प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास
प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास उतना ही पुराना है जितना स्वयं प्रकृति। यह चिकित्सा विज्ञान आज की सभी चिकित्सा प्राणालियों से पुराना है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि यह दूसरी चिकित्सा पद्धतियों कि जननी है। इसका वर्णन पौराणिक ग्रन्थों एवं वेदों में मिलता है, अर्थात वैदिक काल के बाद पौराणिक काल में भी यह पद्धति प्रचलित थी।
आधुनिक युग में डॉ॰ ईसाक जेनिग्स (Dr. Isaac Jennings) ने अमेरिका में 1830 के दशक में दवा को 'पूर्ण भ्रम' (gross delusion) कहा था । चिकित्सा सम्बन्धी उनके पूर्व प्रयोगों से उन्हें विश्वास हो गया था कि केवल प्रकृति ही अपनी खराब हुई 'मशीनरी' को ठीक कर सकती है।[१] जोहन बेस्पले ने भी ठण्डे पानी के स्नान एवं पानी पीने की विधियों से उपचार देना प्रारम्भ किया था।
महाबग्ग नामक बोध ग्रन्थ में वर्णन आता है कि एक दिन भगवान बुद्ध के एक शिष्य को सांप ने काट लिया तो उस समय विष के नाश के लिए भगवान बुद्ध ने चिकनी मिट्टी, गोबर, मूत्र आदि को प्रयोग करवाया था और दूसरे भिक्षु के बीमार पड़ने पर भाप स्नान व उष्ण गर्म व ठण्डे जल के स्नान द्वारा निरोग किये जाने का वर्णन 2500 वर्ष पुरानी उपरोक्त घटना से सिद्ध होता है।
प्राकृतिक चिकित्सा के साथ-2 योग एवं आसानों का प्रयोग शारीरिक एवं आध्यात्मिक सुधारों के लिये 5000 हजारों वर्षों से प्रचलन में आया है। पतंजलि का योगसूत्र इसका एक प्रामाणिक ग्रन्थ है इसका प्रचलन केवल भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी है।
प्राकृतिक चिकित्सा का विकास (अपने पुराने इतिहास के साथ) प्रायः लुप्त जैसा हो गया था। आधुनिक चिकित्सा प्राणालियों के आगमन के फलस्वरूप इस प्रणाली को भूलना स्वाभाविक भी था। इस प्राकृतिक चिकित्सा को दोबारा प्रतिष्ठित करने की मांग उठाने वाले मुख्य चिकित्सकों में बड़े नाम पाश्चातय देशों के एलोपैथिक चिकित्सकों का है। ये वो प्रभावशाली व्यक्ति थे जो औषधि विज्ञान का प्रयोग करते-2 थक चुके थे और स्वयं रोगी होने के बाद निरोग होने में असहाय होते जा रहे थे। उन्होने स्वयं पर प्राकृतिक चिकित्सा के प्रयोग करते हुए स्वयं को स्वस्थ किया और अपने शेष जीवन में इसी चिकित्सा पद्धति द्वारा अनेकों असाध्य रोगियों को उपचार करते हुए इस चिकित्सा पद्धति को दुबारा स्थापित करने की शुरूआत की। इन्होने जीवन यापन तथा रोग उपचार को अधिक तर्कसंगत विधियों द्वारा किये जाने का शुभारम्भ किया।
प्राकृतिक चिकित्सा संसार मे प्रचलित सभी चिकित्सा प्रणाली से पुरानी है। प्राचीन ग्रंथों मे जल चिकित्सा व उपवास चिकित्सा का उल्लेख मिलता है। पुराण काल मे (उपवास) को लोग अचूक चिकित्सा माना करते थे।
प्राकृतिक चिकित्सा का विदेशों मे विकास
