मानव नेत्र
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मानव नेत्र शरीर का वह अंग है जो विभिन्न उद्देश्यों से प्रकाश के प्रति क्रिया करता है। आँख वह इंद्रिय है जिसकी सहायता से देखते हैं। मानव नेत्र लगभग १ करोड़ रंगों में अन्तर कर सकता है।
नेत्र शरीर की प्रमुख ज्ञानेंद्रिय हैं जिससे रूप-रंग का दर्शन होता है। मनुष्य के दो नेत्र होते हैं।
रचना
प्रत्येक नेत्र 2.5 सेंटीमीटर व्यास का गोलाकार पिंड होता है। यह कपाल के नेत्रगर्त में स्थित होता है और उसका छोटा सा भाग ही बाहर से दिखाई पड़ता है। इस भाग को अग्रखंड कहते हैं। इस खंड का मध्य भाग कॉर्निया है, जो पारदर्शक होता है।
नेत्रगोलक की तीन परतें होती हैं। बाहरी परत (श्वेत पटल) घने संयोजक तंतुओं की होती हैं, जो अंदर की परतों की रक्षा और नेत्रपेशियों की कंडराओं के संन्निवेश को सुविधा प्रदान करती है। इस पटल का अग्रभाग पारदर्शक कॉर्निया है और बाकी हिस्सा श्वेत अपारदर्शी होता है। आँख में कंजंक्टाइवा नामक श्लेष्मिक झिल्ला के पीछे से इसी की सफेदी झलकती है। मध्य परत है श्यामवर्ण रंजित पटल। इसके दो भाग होते हैं : पश्च दो तिहाई, कोरायड, जो केवल रक्तवाहिनियों का जाल होता है और अग्र तिहाई, अपेक्षाकृत स्थूल भाग, जिसे रोमक पिंड (सिलियरी बॉडी) कहते हैं। यह वृत्ताकार पिंड आगे की और आइरिस या परितारिका पट्ट बनाता है। आइरिस के बीच एक छिद्र होता है, जिसे प्यूपिल या नेत्रतारा कहते हैं। यह छोटा बड़ा हो सकता है तथा इसी में से प्रकाश नेत्र के पश्चखंड में प्रवेश करता है। भीतरी परत, तंत्रिका के रेशों और कोशिकाओं से निर्मित, दृष्टिपटल होती है।
इन परतों के आलावा रोमक पिंड से निलंबन स्नायु द्वारा संलग्न ठीक आइरिस के पीछे लेंस अवस्थित होता है। कॉर्निया और लेंस के अग्रपृष्ठ के बीच का स्थान अग्रकक्ष और आइरिस तथा लेंस के बीच का पतला वृत्ताकार स्थान पश्चकक्ष कहलाता है। इन पक्षों में पतला जलीय द्रव नेत्रीद होता है। लेंस के पश्च भाग में क्रिस्टलीय पारदर्शी श्लिषि (जेल) होती हैं, जिसे सांद्र द्रव कहते हैं।
रोमक पिंड (ciliary body) के तीन भाग होते हैं :
- (1) रोमक मुद्रिका - रंजित पटल का अग्रभाग, जिसमें अरीय ढंग से स्थापित मेड़ें होती हैं;
- (2) रोमक प्रवर्ध - लेंस परिसर के चारों ओर झालर की भांति स्थित होता है;
- (3) रोमक पेशी (ciliary muscle) - ये अरेखित पेशियाँ होती हैं तथा अरीय और वृत्तीय ढंग से स्थित होती हैं। दूरदृष्टिवालों में ये पेशियाँ काफी विकसित होती हैं।
आइरिस में भी दो प्रकार की पेशियाँ होती हैं, वृत्तीय और अरीय। वृत्तीय के आकुंचन से प्यूपिल छोटा होता है और अरीय के सिकुड़ने से फैलता है। ये स्वचालित पेशियाँ हैं और सहजक्रिया-केंद्र द्वारा इनका नियंत्रण होता है।
