रश्मिचिकित्सा
मनुष्य अपने उत्पत्तिकाल से ही सूर्य की उपासना तथा सूर्यकिरणों का रोगों की चिकित्सा के लिए प्रयोग करता आया है। इन किरणों को वैज्ञानिक रूप में प्रयुक्त करने का श्रेय फिनसन् (Finsen) को है। किरणचिकित्सा में कृत्रिम किरणों (artificial light), विशेषत: कार्बन आर्क (carbon arc) प्रयुक्त करने का सुझाव इन्हीं का है। उसी प्रकार रोलियर (Rollier) ने यक्ष्मा रोग (फुफ्फुस यक्ष्मा दोड़कर) की चिकित्सा में सूर्यकिरण-चिकित्सा (Heliotherapy या फोटोथिरैपी या लाइट थिरैपी) को बहुत लोकप्रिय बनाया। रश्मिचिकित्सा
सूर्यकिरण चिकित्सा से विशिष्ट रोगों में बहुत लाभ होता है। चिकित्सा के समय इन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है कि रागी को चिकित्साकाल में न तो अधिक शीत या ऊष्मा में रहना पड़े और न ही सूर्य के प्रखर, चौंधियानेवाले प्रकाश के कारण रोगी के मस्तिष्क में पीड़ा होने लगे। नेत्रों पर गहरा रंगीन चश्मा लगाना, सर को धूप से ढँका रखना, सूर्यकिरण चिकित्सा के समयमान पर उचित नियंत्रण तथा शरीर के खुले भाग के क्षेत्र आदि का ध्यान रखना आवश्यक रहता है। सूर्यरश्मियों के प्रति प्रत्येक राग तथा रोगी की सहनशीलता भिन्न भिन्न होती है। गोरी त्वचावाले व्यक्तियों की अपेक्षा साँवली त्वचावालों में किरण के प्रति सहनशीलता की क्षमता अधिक होती है। श्वेत कुष्ट से पीड़ित व्यक्ति में रश्मियों की त्वचा पर रश्मिचिकित्सा के कारण, प्राय: 6 घंटे में, अतिरक्तिमा (Erythema) उभड़ आती है। इससे अधिक समय तक रश्मिप्रयोग नहीं करना चाहिए, अन्यथा फफोले, या छाले बनने का डर रहता है। धीरे-धीरे त्वचा का रंग ताँबे के वर्ण का हो जाता है, क्योंकि त्वचा में अब विशेष वर्णक (pigment) उतपन्न हो जाते हैं, जो सूर्यकिरणों से होनेवाली हानियों को रोकते हैं। चिकित्सा के दौरान ठंढे देशों में शरीर की उपापचयी क्रिया की गति बढ़ जाती है। सूर्यकिरणों में सब सूक्ष्म तरंग दैर्ध्यवाली किरणें परावैगनी किरणें होती है। ऊष्मा वाली किरणों से रोगी को बचाना चाहिए, तब रोगी को प्रफुल्लता तथा नवजीवन का अनुभव होगा तथा मानसिक क्रिया और शक्ति का विकास होगा। थकान नहीं होने देना चाहिए। सूर्यरश्मि जीवाणुनाशक भी होती है, जिससे त्वचा के रोगों में और दाह में लाभ होता है। ऐसा विश्वास है कि सूर्यकिरण त्वचा में प्रवेश कर रुधिर में मिश्रित होकर, सूर्य की भौतिक ऊर्जा से ऊष्मीय ऊर्जा (thermal energy) में रूपांतरित हो जाती है, जिससे रक्त में परिसंचरण करनेवाले कीटाणुओं, जीवाणुओं, तथा विष का नाश होता है। सूर्यताप से कैल्सियम, फॉस्फोरस तथा लोहे की मात्रा रक्त में बढ़ जाती है।
शल्ययक्ष्मा (surgical tuberculosis), सुखंडी रोग (rickets), दमा आदि रोगों में सूर्यकिरणचिकित्सा द्वारा लाभ होता है। चर्मरोग, विशेषत: सोरियोसिस (psoriasis) के उपशमन में, संतानोत्पादन, तथा अंत: स्रावी ग्रंथियों के उपचार में इससे अच्छा लाभ होता है। उपचार की अपेक्षा उपचार में सहायक के रूप में इसकी उपयोगिता शीघ्रता से बढ़ रही है।
इसका उपयोग द्विध्रुवी विकार (bipolar disorder) में भी किया जाता है।
इतिहास
आदि काल में चिकित्सा की कोई वैज्ञानिक प्रणाली नहीं थी। तब अपने कष्टों से मुक्ति पाने के लिए लोग सूर्य को हाथ उठाते थे और प्रायः तभी से शुरू हई सूर्य चिकित्सा।[१]
सन्दर्भ
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