भारत में प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का जन्म हुआ। तथा इसकी उपयोगिता की महत्ता भी भारत में अति प्राचीन समय से चली आ रही है। जिन-2 स्वास्थ्य सम्बन्धी प्राकृतिक क्रियाओं का हम प्रयोग कर रहे हैं वे सभी उपचार की पद्धतियां पूर्वावस्था में प्राचीन भारत में विद्यमान थी। भारत में ही रोग निवारण के लिए इस पद्धति का प्रयोग नहीं किया वरन् अन्य कई देशों में भी इस पद्धति का प्रयोग आज किया जा रहा है। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति भारत की ही देन है परन्तु कुछ कारणों तथा अन्य विकासों के प्रभावानुसार यह पद्धति भारत में लुप्त हो गई। इसके बाद इसके पुनः निर्माण का श्रेय विदेशों (पाश्चात्य देशों) को ही है।
18वीं शताब्दी के मध्य से कुछ लोगों के प्रयास के फलस्वरूप प्राकृतिक चिकित्सा का प्रारम्भ तथा विकास फिर शुरू होने लगा तथा हम इस चिकित्सा को पुनः जानने लगे। इस पद्धति के पुनरूथान में जिन महान और प्रभावशाली व्यक्तियों का योगदान है वह पहले से ही रोगों को ही उपचार के लिए औषधियों का प्रयोग करते थे परन्तु औषधियों के प्रयोग के बाद भी रोगों पर सफलता न पा सकने तथा उसके प्रतिकूल प्रभावों को जानने के बाद और स्वयं पर भी औषधि चिकित्सा की प्रणाली के कटुफल चखने के बाद प्राकृतिक चिकित्सा की शरण ग्रहण कर स्वस्थ जीवन जीने लगे। इन्होंने इस पद्धति के चमत्कारों से प्रभावित होने के कारण इस पद्धति के प्रचार-प्रसार और विकास में लग कर प्राकृतिक चिकित्सा को नया जन्म दिया।
जेम्स क्यूरी और सर जॉन फ्लायर
डॉ॰ फ्लायर (Sir John Floyer) इंग्लैड के लिचफील्ड नगर के निवासी थे। लिचफील्ड के एक सोते के पानी में कुछ किसानों को नहाकर स्वास्थ्य लाभ करते देख उन्हे जल के स्वास्थ्यवर्द्धक प्रभाव के सम्बन्ध में अधिकाधिक जांच पड़ताल करने की प्रबल इच्छा हुई। इसके कारण उनका रूझान इस पद्धति की ओर हुआ।
डॉ॰ जेम्स क्यूरी (James Currie) लिवरपुल के रहने वाले थे सन् 1717 ई. को लगभग इन्होने एक जल चिकित्सा सम्बन्धित पुस्तक लिखकर उसका प्रकाश कराया।
लुई कूने
डॉ॰ लूई कूने (Louis Kuhne) एक प्रसिद्ध चिकित्सक के रूप में जाने जाते है। इनका जन्म 1844 में जर्मनी में हुआ। इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली को विषेशकर जल चिकित्सा को उन्नति के शिखर तक पहुंचाने के लिए जीवन का अधिकांश समय दिया। इसके साथ ही उन्होने दो महत्वपूर्ण पुस्तकें "The new science of Healing" तथा "The science of facial Expression" लिखी।
इन्होने रोग के कारण और उपचार पर जोर देते हुए चिकित्सा प्रारम्भ की और अन्ततः लिपजिंग (Leipzig) नगर में अपना एक चिकित्सालय भी स्थापित किया। जल चिकित्सा में प्रयोग होने वाले उपकरणों की डिजाइनिंग करके हिप बाथ आदि की शुरूआत में महत्वपूर्ण योगदान दिया जो आज भी प्राकृतिक चिकित्सा में उनके नाम से प्रसिद्ध है (जैसे मेहन स्नान को लूई कूने नाम से ही जाना जाता है।) उन्होने विजातीय द्रव्य के पनपते की और उसके विभिन्न स्थानों पर जमा होने पर विस्तृत रूपरेखा तैयार की।
आपका जन्म एक जुलाहे परिवार में हुआ था। लेकिन इन्हे कई दर्दनाक परिस्थितियों का सामना करना पडा। माता-पिता के आकास्मक निधन व अपने शरीर के असाध्य फोडों के कारण औषधिविज्ञान के चिकित्सकों के द्वारा हतोत्साहित होना पडा। इसी कारण उन्हे अपने लिए किसी सुदृढ चिकित्सा प्रणाली की आवश्यकता हुई और प्राकृतिक चिकित्सा की शरण ले स्वास्थ्य को प्राप्त करने में सफल भी हो गए।
विन्सेंज प्रिस्निज
