भाप टरबाइन
भाप टरबाइन (steam turbine) वह यांत्रिक युक्ति है जो दाबित भाप से ऊष्मीय ऊर्जा निकालकर इसे यांत्रिक कार्य में बदलती है। आधुनिक रूप में इसका आविष्कार सर चार्ल्स पैर्सन्स ने 1884 में किया था।
भाप टरबाइन (Steam Turbine) एक मूलचालक (prime mover) है, जिसमें भाप की उष्मा-ऊर्जा को गतिज उर्जा में परिवर्तित कर, उच्च गतिशील भाप को एक घूर्णक (rotor) पर बँधे हुए बहुत से फलकों पर टकराया जाता है, जिससे फलक परिभ्रमण करते हैं एवं इससे कार्य होता है। अन्योन्यगतिक (reciprocating) भाप इंजन में भाप की स्थैतिक (statical) दाब द्वारा पिस्टन पर कार्य किया जाता है। यद्यपि इंजन में भाप पिस्टन के साथ चलती है, फिर भी इंजन की क्रिया में भाप की गतिज उर्जा का प्रभाव नगणय है। भाप टरबाइन में भाप इंजन की अपेक्षा उच्चतर गति मिल सकती है और गतिसीमा भी बड़ी हा सकती है। टरबाइन के पुर्जों का संतुलन अच्छा रहता है। भाप की समान मात्रा एवं समान अवस्था में भाप टरबाइन भाप इंजन से अधिक शक्ति पैदा कर सकता है। भाप इंजन से कुछ वर्ष काम लेने के बाद भाप की खपत बढ़ जाती है, परंतु टरबाइन में ऐसी अवस्था नहीं आती पृथ्वी पर के सभी मूल चालकों में भाप टरबाइन सबसे अधिक टिकाऊ होता है। टरबाइन से सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि इससे घूर्णक गति सीधे प्राप्त होती है, जबकि भाप इंजन में अन्योन्यगति से घूर्णक गति प्राप्त करने के लिए अलग से उपादान का व्यवहर करना पड़ता है।
वाष्पित्र (बॉयलर) में भाप का जनन उच्च दाब एवं अधिताप (superheat temperature) पर होता है। जब यह भाप टरबाइन के पास पहुँचती है, उस समय इसमें अधिक मात्रा में उष्मा ऊर्जा होती है और इसकी दाब भी इतनी अधिक होती है कि यह निम्नदाब तक प्रसारित हो सकती है। परंतु उस समय इसकी गतिज उर्जा नगण्य होती है। अत: भाप कुछ कार्य कर सके इसके पहले इसकी उष्मा ऊर्जा को गतिज उर्जा में परिवर्तित किया जाता है। यह परिवर्तन, अच्छी तरह अभिकल्पित उपकरण में, भाप को विस्तारित करने से होता है। भाप का प्रसार या तो एक ही क्रिया में पूर्ण किया जाता है, या विभिन्न क्रियाओं में। इसका अर्थ यह होता है कि उष्मा ऊर्जा को गतिज ऊर्जा में परिवर्तित करने के लिए बहुत से स्थिर उपकरण व्यवहार में लाए जाते हैं और प्राय: दो स्थिर उपकरणों के बीच एक गतिमान उपकरण लगा रहता है। स्थिर उपकरण में प्राप्त गतिज ऊर्जा को उसके बाद बँधे हुए गतिमान उपकरण के ऊपर कार्य करने के लिये लगाया जाता है।
संक्षिप्त इतिहास
विश्व का सर्वप्रथम घूर्णन इंजन सन् 50 ई. में ऐलेक्जैंड्रिया के हीरो ने बनाया था। इसमें दो कीलकों (pivots) के बीच एक खोखली गेंद लगी थी। टरबाइन के निचले भाग में भाप बनाने के लिए बरतन रखा हुआ था, जिससे भाप उस गेंद में प्रवेश कर सकती थी। वहाँ से भाप गेंद में लगी हुई दो त्रैज्य (radial) नलिकाओं द्वारा बाहर आती थी इसी के कारण गेंद घूमती रहती थी। यह टरबाइन बहुत ही साधारण था। हीरो के टरबाइन के आधार पर बहुत से वैज्ञानिकों ने इसके विकास के लिए अन्वेषण किए। तब से विभिन्न अभिकल्प के टरबाइन बनाए गए, किंतु वे सभी नमूने के रूप में ही रहे। उन टरबाइनों को व्यवहार में लाना लाभदायक नहीं समझा गया। सर्वप्रथम सफल टरबाइन गियोवन्नी व्रांका ने 1629 ई. में बनाया था। यह पहला आवेग टरबाइन था।
