महाराष्ट्री प्राकृत

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महाराष्ट्री प्राकृत उस प्राकृत शैली का नाम है जो मध्यकाल में महाराष्ट्र प्रदेश में विशेष रूप से प्रचलित हुई। प्राचीन प्राकृत व्याकरणों में - जैसे चंडकृत प्राकृतलक्षण, वररुचि कृत प्राकृतप्रकाश, हेमचंद्र कृत प्राकृत व्याकरण एवं त्रिविक्रम, शुभचँद्र आदि के व्याकरणों में - महाराष्ट्री का नामोल्लेख पाया जाता है। इस नाम का सबसे प्राचीन उल्लेख दंडीकृत काव्यादर्श (6ठी शती ई) में हुआ है, जहाँ कहा गया है कि "महाराष्ट्रीयां भाषां प्रकृष्टं" प्राकृत विदु:, सागर: सूक्तिरत्नानां सेतुबंधादि, यन्मयम्।" अर्थात् महाराष्ट्र प्रदेश आश्रित भाषा प्रकृष्ट प्राकृत मानी गई, क्योंकि उसमें सूक्तियों के सागर सेतुबंधादि काव्यों की रचना हुई।

दंडी के इस उल्लेख से दो बातें स्पष्ट ज्ञात होती हैं कि प्राकृत भाषा की एक विशेष शैली महाराष्ट्र प्रदेश में विकसित हो चुकी थी और उसमें सेतुबँध तथा अन्य भी कुछ काव्य रचे जा चुके थे। प्रवरसेन कृत "सेतुबंध" काव्य सुप्रसिद्ध है, जिसकी रचना अनुमानत: चौथी पाँचवीं शती की है। इसमें प्राकृत भाषा का जो स्वरूप दिखाई देता है उसकी प्रमुख विशेषता यह है कि शब्दों के मध्यवर्ती क् ग् च् ज् त् द् प् ब् य् इन अल्पप्राण वर्णों का लोप होकर केवल उनका संयोगी स्वर (उद्वृत्त स्वर) मात्र शेष रह जाता है। जैसे मकर ऊ मअर, नगर ऊ नअर, निचुल ऊ निउल, परिजन ऊ परिअण, नियम ऊ णिअम, इत्यादि।

भाषा-विज्ञान-विशारदों का मत है कि प्राकृत भाषा में यह वर्ण लोप की विधि क्रमश: उत्पन्न हुई। आदि में क् च् त् इन अघोष वर्णों के स्थान में क्रमश: संघोष ग् ज् द् का आदेश होना प्रारंभ हुआ। यह प्रवृत्ति साहित्यिक शौ. प्रा. में उपलब्ध होती है। विद्वानों के मतानुसार ईसवी द्वितीय शती के लगभग उक्त वर्णों के लोप होने की प्रवृत्ति आरंभ हुई और शीघ्र ही अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई।

इस व्यंजनलोप तथा महाप्राण वर्णों के स्थान पर ह् के आदेश से भाषा में विशेष कोमलता तथा लालित्य उत्पन्न हुआ। इसी कारण कालांतर में ऐसी धारणा भी उत्पन्न हो गई कि गद्य शौ. प्रा. में और पद्य महा. प्रा. में लिखा जाए।

प्राकृत रचनाओं के कुछ संपादकों ने इसी धारणानुसार प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों के साक्ष्य के विरुद्ध भी गद्य में शौ. और पद्य में महाराष्ट्री प्रा. की शैलियाँ अपनाई हैं। इसका एक विशेष उदाहरण कोनो द्वारा संपादित कर्पूरमंजरी सट्टक है, जिसकी प्रस्तावना में उन्होंने स्वयं कहा है कि गद्य पद्य की शैलियों का एक आदर्श उपस्थित करने के हेतु उन्होंने कोई एक दर्जन प्राचीन प्रतियों के पाठ के विरुद्ध भी गद्य में शौ. और पद्य में महा. के अनुरूप पाठ रखने का प्रयत्न किया है। किंतु है यह बात प्राकृत व्याकरणों एवं नाटकों की परंपरा के विरुद्ध है। संस्कृत नाटकों में प्राकृत का सबसे अधिक प्रयोग तथा वैचित्र्य मृच्छकटिक नाटक में पाया जाता है। इस नाटक के टीकाकार पृथ्वीधर ने पात्रों के अनुसार प्राकृत भेदों का निरूपण किया है। किंतु वहाँ उन्होंने महराष्ट्री का कहीं नाम नहीं लिया। उन्होंने यह संकेत अवश्य किया है कि महा. प्रा. का केवल काव्य में ही प्रयोग किया जाता है, नाटक में नहीं।

महाराष्त्री प्राकृत के सर्वोत्कृष्ट काव्य प्रवरसेन कृत सेतुबंध का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इसमें 15 आइवास हैं, जिनमें किष्किंधा में राम की वियोगावस्था से लेकर रावणवध तक रामायण का कथाभाग काव्यरीति से वर्णित है। इसका दूसरा नाम रावणवध भी पाया जाता है। महा. प्रा. की दूसरी उत्कृष्ट रचना है गाथासप्तशती, जिसका उल्लेख महाकवि बाण ने हर्षचरित में कोश के नाम से किया है। इसके मूलकर्ता हाल या सातवाहन हैं, जो आंध्रभृत्य राजवंश के एक नरेश थे (लगभग दूसरी, तीसरी शती ई)। किंतु इसे सप्तशती का रूप क्रमश: प्राप्त हुआ, ऐसा अनुमानित होता है; क्योंकि इसकी अनेक गाथाओं के कर्त्ताओं के नामों में चौथी पाँचवीं शती के कवियों के भी उल्लेख हैं। काव्य कल्पना, नरनारियों के भावों की अभिव्यक्ति तथा लोकजीवन के चित्रण की दृष्टि से इसकी गाथाएँ अद्वितीय हैं। महा. प्रा. का तीसरा महाकाव्य वाक्पतिराज कृत गउडवहो (गौडवध) है। इसका रचनाकाल 7वीं, 8वीं शती ई सिद्ध होता है। काव्य में लगभग 1200 गाथाएँ हैं और इनमें यशोवर्मा की विजययात्रा व उनके द्वारा गौड नरेश के वध का वृत्तांत वर्णित है। महा. प्रा. का उपयोग जैन कवियों ने भी पुराण, चरित्, प्रबंध आदि रचनाओं में विपुलता से किया है। किंतु उनकी अपनी भाषात्मक विशेषता है, जिसके कारण उनकी भाषा को 'जैन महाराष्ट्री' कहा गया है। यथार्थत: उनकी रचना की भाषा वहीं प्राकृत मान्य है जिसका निरूपण वररुचिहेमचंद्र आदि ने अपने व्याकरणों में अर्थ प्राकृतम् कहकर किया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ

  • हेमचंद्र जोशी कृत पिशल के जर्मन ग्रंथ का अनुवाद--प्राकृत भाषाओं का व्याकरण;
  • विंटरनित्य--इंट्रोडक्शन टु प्राकृत।