भ्रंश (भूविज्ञान)
भूपटल के भौगोलिक प्लेटें दबाव या तनाव के कारण संतुलन की अवस्था में नहीं रहती। जब भी प्लेटों में खिंचाव अधिक बढ़ जाता है, अथवा शिलाओं पर दोनों पार्श्व से पड़ा दबाव उनकी सहन शक्ति के बाहर होता है, तब शिलाएँ अनके प्रभाव से विस्थापित हो जाती हैं अथवा टूट जाती हैं। एक ओर की शिलाएँ दूसरी ओर की शिलाओं की अपेक्षा नीचे या ऊपर चली जाती हैं। इसे ही भ्रंश (Fault) कहते हैं।
परिचय एवं महत्व
क्षेत्र भौतिकी में भ्रंशों का विशेष महत्व है। भ्रंशों के परिणामस्वरूप कभी-कभी नीचे छिपे खनिज भंडार सतह पर आ जाते हैं। नीचे छिपे बहुत से कोयले के स्तरों का इसी प्रकार पता लगा है। इसके विपरीत कभी कभी अपरदन के कारण विगोपित भंडार नष्ट भी हो जाते हैं। सोपानभ्रंशों में जलप्रवाह से बड़े बड़े प्रपातों की रचना होती हैं, जिनसे विद्युत् उत्पन्न की जाती है। बहुत से भ्रंश समतल झरनों के उद्गम स्थान भी हैं, आभ्यंतरिक जल इनके द्वारा ही सतह पर आता है।
क्षेत्र में भ्रंशों का पता लगाना भूविज्ञानी के लिये कोई दुरूह कार्य नहीं है। भ्रंश के स्थान पर की शिलाएँ चिकनी होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों उनपर पॉलिश की गई हो। इसके अतिरिक्त स्तरों का अचानक लुप्त हो जाना, या एक ही से स्तरों का दो बार मिलना, भ्रंश सकोणश्म (ब्रैशिया) की उपस्थिति आदि भ्रंशों को पहचानने के अन्य साधक चिन्ह हैं। पर केवल कोई भूविज्ञानी ही इन चिन्हों का उचित अर्थनिर्णय कर सकता है, क्योंकि कभी कभी विभिन्न रचनाओं में समान चिन्ह दिखाई देते हैं।
प्रकार
वह समतल, जिसपर से शिलाएँ टूटती हैं, भ्रंश समतल कहलाता है। भ्रंश समतल ऊर्ध्वाधर न होकर एक ओर को झुका रहता है। ऊर्ध्वाधर समतल से भ्रंश समतल का जितना झुकाव होता है, वह उसका उन्नमन (hade) कहलाता है। भ्रंश समतल और क्षैतिज समतल के बीच का कोण भ्रंश का नमन (dip) कहलाता है। भ्रंश के प्रभाव में शिलाओं का विस्थापन होता है। लंबवत् विस्थापन को ऊर्ध्वाधर विस्थापन तथा क्षैतिज दिशा में विस्थापन को क्षैतिज विस्थापन कहते हैं। भ्रंश के परिणमस्वरूप जो भाग अपेक्षाकृत ऊपर रहता है, उसे उत्क्षेप कहते हैं तथा जो भाग अपेक्षाकृत नीचे आता है वह अध:क्षेप कहलाता है।
भ्रंश कई प्रकार के होते हैं। उनमें से मुख्य नीचे दिए गए हैं: वह भ्रंश, जिसमें एक ओर की शिलाएँ अपने मूल स्थान से अपेक्षाकृत नीचे की ओर चली जाती हैं, अनुक्रम भ्रंश कहलाता है। इसके विपरीत कभी कभी एक ओर की शिलाएँ मूल स्थान से ऊपर की ओर चढ़ जाती हैं। इसे उत्क्रमभ्रंश कहते हैं।
यदि भ्रंश के प्रभाव में शिलाओं का विस्थापन नमन दिशा की ओर होता है, अर्थात् नमन दिशा के समांतर होता है, तो इसे नमन भ्रंश तथा नमन से लंब दिशा में होने पर उसे अनुदैर्ध्यभ्रंश की संज्ञा दी जाती है। पर यदि भ्रंश न तो नमन दिशा की और और न नमन से लंब दिशा के अनुकूल हो, तो इसे तिरछा य तिर्यक् भ्रंश कहते हैं। कभी कभी शिलाओं में एक के बाद दूसरा, फिर तीसरा, इस प्रकार कई भ्रंश होते हैं। यदि इन भ्रंशों के उन्नमन की दिशा एक ही ओर को होती हैं, तो सीढ़ी (सोपान) के आकार की रचना बन जाती है। इन भ्रंशों को सोपानभ्रंश नाम दिया गया है। यदि दो भ्रंशों का उन्नमन एक दूसरे की ओर होता है, तो दोनों भ्रंशों के बीच का भाग अपेक्षाकृत नीचे चला जाता है। इसे द्रोणिकाभ्रंश कहते हैं।
इसके विपरीत भ्रंशोत्य (horst) में भ्रंशों का उन्नमन विपरीत दिशा में होता है फलस्वरूप दोनों भ्रंशों के बीच का भाग एक कूटक के समान ऊपर उठा दिखाई पड़ता है।