भाप टरबाइन के प्रकार
भाप टरबाइन मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं:
आवेग (impulse) टरबाइन
इस टरबाइन में सिर्फ तुंड (nozzle) में भाप प्रसारित होती है। गतिमान फलकों से होकर गुजरने में भाप की दाब में कुछ भी परिवर्तन नहीं होता, अर्थात् फलकों के प्रवेश और निकास सिरे पर भाप की दाब समान ही रहती है। भाप, गतिमान फलकों की कई पंक्तियों से होकर, प्रवाहित होती है और इस प्रवाह में गतिज ऊर्जा का परिवर्तन उपयोगी कार्य के रूप में होता है। इस तरह के टरबाइनों में प्रथम सफल टरबाइन डी लाबाल (De laval) का टरबाइन था यह एक आवेगचक्र है, जिसके ऊपर परिधि पर लगे हुए तुंडों से भाप निकलकर टकराती है। भाप तुंड में पूर्णत: विस्तारित होती है। ये तुंड चक्र की स्पर्शरेखा से 150 से 200 तक के कोण पर झुके रहते हैं। सबसे छोटा डी लावाल टरबाइन 5 इंच व्यास वाले चक्र का बनाया गया था और यह 30,000 परिक्रमण प्रति मिनट पर चलाया गया था। यह निम्न दाब भाप के लिए उपयुक्त है। इस तरह के टरबाइन के फलकों के प्रवेश एवं निकास कोण समान होते हैं।
आवेग प्रतिक्रया टरबाइन (Impulse-Reaction Turbine)
इस प्रकार के टरबाइन में भाप का पूर्ण रूप से प्रसार एक क्रिया में नहीं होता। प्रथम स्थिर पंक्ति से निकलकर भाप गतिमान फलक पर टकराती है। जैसे जैसे भाप फलकों से होकर प्रवाहित होती है, वैसे वैसे इसका प्रसार होता जाता है। अत: इस तरह के टरबाइन में फलक तुंड का भी काम करता है। गतिमान फलकों द्वारा भाप के प्रसारित किए जाने पर भाप की गतिज उर्जा में कुछ वृद्धि हो जाती है। इस तरह इसके फलक कार्य करने के साथ ही साथ भाप का प्रसार भी करते हैं। इन फलकों को साथ ही साथ प्रेरित एवं प्रतिक्रिया बलों का सामना करना पड़ता है। इसी लिए इस तरह के टरबाइन को 'आवेग प्रतिक्रया टरबाइन' कहते हैं। वस्तुत: यह नामकरण अशुद्ध है, क्योंकि केवल शुद्ध प्रतिक्रिया टरबाइन नाम का कोई भी टरबाइन नहीं होता। इस तरह के टरबाइन के दो मुख्य उदाहरण हैं:-
पारसन का टरबाइन
1884 ई. में पारसन ने प्रथम आवेग प्रतिक्रया टरबाइन बनाया था। इसमें भाप, टरबाइन चक्र के अक्ष के समानांतर दिशा में फलकों से होकर, प्रवाहित होती है। इस तरह के टरबाइन को अक्षप्रवाह टरबाइन (Axial Flow Turbine) भी कहते हैं। पारसन टरबाइन में स्थित और गतिमान फलक सर्वसम बनाए जाते हैं।
लजुंग्सट्रोम (Ljungstrom) टरबाइन
इस टरबाइन में फलक त्रैज्य दिशा में लगे रहते हैं, जिससे भाप चक्र के अक्ष के निकट फलक के सिरे पर प्रवेश करती है और परिधि की ओर प्रवाहित होती है। इसके कारण इस टरबाइन में प्रवाह त्रैज्य होता है। इसके सिवाय इसमें एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि दोनों तरह के फलक विपरीत दिशाओं में चलते हैं, जिससे उच्च आपेक्षिक वेग प्राप्त होता है।
भाप टरबाइन के यांत्रिक लक्षण