नेत्रोद का निर्माण संभवतः रोमक प्रवर्ध की कोशिकाओं से प्राप्त स्फाटकल्पयुक्त तरल के अपोहन से होता है। इसमें प्लाज़्मा के समानुपात में स्फाटकल्प होते हैं और पर्याप्त मात्रा में ह्यालयुरोनिक अम्ल भी होता है। नेत्रोद के कारण नेत्र के अंदर का चाप 18 से 25 मिमी. (पारद) होता है। नेत्रोद पश्च कक्ष से निकलकर अग्रकक्ष में और यहाँ से फांटाना के प्रदेश में आता है। यहाँ श्लेम की नाल और प्रदेश के बीच केवल अंत:कला का झीना अंतरपट होता है और नेत्रोद इसी पथ से नेत्र शिरा में जा गिरता है। प्रति मिनट 2 घन मिमी. नेत्रोद बनता है और उसके बाहर निकलने में कहीं बाधा आई तो नेत्र का चाप बढ़ जाता है। इस दशा को 'ग्लॉकोमा' या समलबाई कहते हैं। ऐसे नेत्र छूने पर पत्थर से कड़े प्रतीत होते हैं।
नेत्र के उपांग
नेत्रपेशियाँ
नेत्रगोलक का संचालन छह पेशियाँ करती हैं। ये हैं :
- (क) इंटर्नल रेक्टस (नेत्र के अंदर नासा की ओर),
- (ख) सुपीरियर रेक्टरा (ऊपर और अंदर),
- (ग) एक्सटर्नल रेक्टस (बाहर, कान की ओर),
- (घ) सुपीरियर ऑब्लीक (नीचे तथा बाहर),
- (च) इन्फीरियर ऑब्लीक (ऊपर तथा बाहर),
- (छ) इन्फीरियर रेक्टस (नीचे और अंदर)।
ये पेशियां तीसरी (क, ख, ङ, च.), चौथी (घ) और छठी (ग) कपाल तंत्रिकाओं द्वारा निर्देश प्राप्त करती है। ठीक से देखने के लिए आवश्यक है कि दोनों आखों का संचालन एक साथ हो और दृष्टि अक्षियाँ बराबर समानांतर रहें। ऐसा न होने पर हर चीज दो दिखाई पड़ेगी और भेंगापन (स्क्विंट, च्द्दद्वत्दद्य) प्रकट होगा।
पलकें
नेत्रगोलक के दृष्ट भाग को पलकें ढकती हैं। ऊपर की पलक ही सक्रिय होती है तथा इसके उठने या गिरने से नेत्र खुलने या मुंदने की क्रिया होती है।
नेत्रश्लेष्मला
पलकों की भीतरी सतह और नेत्रगोलक के अग्रभाग को, कॉर्निया क्षेत्र छोड़कर, एक पतली श्लेष्मिक झिल्ली ढकती है, जिसे कजंक्टाइवा या नेत्रश्लेष्मला कहते हैं।
अश्रु उपकरण
नेत्र के ऊपरी भाग में अश्रुग्रंथियाँ होती हैं और इनकी नलिकाएँ कंजक्टाइवा कोश में खुलती हैं। अश्रुजल निरंतर नेत्र को धोता रहता है। पलक की कोर के नासा छोर पर एक छिद्र होता है, जो अश्रुवाहिनी का मुखद्वार है। दोनों पलकों से दो अश्रुवाहिनियाँ अश्रुकोश में खुलती हैं और इस कोश से निकलकर नासाश्रुवाहिनी नाक में खुलती है। इस प्रकार नेत्र धोकर अश्रु इस पथ से नाक में निकल जाते हैं। यही कारण है कि रुदन के समय नाक पोछने की भी आवश्यकता होती है। अश्रु में एक प्रकार की जीवावसादक लाइसोज़ाइम पाया जाता है जो जीवाणुओं से नेत्र की रक्षा करता है।
दृष्टिपटल की रचना
यह नेत्रगोलक की अंदरूनी परत है, जो पश्च दो तिहाई को आवृत्त करती है। इसके मध्यभाग में दृष्टितंत्रिका नेत्र में प्रवेश करती है और गोलचक्की सी दिखाई पड़ती है। इसे अक्षिबिंब कहते है। नेत्र की धमनी और शिराएँ इसी बिंब को मध्य से भेदती हुई नेत्र में प्रवेश करती हैं। अक्षिबिंब से 4 मिमी. नासा की ओर एक अंडाकार पीत क्षेत्र होता है, जिसे पती अंक कहते हैं। इसके बीच एक छिछला गर्त होता है, जिसे केंद्रगर्तिका कहते हैं। यहीं सबसे अच्छा दिखाई पड़ता है। अक्षिबिंब पर दृष्टि नहीं होती और इसे अंध चित्ती कहते हैं। अक्षिबिंब से निकले तंत्रिकातंतु दृष्टिपटल का निर्माण करते हैं। पटल की रचना पर सूक्ष्म विचार करने पर संस्तरों का पता चलता है। ये अंदर से बाहर की ओर इस प्रकार स्थित हैं :