विन्सेंज प्रिस्निज (Vincenz Priessnitz) जन्म सन् 1799 में आस्ट्रेलिया में हुआ। इनको जल चिकित्सा का जनक कहा जाता है। इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा में आने से पूर्व एक घायल देखा जो बार-2 अपने उस घाव को लेकर पानी के तलाब में लेटता था। ऐसा कुछ दिनों करने पर उसका घाव पूरी तरह ठीक हो गया था, इसे देखकर उन्होने कई प्रयोग करे परन्तु इन प्रयोगों के करने के कारण उनको न्यायालय में भी उपस्थित होना पड़ा परन्तु अन्ततः न्यायालय द्वारा इस पद्धति को हितकारी मानते हुए न्यायालय द्वारा उनके हित में ही फैसला सुनाया गया। इसके पश्चात उन्होने प्राकृतिक चिकित्सा का खुलकर उपचार अपने घर पर ही देना शुरू किया। प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में उनका विरोध होने पर भी बिना डरे उन्होने अपने पूरे विश्वास और लगन से इसके अनेकों चमत्कार किए तथा पूरी दुनिया द्वारा भी माने गए।
डॉ॰ इसाक जेनिंग
औषधि विज्ञान के डॉक्टर के रूप में पहुचाने जाने वाले डॉ॰ जेनिंग (Dr. Isaac Jenning) अमेरिका में 1788 में पैदा हुए और उन्होने प्रकृति एवं सफाई को अधिक महत्व देते हुए एक बुखार के रोगी को उपवास, विश्राम और अत्यधिक पानी के सेवन के साथ शान्त वातावरण में रहने की सलाह दी इस प्रकार वह अन्य दुसरे रोगों में एक टाइफाइड के रोगी को जिस पर दवाओं का कोई असर नहीं हो रहा था का प्राकृतिक उपचार किया। जिससे रोगी की स्थिति में सुधार होने लगा। सन् 1822 में उन्होने पूरी तरह से दवाओं का प्रयोग बन्द कर दिया और प्राकृतिक चिकित्सा करने लगे। इसका प्रयोग करने से रोगियों की मृत्युदर में गिरावट आने पर चमत्कारी प्रभाव सामने आने लगे। तथा स्वस्थ होने में भी परिणाम शीघ्र प्राप्त होने लगे। इससे उन्होने निष्कर्ष निकाला की रोग बाहरी वातावरण की नहीं वरन जीवनी शक्ति के ह्रास की देन है। उनकी उपचार पद्धति को आर्थोपैथी के नाम से जाना जाता है। इन्होने तीन किताबें लिखी "The medicial reform", "Philosophy of human life" तथा "The tree of human life as human degeneracy" हैं।
सेबस्टियन नीप
फादर नीप (Sebastian Kneipp) ने जल चिकित्सा पर अनेकों प्रयोग व आविष्कार किये। इन्होने जल चिकित्सा का प्रयोग कर बड़ी सफलता प्राप्त की। इन्होने एक स्वास्थ्य गृह का संचालन 45 वर्षों तक कुशलता पूर्वक किया तथा उसके द्वारा अनेकों लोगों को प्रशिक्षित किया। इनके नाम से जर्मनी में एक नील स्टोर्स है जहां जड़ी-बूटियों, तेल, साबुन तथा स्नान सम्बन्धी आवश्यक वस्तुएं तथा स्वास्थ्यप्रद प्राकृतिक भोजनों का प्रदर्शन किया जाता है। इन्होने सन् 1857 ई. में जल चिकित्सा पर "My Water Cure" नामक पुस्तक लिखी जिसका हिन्दी रूपान्तरण 'जल चिकित्सा' के नाम से आरोग्य मंदिर, गोरखपुर से प्रकाशित हुआ है।
आर्नल्ड रिक्ली
अर्नाल्द रिक्ली (Arnold Rickli) एक व्यापारी होते हुए भी प्राकृतिक चिकित्सा से प्रभावित होकर व्यापार छोड़कर इस चिकित्सा क्षेत्र में आ गए। इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा में एक अध्ययन वायु चिकित्सा एवं धूप चिकित्सा को जोड दिया। बाद में इन्होने सन् 1848 ई. में आस्ट्रिया में धूप और वायु का एक सेनेटोरियम स्थापित किया जो संसार का प्रथम प्राकृतिक चिकित्सा भवन बना।
