विष्णुधर्मोत्तर पुराण

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विष्णुधर्मोत्तर पुराण एक उपपुराण है। इसकी प्रकृति विश्वकोशीय है। कथाओं के अतिरिक्त इसमें ब्रह्माण्ड, भूगोल, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, काल-विभाजन, कूपित ग्रहों एवं नक्षत्रों को शान्त करना, प्रथाएँ, तपस्या, वैष्णवों के कर्तव्य, कानून एवं राजनीति, युद्धनीति, मानव एवं पशुओं के रोगों की चिकित्सा, खानपान, व्याकरण, छन्द, शब्दकोश, भाषणकला, नाटक, नृत्य, संगीत और अनेकानेक कलाओं की चर्चा की गयी है। यह विष्णुपुराण का परिशिष्‍ट माना जाता है। वृहद्धर्म पुराण में दी हुई १८ पुराणों की सूची में विष्णुधर्मोत्तर पुराण भी है।

विष्णुधर्मोत्तर पुराण के 'चित्रसूत्र' नामक अध्याय में चित्रकला का महत्त्व इन शब्दों में बताया गया है-

कलानां प्रवरं चित्रम् धर्मार्थ काम मोक्षादं।
मांगल्य प्रथम् दोतद् गृहे यत्र प्रतिष्ठितम् ॥38॥[१]

(अर्थ : कलाओं में चित्रकला सबसे ऊँची है जिसमें धर्म, अर्थ, काम एवम् मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः जिस घर में चित्रों की प्रतिष्ठा अधिक रहती है, वहाँ सदा मंगल की उपस्थिति मानी गई है।)

संरचना

वर्तमान समय में उपलब्ध ग्रन्थ में तीन खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में २६९ अध्याय हैं, द्वितीय खण्ड में १८३ अध्याय तथा तृतीय खण्ड में ११८ अध्याय हैं।

वास्तव में विष्णुधर्मोत्तरपुराण स्वयं एक वृहद पुराण है। इसमें लगभग १६ हजार श्लोक हैं जिनका संकलन ६५० ई. के आस-पास हुआ। इसके तीन खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में २६९ अध्याय हैं जिनमें अन्य पुराणों के समान संसार की उत्पत्ति, भूगोल सम्बन्धी वर्णन, ज्योतिष, राजाओं और ऋषियों की वंशावलियां आदि और शंकरगीता, पुरूरवा, उर्वर्शी की कथा, श्राद्ध, वृत आदि स्रोत आदि विषय हैं।

द्वितीय खण्ड के १८३ अध्यायों में धर्म, राजनीति, आश्रम, ज्योतिष का पैतामह-सिद्धान्त, औषधि विज्ञान आदि मानव के नित्य प्रति के जीवन से संबन्धित विषय हैं।

तृतीय खण्ड में ११८ अध्याय हैं। इसमें संस्कृत और प्राकृत का व्याकरण, शब्दकोष, छन्दशास्त्र, काव्यशास्त्र, आदि साहित्यिक विषय तो हैं ही नृत्य और संगीत आदि ललित कलायें और वास्तु जैसी ललित शिल्प-कलाओं का भी विस्तृत विवेचन हुआ है।

महत्त्व

इतने विषयों का और इतने सूक्ष्म रूप से अन्य किसी पुराण में वर्णन नहीं हुआ है और इसी दृष्टि से विष्णुधर्मोत्तरपुराण अन्य सभी महापुराणों और उपपुराणों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण पुराण है। विशेषकर शिल्पशास्त्र के शास्त्रीय अध्ययन के लिए यह खण्ड अपूर्व है। ललित कलाओं संबंधि जो सामग्री इसमें मिलती है इससे पहले अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होती। इसकी गणना निस्सन्देह प्राचीन भारत के ललित कलाओं पर सर्वागीण और महानतम शास्त्रों में की जा सकती है। वैसे विशेषत: यह चित्र-सूत्र है, किन्तु कुछ विषय जैसे मान-प्रमाण, रूप और लक्षण, रस, भाव, स्थान और क्षय-वृद्धि ज्यों के त्यों मूर्ति कला के लिए भी लक्षित हैं। चित्र और मूर्ति सम्बन्धी ये लक्षण इससे पूर्ववर्ती अन्य किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होते। कलाओं का जो प्रयोग और अभ्यास भारत में हो रहा था उसका सबसे पहले शास्त्रीकरण विष्णु-धर्मोत्तर-पुराण में ही ६५० ई. के आस-पास हुआ। ललित कलाओं सम्बन्धी विवेचन प्रारम्भ करते हुए शास्त्रकार ने कलाओं में मूलभूत दर्शन की ओर संकेत किया. दोनों लोकों में सुख की प्राप्ति के लिए देवताओं की पूजा करनी चाहिये. संगीत और नृत-कलायें धर्म के उपयोग में आयी और उनका रूप मूलत: धार्मिक बन गया। भारत में ललित कलाओं का विकास और परिपक्वीकरण धर्म की छाया में ही हुआ। भारत में धर्म कोई बाहरी आचरण नहीं है, धर्म जीवन का अभिन्न भाग है।

सन्दर्भ

  1. सी शिवमूर्ति : Chitrasutra of the Vishnudharmottara, पृष्ट 166

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