- (1) आंतर-सीमांत-कला सांद्रद्रव से पटल को विलग करती हैं;
- (2) अक्षिस्तर - अक्षिबिंब की ओर अभिसृत तंत्रिका रेशों का जाल;
- (3) गुच्छिका स्तर - इसमें तंत्रिकाकोश होते हैं, जिससे दृष्टितंत्रिका के रेशे निकलते हैं, दूसरी ओर ये कोश द्विध्रुवी कोशों से संपर्क करते हैं;
- (4) आंतर आणविक स्तर - गुच्छिका और द्विध्रुवी कोशों के रेशों का अंतर्ग्रथन,
- (5) द्विध्रुवी कोशस्तर - गुच्छिका और प्रकाशग्राही कोशों का संपर्क करानेवाले कोश;
- (6) बाल आणविक स्तर - द्विध्रुवी और प्रकाश्ग्राही कोशों के रेखों का अंतर्ग्रथन;
- (7) बाह्य केंद्रक स्तर - प्रकाशग्राही कोशों के केंद्रक;
- (8) प्रकाशग्राही कोश स्तर - इसमें शंकु और शलाका दो प्रकार के कोश होते हैं;
- (9) रंजक स्तर - प्रकाश किरणों को रोकनेवाला काला परदा;
- (10) बाह्य सीमांत कला - दृष्टिपटल और रंजित पटल को अलग करता है।
दृष्टिपटल की एक विचित्रता यह है कि इसकी परतें उलटी होती हैं। प्रकाशग्राही परत पीछे और संवेदनावाही तंत्रिका सामने होती है। अतएव प्रकाशकिरण पहले सब संस्तरों को भेदकर शंकु या शलाका तक जाती है और तब प्रकाश संवेदना उसी पथ से लौटकर दृष्टितंत्रिका में जाती है। केंद्रगर्तिका की विशेषता यह है कि वहाँ केवल प्रकाशग्राही होते हैं और प्रकाशकिरणें सीधे उन्हीं पर गिरती हैं।
प्रकाश का अपवर्तन
नेत्र एक प्रकार का कैमरा है। इस कैमरे का 'लेंस' है कॉर्निया, नेत्रोद, लेंस तथा सांद्र द्रव। दृष्टिपटल प्रकाशग्राही पट्ट है। आइरिस डायफ्राम है जो प्रकाश की मात्रा का नियंत्रण करता है। लेंस की वक्रता परिवर्तनशील है, जिससे दूर और पास की चीजें आसानी से फोकस हो जाती हैं। नेत्र पर पड़नेवाली समानांतर प्रकाशकिरणें झुककर दृष्टिपटल पर प्रतिबिंब बनाती हैं। प्रकाशवर्तन का मुख्य कार्य कॉर्निया करता है, जेंस का भान कम होता है। लेंस का अपवर्तनांक 1.42 तथा अन्य सबका 1.33 होता है। नेत्र में प्रकाशकिरणों का पथ जटिल होता है, पर नेत्र के दृष्टिगुण को सरलीकृत करके समझा जा सकता है। सरल नेत्र 5.7 मि.मि. अर्धव्यास का वृत्ताकार क्षेत्र है, जो 1 तथा 1.336 वर्तनांक के माध्यमों को पृथक करता है। इस नेत्र का प्रकाशकीय केंद्र 'के' कॉर्निया के अग्रपृष्ठ से 7 मि.मि. पीछे स्थित है। नेत्र 24 मि.मि. लंबा होता है अतएव दृष्टिपटल 'के' से 17 मि.मि. पीछे हुआ। लेंस की वर्तनशक्ति को डायोप्टर में व्यक्त करते हैं।
अतएव सरल नेत्र की वर्तनशक्ति डायोप्टर हुई। लेंस निकाल देने पर नेत्र की वर्तनशक्ति 16 डायोप्टर घट जाती है। अतएव कार्निया आदि से 43 डायोप्टर शक्ति प्राप्त होती है। वस्तु के दो छोर से प्राप्त किरणों से 'के' पर जो कोण बनता है, उसे दर्शनकोण कहते हैं।
स्वत: समायोजन