साधारणत: भाप टरबाइन में अग्रलिखित पुर्जे लगे रहते हैं:
- (1) टोंटी, जिसमें भाप उच्च दाब से निम्न दाब पर प्रसारित होकर उच्च गति प्राप्त करती है;
- (2) गतिमान फलक, जिसके ऊपर टोंटी या स्थिर फलक से निकली हुई भाप टकराती है एवं इससे कार्य होता है;
- (3) स्थिर फलक, जो भाप का निकास किसी खास कोण पर करके अगले गतिमान फलक की और भेजता है;
- (4) घूर्णक, जिसके ऊपर गतिमान फलकों की पंक्तियाँ रहती हैं। घूर्णक को फलकों के ऊपर एवं स्वयं अपने ऊपर पड़नेवाले अपकेंद्रित वालों का सामना करना पड़ता है;
- (5) नम्य ईषा (flexible shaft) जो घूर्णक को सहारा देती है और टरबाइन में उत्पन्न शक्ति को संचारित करती है;
- (6) बेयरिंग (bearing), जो ईषा को सहारा देता है;
- (7) गियर, (gear) जो घूर्णक की उच्चगति को व्यवहार में लाने लायक गति में परिवर्तित करता है,
- (8) आवरण (casing), जिसके ऊपर स्थिर फलकों की पंक्तियाँ बँधी रहती हैं। गतिमान फलकों सहित परिभ्रमक को यह ढके रहता है, जिसस भाप बीच में ही बाहर न निकल जाय।
टरबाइन फलक
भाप टरबाइन में सबसे मुख्य इसके फलक हैं। इस यंत्र के अन्य पुर्जे इन्हीं फलकों के उपयोग के लिए रहते हैं। बिना फलक के शक्ति प्राप्त नहीं हो सकती एवं फलकों में जरा सा भी दोष रहने से टरबाइन की दक्षता में कमी आ जाती है। इसके निर्माण के लिए ऐसे द्रव्यों की आवश्यकता होती है जो उच्चताप के साथ ही उच्च प्रतिबल का भी सामना कर सकें। आधुनिक उच्च ताप और उच्च प्रतिबल वाले टरबाइनों के फलकों के लिये अलौह वर्ग के द्रव्यों का व्यवहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ताप के साथ इनकी तनाव क्षमता में भी कमी आ जाती है। आजकल इसके लिये अविकारी इस्पात के विकास की ओर वैज्ञानिकों का ध्यान केंद्रित है। आदर्श फलक वही है जो उच्चतम दक्षता का होते हुए एक समान प्रतिबलित (stressed) हो। इस तरह की अवस्था खोखले फलकों द्वारा प्राप्त की जा सकती है। इसके सिवाय खोखले फलक परिभ्रमक पर तीव्र प्रतिबल नहीं डालते। इससे उच्च गति की प्राप्ति होती है, तथा अधिक शक्ति की प्राप्ति हो सकती है। टरबाइन में प्रवण फलकों का भी व्यवहार किया जाता है, जिससे इसके ऊपर कम प्रतिबल पड़े।
परिभ्रमक-गति को कम करने के तरीके
सभी भाप टरबाइनों में फलकगति भापगति की अनुपाती होती है। यदि भाप को वाष्पित्र दाब से संघनक दाब तक एक ही चरण में प्रसारित किया जाय, तो प्रसार के अंत में भापगति अत्यधिक हो जाएगी। यदि इस उच्च गति भाप का एक फलकपंक्ति में व्यवहार किया जाय, तो इससे परिभ्रमक गति अत्यधिक (उदाहरणत : 30,000 परिक्रमा प्रति मिनट) मिलेगी, जो व्यावहारिक कार्यों के लिए अत्यंत अधिक है। परिभ्रमक की इस उच्च गति को कम करने के लिए बहुत सी प्रणालियाँ खोजी गर्ह हैं। इन सभी प्रणालियों में कई फलकपंक्तियों का उपयोग किया जाता है। इसके लिए एक ही ईषा पर बहुत से परिभ्रमक एक क्रम चाभी की सहायता से बँधे रहते हैं। जैसे जैसे गतिमान् फलकपंक्तियों द्वारा भाप प्रवाहित होती है, भापदाब (या भापगति) उन चरणों में अवशोषित हो जाती है। इस क्रिया को 'संयोजन' (compounding) कहते हैं। परिभ्रमक गति को कम करने के मुख्य तरीके ये हैं:
