प्रमाणित हो जाए कि उभय पक्ष के बीच उसके उत्पत्तिकाल में कभी संपर्क न हुआ हो। प्रत्येक वाद में वैधता को प्रमाणित करने के निमित्त व्यावहारिक कठिनाई से बचने के लिए कानून ने निष्कर्ष निकालने का एक सरल उपाय प्रदान किया है कि जब तक इसके विपरीत प्रमाण न दिया जाए, विवाह के काल में उत्पन्न सभी संतानें वैध मान ली जाएँगी। यदि यह सिद्धात प्रतिपादित न होता तो समाज के लिए अपने सीधे सादे लोगों की पैतृक उत्पत्ति के संबंध में खोज बीन करते रहने की व्यर्थ की झंझट में फँसे रहने की संभावना थी। पति का पत्नी के साथ सहयोग हुआ ही नहीं, इसके सिवा अवैधता का अन्य कोई प्रमाण स्वीकार्य नहीं हो सकता। सहयोग का अभिप्राय, व्यापक रूप से, संभोग के अर्थ से है। इस प्रकार कोई भी पति अपने को पिता या जनक न कहकर अपने पैतृक उत्तरदायित्व से वंचित नहीं हो सकता। विधि इसमें इतनी कठोर है कि वैवहिक काल में उत्पन्न संतान के पितृत्व का भार उसे वहन करना पड़ेगा, भले ही स्त्री वास्तव में विश्वासघात की अपराधिनी हो। जहाँ पति और पत्नी आपस में संभोग करते हों, उससे उत्पन्न संतान निर्विवाद रूप से वैध मानी जाती है।

इस विषय में हिंदू विधि आंग्ल विधि का अनुसरण करती है। किंतु मुसलमान विधि के अंतर्गत वैधता भिन्न रीतियों से निश्चित होती है। इस्लाम विधि यह व्यवस्था देती है कि विवाह काल के छह माह के भीतर उत्पन्न संतान अवैध है जबतक कि पिता उसे अपनी संतान न स्वीकार करे या छह माह के उपरांत उत्पन्न संतान वैध है बशर्ते कि पिता उस अस्वीकार न करे या विवाहविच्छेद के उपरांत दस चांद्र मासों के भीतर उत्पन्न संतान सुन्नी विधि के अंतर्गत वैध है और शिया विधि के अंतर्गत दो चांद्र वर्षों के भीतर तथा शफी और मालिकी विधि के अंतर्गत चार वर्ष के भीतर तथा शफी और मालिकी विधि के अंतर्गत चार वर्ष के भीतर की संतान वैध है। इस विषय और अवधि के विस्तार तथा भिन्नता के दो कारण दिए जाते हैं। एक तो यह कि प्रारंभिक इसलामी विधिवेत्ताओं को गर्भधारण या गर्भादान के काल की अपूर्ण जानकारी थी तथा दूसरा था स्त्री और उससे उत्पन्न संतान की अयोग्यता एवं प्रतिष्ठा के बचाव के लिए मानवीय भावनाओं का आग्रह। मुसलमान विधी, जहाँ आग्रह। मुसलमान विधि, जहाँ जानकारी न हो या संदिग्धता वर्तमान हो, वहाँ पितृत्व के अधिकार को स्वीकार करती है।

हिंदू का अवैध पुत्र निर्वाहव्यय का अधिकारी है लेकिन उत्तराधिकार में संपत्ति के किसी भाग का अधिकारी नहीं है, किंतु माता यदि अहिंदू हो तो उसकी संतान निर्वाहव्यय से भी वंचित हो जाएगी। अवैध पुत्री अपने पिता की संपत्ति पाने की अधिकारिणी नहीं है, यद्यपि वह अपनी माता की संपत्ति की उत्तराधिकारिणी है। मुसलमान विध के अंतर्गत सुन्नी पद्धति में यह व्यवस्था है कि अवैध संतान अपने पिता की संपत्ति की उत्तराधिकारिणी है। मुसलमान विधि के अंतर्गत सुन्नी पद्धति में वह व्यवस्था है कि अवैध संतान अपने पिता की संपत्ति की उत्तराधिकारिणी नहीं हो सकती लेकिन पुत्र या पुत्री माता की उत्तराधिकारिणी नहीं हो सकती लेकिन पुत्र या पुत्री माता की उत्तराधिकारिणी हो सकती है। लेकिन शिया पद्धति अवैध संतान को बाहरी व्यक्ति की संज्ञा देती है और उसे पिता अथवा माता किसी से भी उत्तराधिकार में संपत्ति पाने की अनुमति नहीं देती।

सभी पद्धतियों में वैध संतान अपने पिता की संपत्ति की उत्तराधिकारिणी है और साथ ही उसके ऋण के लिए भी उत्तरदायी है। माता पिता की मृत्यु के पश्चात् तत्काल उत्तराधिकारी के हाथ में संपत्ति का अधिकार आ जाता है और वह न्यास के रूप में उसे ग्रहण करता है जब तक मृत्युपत्र द्वारा प्राप्त संपत्ति का भुगतान नहीं हो जाता।

वैयक्तिक विधियों का ध्यान न रखते हुए भारत में भारतीय दंड संहिता मैजिस्ट्रेट को अधिकार देती है कि वह किसी व्यक्ति को अपनी संतानों को जितना उचित समझे उतना मासिक निर्वाहव्यय देने की आज्ञा दे, चाहे वे वैध हों या अवैध। विधि का मंतव्य संतानों को अवांछनीय मार्ग से जीविका उपार्जन करने से रोकना है, जहाँ पिता संरक्षण में उदासीन है या भरणपोषण का व्यय देना अस्वीकार करता है। यदि कोई व्यक्ति आदेश होने पर उस आदेश की पूर्ति बिना पर्याप्त कारण के नहीं करता है, तो मजिस्ट्रेट प्रत्येक ऐसे आदेश के उल्लंघन के लिए वारंट जारी कर सकता है और उसे कैद का दंड भी दे सकता है जो एक मास से अधिक का न होगा या निर्वाहव्यय की अदायगी यदि इससे पहले हो जाए तो अदायगी होने तक का दंड दे सकता है।