भिन्न दूरियों पर स्थित चीजों को फोकस करने का काम लेंस के अग्रपृष्ठ की परिवर्तनीय वक्रता से होता है। उत्तलता बढ़ती है तो लेंस की शक्ति बढ़ जाती है। स्वत: समायोजन के समय लेंस की वक्रता 6.7 मि.मि. और दूर देखते समय 11-12 मि.मि. होती है। लेंस के चारों ओर लचीला संपुट होता है, जो रोमक पिंड से संबद्ध होता है और संपुट का तनाव घटने पर लेंस फूल आता है। वृद्धावस्था आने पर लेंस का लचीलापन घटने लगता है और स्वत: समायोजन की शत्कि कम होने लगती है। यही कारण है कि 40-45 वर्ष की आयु के बाद पढ़ने के लिए चश्मे की जरूरत पड़ने लगती है। इस अवस्था को जरा-दूर-दृष्टि कहते हैं। पढ़ने की सामान्य दूरी 33 से 40 सेंटीमीटर होती है।
अपवर्तन दोष
(1) दूरदृष्टि (हाईपरमीट्रोपिया) : इस अवस्था में दूर की चीजें तो दिखाई पड़ जाती हैं, पर पास की चीजें धुँधली दिखाई देती हैं। नेत्रगोलक की लंबाई कम होने पर प्रकाशकिरणें दृष्टिपटल के पीछे फोकस होती है। दूर देखने में भी स्वत: समायोजन का सहारा लेना पड़ता है। नवजात में तो यह अवस्था स्वभाविक होती है। छात्रों में यह दोष होने पर उत्तल लेंस के चश्मे लगाने पड़ते हैं।
(2) निकट दृष्टि (मायोपिया) : इस अवस्था में आँख अधिक लंबी होती है। प्रकाश किरणें दृष्टिपटल पर पहुँचने से पहिले ही फोकस हो जाती है और फलस्वरूप दूर की चीज़ें दिखाई नहीं पड़तीं। साथ ही पास की चीजें देखने के लिए स्वत: समायोजन की जरूरत नहीं होती। इस दोष से पीड़ितों को पढ़ने का चश्मा नहीं लगता। जन्म के समय यह दोष नहीं होता, छात्रों में 8 से 14 वर्ष के बीच इस प्रकट होता है और 18 से 25 वर्ष की आयु में रुक जाता है। बहुधा यह दोष वंशगत होता है। इसका शोधन अवतल लेंस युक्त चश्में से होता है।
(3) दृष्टि वैषम्य : पहले बताया जा चुका है कि वर्तन में मुख्य भाग कॉर्निया का होता है। यदि कॉर्निया की वक्रता सर्वत्र एक सी न हुई तो समतल तथा खड़ी किरणें अलग बिंदुओं पर फोकस होती हैं। दृष्टि वैषम्य को दूर करने के लिए बेलनाकार लेंसों का प्रयोग होता है।
(4) जरा दृष्टि दोष : जरा दृष्टि दोष में स्पष्ट कुछ भी दिखाई नहीं देता और अस्पष्ट निकट और दूर दोनों हो सकता है। इसके कारण यह है कि अधिक उम्र(60 वर्ष+ वाले लोग) में समंजन क्षमता का घटना। इसके उपचार के लिए द्विफोकसी लेंस का प्रयोग किया जाता है।
चश्मे और संस्पर्श लेंस
वर्तन का दोष दूर करने लिए चश्मों का उपयोग होता है। दोष की मात्रा के अनुरूप विभिन्न शक्तिवाले लेंस बनाए जाते हैं। एक ही चश्मे में दो प्रकार के लेंस भी लगाए जा सकते हैं। एक आँख के चश्मे भी बनते हैं। धूप की चमक से रक्षा करनेवाले चश्मे सिर्फ रंगीन कांच के होते हैं।
संस्पर्श लेंस (contact lense) पतले काँच या पारदर्शी प्लास्टिक के होते हैं और इन्हें आँख के अंदर लगा लेते हैं। साधारण चश्मा पहनकर खेलना, तैरना, वर्षा में देखना, नाचना आदि असुविधाजनक होता है। इनमें यह लेंस सुविधाकारक है। किरेटोकोनस (तिकोना कॉर्निया) में चश्मा नहीं लग सकता, पर यह लेंस लग जाता है। इस लेंस की दिक्कत यह है कि इसे एक बार में दो तीन घंटे से ज्यादा देर तक पहनना संभव नहीं होता, आँखें लाल और जल भरी हो जाती हैं। हाल में बने नए संस्पर्श लेंस सात आठ घंटे तक पहने जा सकते हैं। यह लेंस आँख में टूटता नहीं, उलटे आँख की रक्षा करता है।
