भाषाई साम्राज्यवाद

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

भाषिक साम्राज्यवाद या भाषाई साम्राज्यवाद (Linguistic imperialism) उस स्थिति को कहते हैं जिसमें किसी सबल राष्ट्र की भाषा किसी निर्बल राष्ट्र की शिक्षा और शासन आदि विविध क्षेत्रों से देशी भाषा (ओं) का लोप कर देती है। इसके लिये घोषित या अघोषित रूप से एक ऐसी व्यवस्था उत्पन्न करके जड़ जमाने दी जाती है जिसमें उस विदेशी भाषा को ना बोलने और जानने वाले लोग दूसरे दर्जे के नागरिक के समान होने को विवश हो जाते हैं।

अंग्रेज़ी भाषा का साम्राज्यवाद

फिलिपिंसन ने अंग्रेज़ी भाषा के साम्राज्यवाद की परिभाषा इस प्रकार की है:

the dominance asserted and maintained by the establishment and continuous reconstitution of structural and cultural inequalities between English and other languages.
(संस्थापना द्वारा प्रभुत्व पर बल देना और उसे बनाए रखना और अंग्रेज़ी तथा अन्य भाषाओं के मध्य लगातार पुनर्गठन द्वारा संरचनात्मक और सांस्कृतिक असमानता को बनाए रखना।)

फिलिप्सन का उपरोक्त सिद्धान्त अंग्रेज़ी के अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में ऐतिहासिक प्रसार की सटीक व्याख्या करता है। साथ ही यह इस तथ्य की व्याख्या करता कि क्यों भारत, पाकिस्तान, युगाण्डा, ज़िम्बाब्वे आदि देशों में स्वतन्त्र होने के पश्चात भी अंग्रेज़ी का प्रभुत्व बना हुआ है?

भाषाई-साम्राज्यवाद के शस्त्र एवं उपकरण

भाषाई-साम्राज्यवाद फैलाने का सबसे सशक्त और ऐतिहासिक उपकरण राजनैतिक साम्राज्य है। दक्षिण एशिया में अंग्रेज़ी भाषा का साम्राज्य तथा अफ़्रीका के अनेक देशों में फ़्रांसीसी का साम्राज्य राजनैतिक साम्राज्य में निहित शक्तियों के दुरुपयोग का ही परिणाम है। किन्तु इसके साथ-साथ भाषाई-साम्राज्य को बनाए रखने और सतत् प्रसार को सुनिश्चित करने के लिये मिथ्या-प्रचार, अर्धसत्य, दुष्प्रचार आदि का सहारा लिया जाता है। इसके अतिरिक्त यह सुनिश्चित किया जाता है कि रोज़गार पाने के लिये आरोपित भाषा का अच्छा ज्ञान अनिवार्य हो। इसके लिये एक अल्पसंख्यक अभिजात वर्ग तैयार किया जाता है जो इस भाषा का दुरुपयोग करके शेष समाज का शोषण करता रहे तथा वह वर्ग जाने-अनजाने इस विदेशी भाषा का हित साधन करता रहता है

पिलिप्सन की पुस्तक में इस बात का विश्लेषण है कि किस प्रकार ब्रिटिश काउन्सिल तथा अन्य संस्थाएँ भ्रामक-प्रचार (रिटोरिक) का प्रयोग करके अंग्रेज़ी साम्राज्य को बढ़ावा देती है। इन भ्रमजालों के कुछ नमूने हैं :

  • अंग्रेज़ी-शिक्षण का सर्वोत्तम तरीका उसे एकभाषीय रूप से पढ़ाना है। (एकभाषीय भ्रम)
  • अंग्रेज़ी शिक्षण के लिये आदर्श अध्यापक वही है जिसकी मातृभाषा अंग्रेज़ी हो। (मातृभाषी भ्रम)
  • जितनी कम आयु से अंग्रेज़ी सिखायी जाय, परिणाम उतने ही अच्छे होंगे। (शीघ्रारम्भ भ्रम)
  • जितनी अधिक अंग्रेज़ी पढा़यी जाएगी, परिणाम उतना ही अच्छा होगा। (अधिकतम-अनावरण भ्रम)
  • यदि अन्य भाषाओं का अधिक प्रयोग किया जायेगा तो, अंग्रेज़ी का स्तर गिरेगा। (व्यकलित भ्रम)

अंग्रेज़ी भाषा के विषय में विविध माध्यमों से अर्धसत्यों से मिश्रित प्रचार को फैलाया जाता है:

  • अंग्रेज़ी को दैवी, धनी, सभ्य और रोचक बताया जाता है। ऐसा प्रतीत कराया जाता है कि दूसरी भाषाएँ इन गुणों से हीन हैं।
  • अंग्रेज़ी में प्रशिक्षित अध्यापक एवँ शिक्षा-सामग्री के भरपूर उपलब्धता की बात कही जाती है।

अंग्रेज़ी के बारे में कुछ कथन उसके उपयोगिता और महत्व का अतिशयोक्तिपूर्ण प्रचार करते हुए दिये जाये हैं; जैसे:

  • अंग्रेज़ी विश्व का प्रवेशद्वार है।
  • अंग्रेज़ी लोगों को प्रौद्योगिकी के संचालन में सक्षम बनाती है।
  • अंग्रेज़ी आधुनिकता का प्रतीक है।