एडोल्फ जुस्ट
एडोल्फ जुस्ट (Adolf Just) जर्मनी के रहने वाले थे। इनके द्वारा मिट्टी चिकित्सा का विकास तथा प्रयोग करने के बाद इसकी उपयोगिता और महत्ता को माना जाने लगा। इन्होने मिट्टी के अनेकों प्रयोग कर रोगों की चिकित्सा की। इनके द्वारा ही मालिश की क्रिया का जन्म भी हुआ। इन्होने महत्वपूर्ण पुस्तक "Return to nature" भी लिखी जो आज संसार भर में सुप्रसिद्धि प्राप्त कर रही है।
आर्नल्ड एहरेट
डॉ॰ आर्नल्ड (Arnold Ehret) भी प्रसिद्ध चिकित्सकों में से हैं। ये जर्मनी के रहने वाले थे परन्तु इनका कार्यक्षेत्र अमेरिका था। इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा की फलाहार और उपवास की पद्धति पर अधिक जोर दिया तथा बड़े बड़े रोगों को केवल आहार तथा उपवास द्वारा ही मार भगाया। इन्होने कई पुस्तकें लिखी जिनमें से दो पुस्तके अधिक प्रसिद्ध है- "Rational fasting" और "Mucusless Diet healing system"।
हेनरी लिण्डल्हार
हेनरी लिण्डल्हार (Henry Lindlahr) का जन्म 1 मार्च 1953 को हुआ। इन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार प्रसार में लगा दिया। इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा से होने वाले लाभों तथा प्रभावों को वैज्ञानिक आधार द्वारा प्रस्तुत किया। इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धान्त तीव्ररोग अपने चिकित्सक स्वयं होते हैं का समर्थन दिया जबकि प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धान्तों के विरूद्ध जाकर रोगों उपचार में दूसरी पद्धतियों की औषधियों के सेवन पर जोर दिया। सन् 1904 में 51 वर्ष की अवस्था में एम.डी. की उपाधि प्राप्त की। इन्होने कई पुस्तकें लिखी जिनमें मौलिक पुस्तकें, 'फिलोसफी ऑफ नेचर केयर', 'प्रैक्टिस ऑफ केयर कुक बुक इनके अपने निजी अनुभवों द्वारा सम्पादित की हुई है।
बेनिडिक्ट लुस्ट
बेनिडिकट लुस्ट (Benedict Lus), फादर नीप के प्रिय शिष्यों में से एक थे। इनका जन्म 3 फरवरी 1872 ई. को हुआ था। इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार प्रसार अमेरिका में जाकर किया। अमेरिका में ही इन्होने नीप-वाटर क्योर नामक एक मासिक पत्र निकाला तथा बाद में एक पत्र नेचर्स-पाथ भी स्थापित किया इनके द्वारा न्यूयार्क में एक स्कूल तथा कालेज की स्थापना की। जो अब सुप्रसिद्ध यंग बार्न्स अस्पताल में परिणत हो गया है। यही नहीं इसके अतिरिक्त भी इन्होने कई अन्य अस्पतालों स्कूलों तथा संस्थाओं की भी स्थापना की। इनका देहान्त 1950 ई. अपने द्वारा स्थापित अस्पताल में ही हुआ।
जे. एच. टिल्डेन
जेम्स हेनरी टिल्डेन (John Henry Tilden) जन्म अमेरिका में हुआ। इन्होने उपचार में कारणों को दूर करने पर जोर दिया जिनके द्वारा रोग उत्पन्न होते है। तथा रोगी को प्राकृतिक जीवन जीने की शिक्षा पर भी इन्होने बल दिया इन्होने प्रसिद्ध पुस्तक "Impaired health" भी लिखी।
हेनरिच लेमैन