दृष्टिज्ञान
हम कैसे देखते हैं, यह जानने के लिए दृष्टिपटल की रचना समझना जरूरी है। उसकी शलाका और शंकु प्रकाशग्राही हैं। शलाका कम रोशनी, धुँधलके में रंगहीन दृष्टि देते हैं। शंकु दिन के प्रकाश में रंगीन दुनिया दिखाते हैं। दृष्टिपटल में करीब साढ़े बारह करोड़ शलाकाएँ और सत्तर लाख शंकु होते हैं। गर्तिका में केवल शंकु होते हैं और इनकी संख्या प्रति वर्ग मिमि. डेढ़ लाख के लगभग होती है। दृष्टि तंत्रिका में आठ लाख रेशे होते हैं। अतएव एक रेशे से अनेक शंकु या शलाकाएँ (एक गुच्छिका से 300 शलाकाएँ या शंकु) जुड़े होते हैं, किंतु गर्तिका में प्रत्येक गुच्छिका से एक ही शंकु संबंद्ध होता है। इसी से गर्तिका में सर्वोत्तम दृष्टिज्ञान होता है। अक्षिबिंब पर अंधचित्ती होती है होती है ओर इसे देखना हो तो यह प्रयोग करे : सफेद कागज पर एक क्राँस बनाऍ और उसके दाहिनी ओर 6 सेंमी. पर एक बिंदु। अब दाहिनी आँख क्रास कर गड़ाकर कागज दूर से पास लाएँ। 24 सें.मी. की दूरी पर सहसा बिंदु गायब हो जाएगा, क्योंकि उस समय उसका प्रतिबिंब अंधचित्ती पर बन रहा होगा।
प्रकाश किरणें इंद्रधनुष के रंगों से मिलकर बनती हैं। इनका एक छोर है बैंगनी (तरंग लंबाई 4,000 आर्मस्ट्रांग) और दूसरे छोर पर लाल (तरंग लंबाई 7,500 आर्मस्ट्रांग)। अवरक्त और पराबैंगनी तरंगें नेत्र के प्रकाशग्राहकों को उत्तेजित नहीं कर पातीं। दिन में पीत-हरित प्रकाश का (5,500 आर्मस्ट्रांग) बाहुल्य होता है। यही सबसे चमकीला प्रकाश है और इसे प्रकाशसंवेदना उत्पन्न करने के लिए अधिक शक्ति की जरूरत नहीं होती। लाल या नीली किरण को उतनी ही संवेदना उत्पन्न करने के लिए दस हजार गुनी शक्ति की आवश्यकता होती है। शंकु और शलाका की वर्णों के प्रति संवेदनशीलता का वक्र बनाने पर समझ में आता है कि क्यों गोधूलि बेला में लाल फूल श्याम, किंतु नीले फूल नीले ही दिखाई पड़ते हैं।
तंत्रिका उद्दीपन एक रासायनिक प्रक्रिया है। शंकु के बारे में अभी ठीक ज्ञात नहीं, किंतु शलाका की रासायनिक प्रक्रियाओं का विस्तृत अध्ययन हो चुका है। शलाका में नील-लोहित-लाल-प्रोटीन, रोडाप्सिन, या दृष्टिनील लोहित होती है, जो प्रकाश में विरंजित हो जाती है। वाल्ड ने परिवर्तनक्रम इस प्रकार बताया है। रोडाप्सिन पर प्रकाश पड़ता है तो वर्णहीन प्रोटीन रेटिनीन बनती है। आप्सिन रेटिनीन को पुन: रोडाप्सिन बना देती है। रेटिनीन वास्तव में विटामिन-ए ऐल्डीहाइड है। डीहाइड्रोजिनेस की प्रक्रिया इसे शुद्ध विटामिन ए बना सकती है ओर विटामिन ए, डी.पी.सन. के प्रभाव से, रेटिनीन बन जाती है। इन प्रक्रियाओं में आक्सीन्यूनीकरण विभव परिवर्तित होता है, जिससे तंत्रिका उद्दीप्त होती है। विटामिन ए के अभाव में रोडाप्सिन नहीं बनती और रतौंधी हो जाती है। चूजों के शंकु में आयोडाप्सिन पाई गई है, पर यह स्तनपायी जीवों में भी होती है, इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है।
