वादविद्या

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प्राचीन भारत में औपचारिक रूप से वाद-विवाद करने की बड़ी गौरवपूर्ण परम्परा थी। कभी-कभी ये वाद-विवाद राजाओं के संरक्षण में किये जाते थे जिनका उद्देश्य विभिन्न धार्मिक, दार्शनिक, नैतिक विषयों की समीक्षा करना होता था। इससे सम्बन्धित विद्या वादविद्या कहलाती थी। वादविद्या से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों की रचना हुई थी। इसी प्रकार के वाद-विवादों से ही न्याय (भारतीय तर्कशास्त्र) की भारतीय परम्परा का जन्म हुआ।

चरकसंहिता में वादविद्या

यह विचित्र लग सकता है कि शास्त्रार्थ का सबसे प्राचीन विवरण आयुर्वेद के दो ग्रन्थों चरक संहिता और सुश्रुतसंहिता में मिलता है। [१][२]

चरकसंहिता के तृतीय भाग (विमानस्थान) में अन्य अनेकों विषयों के साथ वादविद्या का भी वर्णन किया गया है। इसे तीन शीर्षकों के अन्तर्गत वर्णित किया गया है

  • (१) कार्याभिनिवृत्ति
  • (२) परीक्षा
  • (३) संभाष-विधि या वाद-विधि

न्यायसूत्रों में वादविद्या

न्यायसूत्रों में वर्णित वादविद्या चरकसंहिता में वर्णित वादविद्या की अपेक्षा अधिक उन्नत और व्यवस्थित है। न्याय-साहित्य में दार्शनिक वाद के लिये 'कथा' शब्द का प्रयोग हुआ है। न्यायसूत्रों में तीन प्रकार के वाद का उल्लेख हुआ है- वाद, जल्प और वितण्डा। 'वाद' , किसी प्रस्तावक तथा उसके गुरु या उनके समतुल्य किसी अन्य व्यक्ति के बीच होता है। जल्प तथा वितण्डा उनके बीच होता है जो शास्त्रार्थ में 'विजय' के इच्छुक हों। वाद का उद्देश्य सत्य या किसी अन्य स्वीकृत सिद्धान्त को स्थापित करना होता है जबकि जल्प और वितण्डा का उद्देश्य 'विजय' है।

तिब्बती बौद्ध धर्म में वादविद्या

प्राचीन भारत में प्रचलित वाद-विद्या की परम्परा तिब्बती बौद्ध धर्म में अब भी जीवित है।[३] भिक्षु एक-दूसरे के साथ वाद करते हैं ताकि उनकी बुद्धि तीक्ष्णतर होती जाय और वे असत्य धारणाओं को पराजित कर सकें।

सन्दर्भ

  1. Satis Chandra Vidyabhusana (1920). A History of Indian Logic: Ancient, Mediaeval and Modern Schools. Delhi: Motilal Banarsidas. pp. 25–35. ISBN 9788120805651.
  2. Karin Preisendanz (2009). "Logic, Debate, and Epistemology in Ancient Indian Medical Science" स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। (PDF). Indian Journal of History of Science. 44 (2): 261–312. Retrieved 27 November 2016.
  3. Perdue, David. "Tibetan Buddhist Debate". Asia Society. Retrieved 2021-02-07. "The Tibetan argument forms were brought over with minor adaptations from the Indian logical forms"

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