हेनरिच लेमैन (Johann Heinrich Lahmann) जर्मनी में रहने वाले तथा एलोपैथी को मानने वाले थे। परन्तु बाद में इन्होने ड्रेसडेन में एक स्वास्थ्य-गृह भी बनाया जिसके द्वारा इन्होने मानव स्वास्थ के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता पर अनुसंधान किए तथा यह सिद्ध किया कि स्वस्थ रहने के लिए आहार ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
बरनर मैकफेडन
बरनर मैकफेडन (Bernarr Macfadden) बहुत ही प्रसिद्ध चिकित्सक थे। इन्होने पूरा जीवन प्राकृतिक जीवन व व्यायाम पद्धतियों का अनुभव कर उसे प्रयोग करके रोगों को दूर करने पर जोर दिया। व्यायाम पद्धतियों का स्वयं अनुभव करके "फादर ऑफ फिजिकल कलचर" की उपाधि को प्राप्त किया। इन्होने "Book of health", "Fasting for health" तथा "Macfaddens eneyolopedia for physical culture" आदि दर्जनो पुस्तकों भी लिखी। उपवास पर इन्होने अपनी पकड़ बनाई तथा उपचार में इसका प्रयोग किया।
सर विलियम अर्बुथनाट लेन
सर विलियम अर्बुथनाट लेन (Sir William Arbuthnot Lane) एक एलोपैथी के चिकित्स थे फिर भी इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा के प्रभावों से खूब प्रभावित हुए तथा इस पर विश्वास करके इन्होने इसका खूब प्रचार प्रसार किया। इन्होने एक सुप्रसिद्ध पुस्तक "Good Health" भी लिखी।
जे. एच. केलाग
जॉन हार्वे केलॉग (John Harvey Kellogg) को पूरा संसार प्राकृतिक चिकित्सक के नाम से जानता है। इनका जन्म 2 6 फ़रवरी सन् 1852 ई. को अमेरिका में हुआ। इन्होने एक विषष प्रकार का बैटिल क्रीक सेनीटोरियम बनाया जिसमें सभी चिकित्सा प्रणालियों जैसे जल चिकित्सा, आहार चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, स्वीडिश मूवमेन्ट तथा विद्युत-चिकित्सा आदि द्वारा उपचार होता है। इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में कई प्रकार के आविष्कार भी किए जिनमें विद्युत ज्योतिस्नान (Electric lights bath) महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त इन्होने “दि न्यु डायटेरिक्स”, “रैशनल हाइड्रोथिरैपी” तथा “होम हैंड बुक ऑफ हाइजीन एण्ड मेडिसिन” आदि पुस्तकें भी लिखी।
सर विलियम
यह भी हेनरिच लेमैन तथा सर विलियम की तरह ही एक प्रसिद्ध ऐलोपैथी के चिकित्सक होते हुए भी प्राकृतिक चिकित्सा में अगाध विश्वास रखते थे। इन्होने "The principles practice of medicine" नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी।
ब्ले सेलमन एम. डी., विन्टर निट्रल, आटो कार्क, एडगर, जे. सैकसन शेल्टन, इलियर, पंज, ओसवाल्ड, हरबर्ट स्पेन्सर, टर्न वेटर जान, बोन पीजली, हैन्स माल्टेन, एडविन बैबिट एन. डी., मिल्टन पावल आदि अनेकों ही और भी चिकित्सक हैं जिन्होने अपना जीवन प्राकृतिक चिकित्सा को समर्पित किया तथा इसके द्वारा रोगों का उपचार करके अनेकों रोगों पर विजय प्राप्त की।
भारतीय प्राकृतिक चिकित्सक