अंधकार अनुकूलन
प्रकाश से सहसा अंधकार में आने पर कुछ क्षणों तक कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, फिर धीरे धीरे आँख अंधेरे की अभ्यस्त होती है, तब दिखाई पड़ने लगता है। इसका कारण यह है कि प्रकाश में शलाकाएँ विरंजित हो जाती हैं और दृष्टिनील-लोहित बनने में समय लगता है। रतौंधीपीड़ितों में तो शलाका अक्षम होती है। युद्ध में इस अल्पकालिक अंधता से बचने के लिए लाल चश्मों का उपयोग होता है, क्योंकि लाल (6,400 आर्मस्ट्रांग) का शलाका पर प्रभाव नहीं होता।
प्रकाश अनुकूलन की आवश्यकता नहीं होती। हाँ, अंधेरे से रोशनी में आने पर चकाचौंध जरूर होती है। अनुकूलन में आइरिस भी भाग लेती है। तेज रोशनी में प्युपिल छोटी और अंधेरे में बड़ी हो जाती है। रोशनी ज्यादा तेज हुई तो पलक झपक जाती है। अनुकूलन हो जाने पर प्युपिल का आकार सामान्य हो जाता है।
दृष्टि की अन्य विचित्रताएँ
(1) दृष्टिज्ञान की निरंतरता : साधारण प्रत्यावर्ती धारा (ए.सी.) वाली विद्युत् एक सेकंड में पचास बार जलती बुझती है, पर नेत्र को निरंतर प्रकाश की अवस्था प्रतीत होती है। कारण यह है कि दृष्टिपटल पर बने प्रतिबिंब के मिटने में समय लगता है। इसी विशेषता का लाभ लेकर चलचित्र बनते हैं। परदे पर एक सेकंड में 13 से लेकर 16 चित्र तक आते हैं और नेत्र उनका अलगाव नहीं देख सकते।
(2) दृष्टि किरणीयन : काले पर श्वेत अपेक्षाकृत बड़ा प्रतीत होता है। काली भूमि पर श्वेत आयत अपेक्षाकृत बड़ा दिखाई पड़ता है।
(3) दृष्टिबैषम्य : निकट पड़े पदार्थ एक दूसरे के वर्ण और चमक को प्रभावित करते हैं। एक वस्तु वास्तविकता से अधिक चमकीली या धुंधली प्रतीत होती है। लाल पर धूसर रंग हरा प्रतीत होता है।
(4) दृष्टि अनुविंब : पदार्थ नेत्र के सामने से हट जाने के बाद भी दिखाई देता रहता है। इसे अनुबिंब कहते हैं। अनुलोम प्रतिबिंब में वस्तु का प्रतिरूप दिखाई देता है और विलोम में उलटा रूप, अर्थात् सफेद के स्थान पर काला।
दृष्टितीक्ष्णता
यह दो अलग दिखाई पड़ने वाली वस्तुओं द्वारा अंतरित कोण का व्युत्क्रम है। कहाँ पर दो बिंदु अलग नहीं दिखाई पड़ते, इससे दर्शन कोण निकालते हैं और यह एक कला का होता है। दृष्टिपटल पर यह दूरी 4.5 माइक्रान होती है। गर्तिका स्थित एक शंकु का व्यास तीन माइक्रान होता है, अर्थात् दो निकट बिंदु दो भिन्न शंकु उद्दीप्त करते हैं। साधारणत: तीव्र दृष्टि वाले .00034 मिमि. की दूरी पर स्थित दो बिंदुओं को अलग अलग देख सकते हैं।
दृष्टितीक्ष्णता की परीक्षा परीक्षण चार्ट (स्नेलेंस टेस्ट चार्ट) से करते हैं। प्रत्येक अक्षर निश्चित दूरी पर एक कला का कोण बनाता है। इस प्रकार 60, 36, 28, 18, 9, 6 तथा 5 मीटर की दूरियों के अक्षर छापे जाते हैं। नेत्र से 6 मीटर की दूरी पर चार्ट रख कर पढ़े जाते हैं। स्वस्थ नेत्र 6 की पंक्ति पढ़ लेता है। प्रकाश, उद्दीपन का ढंग, चमक का वैषम्य, देखने की अवधि, वर्तन के दोष आदि तीक्ष्णता को प्रभावित करते हैं।
वर्णबोध
