लाल प्रताप सिंह
लाल प्रताप सिंह | |
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जन्मस्थल : | धारुपुर (वर्तमान प्रतापगढ़ जिला) |
मृत्युस्थल: | चांदा, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश |
आन्दोलन: | भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम |
युवराज लाल प्रताप सिंह (१८३१-१८५८) कालाकांकर राजघराने से एक स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी व क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में अवध की सेना का नेतृत्व करते हुए वर्ष १८५८ ईस्वी में चांदा में वीरगति को प्राप्त हुए थे। १९ फ़रवरी २००९ को भारतीय डाक विभाग ने लाल प्रताप सिंह पर एक डाक टिकट और प्रथम दिवस आवरण जारी किया।[१]
परिचय
लाल प्रताप सिंह आजादी के आंदोलन में ऐतिहासिक भूमिका निभानेवाली प्रतापगढ़ के कालाकांकर राज के जयेष्ट युवराज थे। वे कालाकांकर नरेश राजा हनुमंत सिंह के पुत्र थे। उस जमाने की सबसे कठिन लड़ाइयों में एक चांदा की लड़ाई में वह अंग्रेजों से बहुत वीरता से टक्कर लेते हुए १९ फ़रवरी १८५८ को शहीद हुए थे।[२]
१८५७ की क्रांति
वास्तव में 1857 के दौरान इलाहाबाद व आसपास के इलाको में भारी दमनराज चलाने के बाद दंभ से भरा जनरल नील जब सुल्तानपुर के रास्ते लखनऊ की ओर जा रहा था तो बेगम हजरत महल ने कालाकांकर नरेश तथा अमेठी के राजा लाल माधव को उसकी सेना को रोकने का संदेश भेजा। नील लखनऊ रेजीडेंसी को मुक्त कराने के इरादे से काफी बड़ी सैन्य तैयारी साथ जा रहा था।
इस अवसर पर कालाकांकर नरेश ने अपने सबसे प्रिय पुत्र युवराज लालप्रताप सिंह को चांदा की घेराबंदी कर अंग्रेजों से मुकाबला करने का जिम्मा सौंपा। युवराज अपने साथ सैनिको और बड़ी संख्या में अपने समर्थक दिलेर किसानो के साथ अक्टूबर १८५७ के आखिर में मोरचे पर पहुंच गए। बागियों ने चांदा तथा अमेठी में अंग्रेजों के खिलाफ जोरदार मोरचा लिया। चांदा फतह करने के इरादे से अंग्रेज भारी तामझाम और सैन्य तैयारी के साथ निकले थे। पर पर चांदा की लड़ाई उनके लिए वाटरलू जैसी होती दिखी। अंग्रेजों के छक्के छूट गए और उनको बुरी तरह पराजित होना पड़ा। इस पराजय से अंग्रेज काफी घबरा गए। उधर बागियों ने विजय के बाद भी सतर्कता बरकरार रखी और चांदा को अपना मजबूत किला बनाए रखा। अंग्रेजों के खिलाफ जंग में चांदा का मोरचा अवध का ऐतिहासिक मोरचा माना जाता है।[३]
उपलब्ध दस्तावेजों के मुताबिक १८ फ़रवरी १८५८ को चांदा की लड़ाई में २० हजार से अधिक स्वातंत्र्य वीरों ने भाग लिया था। हालांकि इनमें पैदल सिपाही २५०० और सवार १४०० के आसपास ही थे। बाकी जंग में शामिल होने पहुंचे स्थानीय किसान और मजदूर थे। उनके पास उन्नत हथियार या तोपें नहीं थीं, बल्कि लाठी, भाला, बल्लम और परंपरागत हथियार तथा कइयों के पास तलवारे थी। इससे पता चलता है fक क्रांति नायको के पास किस बड़े स्तर का जनसमर्थन था।
लेकिन चांदा की लड़ाई में बागी नेताओं के पास विभिन्न श्रेणी की २३ तोपें भी थीं। इन सारी तैयारियों जायजा लेकर इस बार हमला अंग्रेजों ने सारे तरीको को अख्तियार करके किया। इस बार अंग्रेजों की कुटिल नीति और खुफिया तैयारियों के चलते बागियों की पराजय हुई। चांदा की लड़ाई में महान सपूत युवराज लाल प्रताप शहीद सिंह की शहीदत क्रान्तिकारियों की सबसे बड़ी क्षति थी। चांदा में उनकी शहादत की तिथि १९ फ़रवरी १८५८ माना जाता है। यही नहीं चांदा की ऐतिहासिक लड़ाई में युवराज लाल प्रताप सिंह के चाचा राजा माधव सिंह भी लड़ते -लडते मातृभूमि पर शहीद हो गए। उन्होने मात्र २६ साल की उम्र में ऐतिहासिक चांदा की लड़ाई में अपने प्राणों का बलिदान हंसते-हंसते दे दिया था।[४]
लोकगीतों में लाल प्रताप
चांदा की लड़ाई आज भी लोक गाथाओं और लोक गीतों में जीवित है। कालाकांकर के युवराज की वीरता का बयान आज भी स्थानीय लोक गीतों में होता और ग्रामीण उनको याद करते हैं। उनकी वीरता का बखान लोक गीतों में कुछ इस तरह है-
काले कांकर का बिसेनवा
चांदे गाड़े बा निसनवां
स्मारक
युवराज लाल प्रताप सिंह की याद में कालाकांकर में कीर्ति स्तंभ के तौर पर प्रताप द्वार बना हुआ है। लेकिन इतिहास की किताबों में उनकी वीरता के बारे में जानकारी नहीं मिलती है। पर उस समय की सरकारी रिपोर्टो में उनका प्रताप जरूर नजर आता है।
जारी डाक टिकट
एक लंबे समय तक गुमनामी के अंधेरे में रहे इस महान नायक की याद को स्थायी बनाने के लिए उनके शहादत तिथि यानि १९ फ़रवरी २००९ को भारतीय डाक विभाग ने एक विशेष स्मारक डाक टिकट और प्रथम दिवस आवरण जारी किया।
अन्य
- राजा रामपाल सिंह (१८४८-१९०९) स्वतन्त्रता सेनानी लाल प्रताप सिंह के पुत्र थे, जो कांग्रेस के संस्थापको में प्रमुख थे और उन्होने जनजागरण के लिए हिंदी दैनिक हिंदोस्थान का प्रकाशन १८८५ में कालाकांकर से शुरू किया था।
- कालाकांकर राज की नींव युवराज लाल प्रताप के पिता राजा हनुमंत सिंह (१८०८-१८८५) ने रखी थी, जो स्वयं भी बेटे लाल प्रताप के साथ अंग्रेजो से युद्ध किये थे।