वेगसंयोजन
स्थिर फलकों की पंक्तियों द्वारा पृथक की हुई, गतिमान फलकों की पंक्तियाँ टरबाइन ईष पर बँधी रहती हैं। भाप, वाष्पित्र दाब से संघनक दाब तक टोंटी में प्रसारित होकर, उच्च गति प्राप्त करती है। इसके बाद उच्च-गति-भाप गतिमान फलकों की प्रथम पंक्ति द्वारा प्रवाहित होती है, जिसमें इसकी गति का कुछ भाग अवशोषित होता है और बाकी स्थिर फलकों की अगली पंक्ति में प्रवेश करता है। ये स्थिर फलक गति को बिना परिवर्तित किए भाप की दिशा को बदल देते हैं। तब भाप गतिमान् फलक की दूसरी पंक्ति में प्रवेश करती है। भाप की गति का कुछ और भाग इस दूसरी गतिमान् पंक्ति में अवशोषित होता है। ज्यों ज्यों भाप आगे की फलकपंक्तियों द्वारा प्रवाहित होती है, इस क्रम की पुनरावृत्ति होती रहती है। इस तरह अंत में भाप की संपूर्ण गतिज उर्जा अवशोषित हो जाती है।
दाबसंयोजन
इसमें गतिमान् फलकों की पंक्तियाँ, जिनमें प्रत्येक के बाद स्थिर टोंटी की एक पंक्ति होती है, क्रम में टरबाइन ईषा पर चाभी द्वारा लगी रहती है। इसमें भाप का पूर्ण दाबपात (pressure drop) केबल टोंटी की प्रथम पंक्ति में ही नहीं होता, बल्कि टोंटी की सभी पंक्तियों में समान रूप से बँटा रहता है। वाष्पित्र से भाप टोंटी की प्रथम पंक्ति में प्रवेश करती है, जिसमें यह अंशत: प्रसारित होती है। तत्पश्चात् यह प्रथम गतिमान् फलकपंक्ति द्वारा प्रवाहित होती है, जहाँ इसकी प्राय: संपूर्ण गतिज ऊर्जा अवशोषित हो जाती है। इस पंक्ति से निकलकर यह टोंटी की दूसरी पंक्ति में प्रवेश करती है, जहाँ यह पुन: अंशत: प्रसारित होती है। इससे दाब में फिर कुछ कमी हो जाती है। टोटी की दूसरी पंक्ति द्वारा प्राप्त गतिज ऊर्जा अगली गतिमान फलकपंक्ति में अवशोषित होती है। यह क्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक संपूर्ण दाबपात टरबाइन में अवशोषित न हो जाए। दाब संयोजन का यह तरीका राट्यू (Rateau) एवं जोयली टरबाइन में व्यवहार में लाया जाता है।
दाब-वेग-संयोजन
इस तरह के टरबाइन में उपर्युक्त दोनों तरीकों का उपयोग होता है। भाप का पूर्ण दाबपात सभी चरणों में विभक्त किया जात है और प्रत्येक चरण में प्राप्त गति को भी संयोजित कर दिया जाता है। इससे यह लाभ होता है कि प्रत्येक चरणा में उच्च दाबपात की प्राप्ति होती है, जिसके फलस्वरूप कम चरणों की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए इस तरह के टरबाइन का आकार छोटा होता है। कर्टिस टरबाइन इसी तरह का है।
वेग आरेख (diagram)
टरबाइन के गतिमान् फलक के प्रवेश एवं निकास सिरे पर भाप की विभिन्न गतियों को वेग आरेख द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
भाप टरबाइन की कमियाँ