भाषाई साम्राज्यवाद के दुष्परिणाम एवँ हानियाँ

  • भाषाई-साम्राज्य का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि स्वदेशी भाषा (एँ) एवँ बोलियाँ उपेक्षित हो जातीं हैं। कुछ मामलों में उनके लुप्त होने का प्रबल खतरा भी उपस्थित हो जाता है।
  • साम्राज्यवादी भाषा एक अल्पसंख्यक, अभिजात्य, शोषक वर्ग उत्पन्न करती है।
  • साम्राज्यवादी भाषा (जैसे, अंग्रेज़ी) शोषण के हथियार के रूप में प्रयुक्त होती रहती है।
  • अभिजात वर्ग, साम्राज्यवादी भाषा का उपयोग आम जनता से दूरी बनाकर अनुचित लाभ लेने के लिये करता है। (जैसे - धौंस जमाने के लिये)
  • समाज के पिछड़े और उपेक्षित लोगों को उनकी प्रतिभा के पश्चात भी रोज़गार मिलने में कठिनाई होती है क्योंकि उनके सामाजिक पर्यावरण के कारण एक विदेशी भाषा के स्थान पर वे स्वभाषा में प्रवीण होते हैं। इससे समाज में समानता आने के स्थान पर असमानता की खाई बनती जाती है।
  • विदेशी भाषा के उपयोग की विवशता के कारण समाज में विचार-विनिमय सम्यक प्रकार से नहीं हो पाता। कुछ-कुछ स्थितियों में (साम्राज्यवादी) भाषा का उपयोग संवाद को बढ़ावा देने के स्थान पर संवाद का हनन करने के लिये भी किया जाता है।
  • शिक्षा में विदेशी भाषा के प्रचलन से विद्यार्थियों में समझने के स्थान पर रटने की प्रवृति बढ़ती है। इससे मौलिक चिन्तन करने वाले देशवासियों के स्थान पर अन्धानुकरण करने वाले (नकलची) अधिक उत्पन्न होते हैं।
  • विदेशी भाषा में अनावश्यक रूप से निपुणता लाने के लिये समय बर्बाद करना पड़ता है जिसे किसी अन्य सृजनात्मक कार्य के लिये उपयोग में लाया जा सकता था।
  • दीर्घ अवधि में समाज अपनी संस्कृति और जड़ से ही कट जाता है।
  • समाज में हीनभावना आ जाती है।
  • सारा समाज भाषा जैसी महान चीज़ की अस्वाभाविक स्थिति के कारण परेशानी उठाता है।

इनें भी देखें

टिप्पणियाँ

सन्दर्भ

  • Bisong, Joseph (1995 [1994]) .Language Choice and cultural Imperialism: a Nigerian Perspective.. ELT Journal 49/2 122—132.
  • Bobda, Augustin Simo (1997) «Sociocultural Constraints in EFL Teaching in Cameroon.» In: Pütz, Martin (ed.) The cultural Context in Foreign Language Teaching. Frankfurt a.M.: Lang. 221—240.
  • Canagarajah, Suresh (1999), Resisting Linguistic Imperialism in English Teaching, Oxford University Press. ISBN 0-19-442154-6
  • Crystal, David (2003), English as a Global Language, 2nd ed., Cambridge University Press. ISBN 0-521-53032-6
  • Davies, Alan (1996) Review Article: ironising the Myth of Linguicism." Journal of Multilingual and Multicultural Development. 17/6: 485—596.
  • Davis, Alan (1997) «Response to a Reply.» Journal of Multilingual and Multicultural Development 18/3 248.
  • Holborrow, M. (1993) «Review Article: linguistic Imperialism». ELT Journal 47/4 358—360.
  • Holliday, Adrian, Martin Hyde & John Kullman (2004), Intercultural Communication, Routledge. ISBN 0-415-27061-8
  • Kontra, Miklos, Robert Phillipson, Tove Skutnabb-Kangas & Tibor Varady [eds.] (1999), Language: A Right and a Resource, Central European University Press. ISBN 963-9116-64-5
  • Klaire Kramsch and Particia Sullivan (1996) «Appropriate Pedagogy». ELT Journal 50/3 199—212.
  • Malik, S.A. Primary Stage English (1993). Lahore: Tario Brothers.
  • Pennycook, Alastair (1995), The Cultural Politics of English as an International Language, Longman. ISBN 0-582-23473-5
  • Pennycook, Alastair (1998), English and the Discourses of Colonialism, Routledge. ISBN 0-415-17848-7
  • Pennycook, Alastair (2001), Critical Applied Linguistics, Lawrence Erlbaum Associates. ISBN 0-8058-3792-2
  • Robert Phillipson (1992), Linguistic Imperialism, Oxford University Press. ISBN 0-19-437146-8
  • Robert Phillipson [ed.] (2000), Rights to Language, Lawrence Erlbaum Associates. ISBN 0-8058-3835-X
  • Punjab Text Book Board (1997) My English Book Step IV. Lahore: Metro Printers.
  • Rajagopalan, Kanavilli (1999) "Of EFL Teachers, Conscience and Cowardice. " ELT Journal 53/3 200—206.
  • Skutnabb-Kangas, Tove & Robert Phillipson [eds.]; Mart Rannut (1995), Linguistic Human Rights, Mouton De Gruyter. ISBN 3-11-014878-1
  • Spichtinger, Daniel (2000) The Spread of English and its Appropriation. University of Vienna, Vienna.
  • Henry Widdowson (1998a) « EIL: squaring the Circles. A Reply.» World Englishes 17/3 397—401.
  • Henry Widdowson (1998b) «The Theory and Practice of Critical Discourse Analysis.» Applied Linguistics 19/1 136—151.

बाहरी कड़ियाँ