नेत्र रंगबिरंगी दुनिया कैसे देखते हैं? इस बात को समझने से पहले यह समझना आवश्यक है कि रंगबिरंगी प्रकाश किरण और कलाकार की तूलिका के रंग में भेद है। नीले पीले रंगों के चूर्ण मिलने पर हरा रंग बनता है, पर नीली पीली किरणें श्वेत प्रकाश बनाती है। रंग चूर्ण श्वेत किरण के कुछ अंश सोख लेते हैं, जैसे नीला चूर्ण नीली और हरी किरणें छोड़ बाकी सब सोख लेता है और पीला चूर्ण पीली और हरी किरणें नहीं सोखता। यही कारण है कि मिश्रण से केवल हरी किरणें ही लौटती हैं।
हमारे नेत्र इंद्रधनुष में 150 वर्ण देख सकते हैं, या यों कहिए कि 400 से 750 मिलीम्यू की प्रकाश तरंगों में कम से कम 3 मिलीम्यू का अंतर पहचान सकते हैं। यंग हेल्महोल्ट्ज़ ने बताया कि तीन मूल वर्ण होते हैं : लाल, हरा और नीला तथा इनके मिश्रण से अन्य वर्णो का बोध होता है।
वर्णबोध शंकु द्वारा होता है। अतएव इस सिद्धांत के अनुसार तीन प्रकार के शंकु हुए और तीनों ही एक साथ उद्दीप्त हों तो श्वेत का बोध होता है। पर इस सिद्धांत से काला कैसे दिखता है तथा वर्णांधता, वर्णअनुविंब आदि, का समाधान नहीं होता। हेरिंग ने छ: प्रकार के ग्राहकों तथा हार्टरिज ने सूक्ष्म उद्दीपन प्रयोग के आधार पर सात प्रकार के ग्राहकों का सिद्धांत रखा है। हाल में ग्रेनिट ने पशुओं पर मनोरंजक प्रयोग किए। उसने गुच्छिका कोशों में सूक्ष्म इलेक्ट्रोड संनिविष्ट किए और विभिन्न प्रकाश्तरंगों के प्रति प्रत्येक इकाई की सुग्राहिता का अंकन किया। उसे तीन प्रकार की इकाईयाँ मिलीं, जो नीले (450-470), हरे (520-540) और पीत-लाल (580-600) से प्रभावित होती हैं। ग्रेनिट ने इन्हें अल्पप्रभावी ग्राहक बताया और उसका अनुमान है कि विस्तृत स्थल ग्राहक भी होते हैं, अर्थांत् ऐसे शंकु जो संपूर्ण इंद्रधनुष से प्रभावित होते हैं।
वर्णांधता
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। सन् 1777 में हडर्ट ने प्रथम बार प्रिस्टले को लिखे गए पत्र में अपनी इस शोध का उल्लेख किया। यह पत्र रॉयल सोसायटी के समक्ष प्रस्तुत किया गया। अब यह ज्ञात हो चुका है कि सामान्य वर्णबोध से लेकर पूर्णांधता (सांध्य दृष्टि, जिसमें संसार धूसर रंग का दिखाई पड़ता है) तक सभी कोटि की वर्णबोध की कमी हो सकती है। इस दोष का कुछ विशेष पेशों, जैसे इंजन चालक, सिग्नलमैन आदि के लिए विशेष महत्व होता है। वर्णांधता में लाल या हरा न देखने वाले अधिक मिलते हैं। इसकी जाँच के लिए होमग्रेंस स्क्रींस ऊल, अर्थात् रंगीन ऊन के धागों का चुनाव, इशिहारा चार्ट (ऐसे चार्ट जिनमें रंगीन बिंदियों के अंक लिखे होते हैं) तथा एडरिख ग्रीन लैंटर्न (रंगीन शीशोंवाली लालटेन) आदि का उपयोग होता है।
द्विनेत्री दृष्टि
मानवी नेत्र की विशेषता है द्विनेत्री दृष्टि। दोनों ही नेत्रों के दृष्टिपटल पर जो प्रतिबिंब बनता है, वह तदनुरूप होता है। इस कारण दो आँखें अलग अलग नहीं देखतीं और हम हर चीज दो देखने से बच जाते है। द्विनेत्री दृष्टि के कारण दृष्टिक्षेत्र का विस्तार होता है, साथ ही गहराई और दूरी का बोध होता है। अब इसी सिद्धांत के आधार पर त्रिविमितीय फिल्में बनने लगी हैं। नेत्र में भेंगापन होने पर द्विनेत्री दृष्टि का लाभ नहीं मिलता। आरंभ में हर वस्तु दो दिखाई पड़ती हैं, जिससे उलझन होती है और फलस्वरूप ए आँख देखना बंद कर देती है।