एक आदर्श टरबाइन में भाप द्वारा किया गया कार्य रैंकिन कार्य (Rankine) के बराबर होता है, अर्थात् यह रुद्धोष्म उष्मापात (adiabatic heat drop) के तुल्य होगा। व्यवहार में होनेवाली अनेक हानियों द्वारा यह कार्य अत्यंत कम हो जाता है। प्रथम हानि वेगनियंत्रक वाल्व में होती है, जहाँ भाप की दाब अवरोध (throttling) द्वारा 5 से लेकर 10 प्रतिशत तक कम हो जाती है। उच्च-दाब-टोंटी-पेटी में घर्षण एवं भँवर (friction and eddies) द्वारा भाप की दाब में फिर कुछ कमी हो जाती है, किंतु सबसे अधिक हानि टोंटी में होती हैं। उष्मीय दक्षता के लिये छोटे छोटे फलक उपयुक्त नहीं होते, किंतु यदि फलक की ऊँचाई बढ़ाई जाए तो उच्चदाब भाप, भाप की अधिक घतना और परिमित मात्रा के कारण, प्रथम चरण की संपूर्ण परिधि को ढक नहीं पाती है, जिससे आंशिक प्रवेशहानि होती है। इसका परिणाम यह होता है कि जो फलक भाप के जेट के प्रभाव के अंदर नहीं होते, वे आवरण में भरी हुई भाप का मंथन करते रहते हैं। इसके करण पंखा या वाति हानि होती है। उच्चदाब टरबाइन का परिभ्रमक भी स्वयं घने माध्यम में चलता है, जिसमें इसे अत्यंत तरल अवरोध का सामना करना पड़ता है एवं इसके कारण चकती-घर्षण-हानि (disc friction loss) होती है। टरबाइन में विभिन्न चरणों द्वारा प्रवाहित भाप की इन हानियों का हमेशा सामना करना पड़ता है। ज्यों-ज्यों भाप की घनता में कमी होती जाती है, त्यों त्यों ये हानियाँ भी कम होती जाती हैं। इनके अलावा विकिरण हानि तो होती ही है। वेयरिंग में घर्षण द्वारा भी हानियाँ होती हैं। टरबाइन में कार्य करने के बाद भाप संघनक में प्रवेश करती है एवं इस समय भी इसमें कुछ वेग होता है। इस गतिज ऊर्जा की हानि को अंतिम या अवशिष्ट हानि (terminal or leaving loss) कहते हैं।
भरण तापन की पुनर्जननीय प्रणाली (Regenerative system of feed heating)
टरबाइन संयंत्र की दक्षता को बढ़ाने के लिए इस प्रणाली का व्यवहार किया जाता है। इसमें भाप अ, ब और स तीन बिंदुओं से टरबाइन से निकालकर तीन तापकों में भेजी जाती है। अंतिम तापक से निकलकर भाप आर्द्रावस्था में जलाशय में प्रवेश करती है, जहाँ से होकर भरणजल प्रवाहित होता है। चूँकि भरणजल भाप से अधिक ठंड़ा रहता है, अत: यह भाप से गर्मी लेकर स्वयं गरम हो जाता है। भरणजल एक तापक से दूसरे में, फिर दूसरे से तीसरे में जाता है। अंतिम तापक से निकलकर भरणजल अत्यंत गरम हो जाता है, जिससे वाष्पित्र में ताप की बचत होती है। इसके कारण टरबाइन संयंत्र की दक्षता बढ़ जाती है।
भाप का पुन: तापन
टरबाइन में प्रसारित होते समय भाप प्रथम कुछ चरणों के बाद आर्द्र हो जाती है। आर्द्र भाप में रहनेवाले जलकण फलकों पर आघात करते हैं, जिससे फलक की आयु कम हो जाती है। अत: फलक संक्षरण को हटाने, भाप की घर्षण हानि को कम करने एवं टरबाइन की उष्मीय क्षमता को बढ़ाने के लिये भाप को आर्द्र होते ही टरबाइन से निकाल लिया जाता है। इसके बाद यह पुन:तापक (reheater) में प्रवेश करती है, जहाँ यह फिर से ताप प्रहण करके अधितप्त हो जाती है और तब यह टरबाइन के अगले चरण में लौट जाती है। पुन: तापन के लिये भाप अभिकल्प के अनुसार, टरबाइन के एक या अधिक स्थानों से बाहर निकाली जाती है।
टरबाइन के विशेष रूप
ये निम्नलिखित हैं -
निष्कर्षण टरबाइन (Extraction Turbine)
बहुत से उद्योगों में शक्ति के साथ ही साथ उष्मा की भी माँग होती है, जो विधायन (processing) कार्य के लिये आवश्यक होती है। चूँकि 300 पाउंड प्रति वर्ग इंच पर संतृप्त भाप की पूर्ण उष्मा 30 पाउंड प्रति वर्ग इंच पर की पूर्ण उष्मा से चार प्रतिशत ही अधिक होती है, अत: उच्चदाब की भाप का जनन उष्मागतिकी (thermodynamics) के अनुसार अधिक लाभप्रद होगा। निष्कर्षण टरबाइन में इस भाप को पहले कार्य करने के लिए प्रसारित किया जाता है एवं माँग के अनुसार भाप की कुछ मात्रा को निम्न दाब पर विधायन कार्य के लिए बाहर निकाल लिया जाता है। शेष बची भाग को टरबाइन में संघनक दाब तक प्रसारित किया जाता है। इस तरह के टरबाइन को निष्कर्षण टरबाइन कहते हैं एवं इस टरबाइन के दो भाग, उच्चदाब भाग और निम्नदाब भाग, होते हैं।
पश्चदाब टरबाइन (Back Pressure Turbine)
यह टरबाइन निष्कर्षण टरबाइन का ही एक रूप है। इसमें विधायन कार्य के लिए संपूर्ण भाप को बाहर निकाल लिया जाता है। इससे भाप सिर्फ उच्चदाब भाग में ही प्रसारित होती है।
निम्नदाब टरबाइन
निम्नदाब टरबाइन वह टरबाइन है जिसमें भाप कार्य करने के लिये निम्न दाब पर प्रवेश करती है और निम्नतम दाब तक प्रसारित होती है। यदि निम्नदाब भाप लगातार मिलती रहे (उदाहरणार्थ, भाप इंजन निकास द्वारा) तो एक निम्नदाब टरबाइन का प्रयोग करके समूचे संयंत्र की क्षमता बढ़ाई जा सकती है। उष्मागतिकी के सिद्धांत के अनुसार समान दाबसीमा पर कार्य करनेवाले निम्नदाब टरबाइन में निम्नदाब इंजन की अपेक्षा अधिक कार्य प्राप्त होता है। यदि भाप का प्रदाय लगातार न हो तो उष्मासंचायक का व्यवहार किया जाता है।
मिश्रित दाब टरबाइन
ऊपर बताए गए उष्मासंचायक की क्षमता भी सीमित होती है। जब निम्नदाब भाप की मात्रा माँग से बहुत कम हो जाती है, तब इस कमी को पूरा करने के लिए वाष्पित्र से भाप की दाब को कम करके टरबाइन में भेजा जाता है। इस तरह उच्चदाब और निम्नदाब पर आनेवालनी भाप के दो प्रदाय एक ही टरबाइन में आते हैं। इस तरह के टरबाइन को मिश्रितदाब टरबाइन कहते हैं। इस टरबाइन में भाप इंजन द्वारा निम्नदाबभाप-निकास, या उष्मासंचायक, का व्यवहार किया जाता है।
बाहरी कड़ियाँ
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- Steam Turbines: A Book of Instruction for the Adjustment and Operation of the Principal Types of this Class of Prime Movers by Hubert E Collins
- Steam Turbine Construction at Mike's Engineering Wonders
- Tutorial: "Superheated Steam"
- Flow Phenomenon in Steam Turbine Disk-Stator Cavities Channeled by Balance Holes
- Guide to the Test of a 100 K.W. De Laval Steam Turbine with an Introduction on the Principles of Design circa 1920
- Extreme Steam- Unusual Variations on The Steam Locomotive स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- Interactive Simulation of 350MW Steam Turbine with Boiler developed by The University of Queensland, in Brisbane Australia
- "Super-Steam...An Amazing Story of Achievement" Popular Mechanics, August 1937
- Modern Energetics - The Steam Turbine