भेंगापन
वर्तन दोष या पेशी की कमजोरी से भेंगापन (squint) हो सकता है। वर्तनदोष चश्में से या शल्य से ठीक हो सकता है और पेशी दोष के लिए व्यायाम या शल्यक्रिया भी करनी पड़ती है। 3 से 5 वर्ष की उम्र में व्यायाम कारगर होता है। दस डिग्री तक भेंगापन चश्मे या व्यायाम से ठीक हो सकता है। बीस डिग्री के भेंगेपन के लिए शल्यचिकित्सा करनी पड़ती है। आठ वर्ष की उम्र के बाद चिकित्सा कठिन हो जाती है। नेत्र व्यायाम में भेंगी आँख से देखना (अच्छी आँख मूँदकर), स्टीरियॉस्कोप से यंत्रों का उपयोग आदि किया जाता है।gdfdfg
दृष्टिपथ
नेत्र तो केवल प्रकाश का बिंब ग्रहण कर लेते हैं, किंतु वास्तविक दृष्टिज्ञान तो मस्तिष्क में होता है। नेत्ररचना में बताया जा चुका है कि दृष्टिपटल के तंत्रिका रेशे दृष्टितंत्रिका बनाते हैं। दोनों नेत्रों की दृष्टितंत्रिकाएँ पीछे की ओर चलती हैं और आपस में मिलकर अक्षिस्वस्तिक बनाती हैं। यहाँ दृष्टिपटल से नासार्ध के रेशे विपरीत दिशा में क्रॉस कर जाते हैं, किंतु शंखार्ध के रेशे उसी ओर आगे बढ़ते हैं।
इस प्रकार स्वस्तिक से आरंभ होने वाले बाएँ अक्षिपथ में दोनों दृष्टिपटलों के वामार्ध के और दाएँ में दक्षिणार्ध के रेशे होते हैं। गर्तिका से आनेवाले रेशों का भी इसी प्रकार वितरण होता है। अक्षिपथ दो स्थलों तक जाता है, (1) ऊर्ध्ववप्र (सुपीरियर काली कूलस) तक, जहाँ दृष्टि प्रतिवर्त के केंद्र हैं, तथा (2) पार्श्व वक्रपिंड तक, जहाँ से नयी रिलें आरंभ होती हैं जो पश्चकपाल कॉटेंक्स में अक्षिविकिरण बनाती हैं। ये रेशे आंतर संपुट से होकर गुजरते हैं। इस प्रकार मस्तिष्क के प्रत्येक पश्चकपाल खंड से आधी दृष्टि प्राप्त होती है। अक्षिपथ में एक तिहाई रेशे गर्तिका के होते हैं, अतएव मस्तिष्क में भी गर्तिका से प्राप्त संवेदना को अधिक स्थान मिलता है।
दृष्टिक्षेत्र
बिना आँख या सर हिलाए आप कितना क्षेत्र देख सकते हैं, यह परिमापी (पेरिमीटर) द्वारा अंकित किया जा सकता है। प्रत्येक नेत्र बाहर की ओर 104 डिग्री, ऊपर 55 डिग्री, नीचे 75 डिग्री और नासा की ओर 55 डिग्री का क्षेत्र देख सकता है। दोनों नेत्र मिलकर अधिक बड़ा क्षेत्र देखते हैं। दृष्टिक्षेत्र का लोप भी होता है, अतएव इस नापजोख से दृष्टिपथ में होनेवाले दोषों का पता चल जाता है, यथा बायाँ अक्षिपथ यदि कट जाए तो दोनों नेत्रों का बायाँ दृष्टिक्षेत्र लुप्त हो जाएगा। एक आख से 150डिग्री तथा दोनो आख से 180 डिग्री देखा जा सकता है
नेत्ररोग
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
शरीर के अन्य अंगों की भाँति नेत्र भी रोगग्रस्त होते हैं। वर्तन के दोष, वर्णांधता, दृष्टिक्षेत्र को हानि, भेंगापन आदि की चर्चा की जा चुकी है। नीचे संक्षेप में अन्य रोगों की चर्चा की जाती है।