भारत में आधुनिक युग में डी. वेंकट चेलापति शर्मा द्वारा वर्ष 1894 में डॉ॰ लूई कूने के प्रसिद्ध पुस्तक 'द न्यू साइंस ऑफ हीलिंग' ( The new science of healing) का तेलुगु भाषा में अनुवाद करने के साथ प्राकृतिक चिकित्सा का प्रादुर्भाव हुआ। इसके पश्चात 1904 में बिजनौर निवासी श्री कृष्ण स्वरूप ने इसका अनुवाद हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में किया। पुस्तकों के आगमन के साथ-2 लोगों की रूचि और उसके अध्ययन में भी वृद्धि होनी प्रारम्भ हुई और शीघ्र ही यह चिकित्सा पद्धति लोगों में प्रचलित होनी प्रारम्भ हुई। महात्मा गांधी जी एडोल्फ जूस्ट की पुस्तक 'रिटर्न टू नेचर' (Return to nature) पढकर बहुत प्रभावित हुए। उनके जीवन में यह पद्धति गहराई तक चली गई और उन्होने तुरन्त प्रभाव से अपने स्वयं के शरीर तथा परिवार के लोगों और आश्रम में रहने वाले लोगों पर उपचार प्रयोग प्रारम्भ किए। अन्ततः भारत जैसे गरीब देशों में स्वास्थ्य के लिए यह पद्धति सर्वोत्तम पद्धति है। इसका प्रचार उन्होने गांव-2 में करने के साथ ही पूना के पास उरलिकांचन में एक प्राकृतिक चिकित्सालय की स्थापना की और इस चिकित्सालय के चिकित्सक भी बने। उरलिकांचन में पहला प्राकृतिक चिकित्सालय स्थापित होने के कारण ही दक्षिण भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रादुर्भाव सबसे पहले हुआ है।
डॉ॰ कृष्णम राजू ने विजयवाडा से थोड़ी दूरी पर ही एक विशाल चिकित्सालय की स्थापना की। इसके साथ साथ देश में डॉ॰ जानकीशरण वर्मा, डॉ॰ शरण प्रसाद, डॉ॰ महावीर प्रसाद पोद्दार, डॉ॰ गंगा प्रसाद गौड, डॉ॰ विट्ठल दास मोदी, डॉ॰ हीरालाल, महात्मा जगदीशवरानन्द, डॉ॰ कुलरन्जन मुखर्जी, डॉ॰ वी. वेंकट राव, डॉ॰ एस. जे. सिंह, इत्यादि के प्रयासों से कई सरकारी संस्थाएं तथा दिल्ली में केन्द्रिय योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा अनुसंधान परिशद इत्यादि की स्थापना हेतु मुख्य योगदान दिया जिसके फलस्वरूप आज मान्यता प्राप्त चिकित्सालय पद्धति के रूप में स्वीकार की गई।[२] इनमे से कुछ का जीवन परिचय इस प्रकार है:
डॉ॰ कुलरंजन मुखर्जी
प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में डॉ॰ कुलरंजन मुखर्जी का बहुत बड़ा योग दान रहा। बचपन से ही इन्हें प्रकृति एवं प्राकृतिक चिकित्सा से विशेष प्रेम था। तथा किशोरावस्था में इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा का प्रयोग रोग उपचार के लिए शुरू किया। सन् 1930 में डॉ॰ कुलरंजन ने हाजरा रोड, कोलकाता में नेचर केयर अस्पताल में कार्य किया। इससे भी पूर्व उन्होनें मदारीपुर (अब बांग्लादेश के ढाका में) में नेचर केयर अस्पताल के कार्य किया तथा सफल परीक्षण प्राप्त किए। अपने जीवनकाल में उन्होने हजारों असाध्य रोगियों के रोगों ठीक किया। इसी कारण उनकी तुलना ऐलोपैथी के सीनियर डॉ॰ विधान चन्द्र के साथ की जाती थी। गांधी जी को भी इनके द्वारा दी गई उपचार पद्धति पर विश्वास था तथा वह भी इनके पास रोगियों को भेजा करते थे। इन्होने एक पुस्तक भी लिखी - 'प्रोटेक्टिव फुड्स इन हेल्थ एण्ड डिसीज'। इसके अतिरिक्त इन्होने अंग्रेजी और हिन्दी भाषा में कई महत्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखी ये पुस्तकें आज भी सराहनीय एवं सहायक है। डॉ॰ मुखर्जी ने केवल रोगियों की चिकित्सा करते थे अपितु वह अपनी आय का 50 प्रतिशत भाग प्राकृतिक चिकित्सा में लगते थे। यह बहुत ही इमानदार तथा सरल व्यक्तित्व के व्यक्ति थे।
सन् 1946 में डॉ॰ मुखर्जी ने अखिल भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा परिषद की स्थापना की इस प्रकार इनके द्वारा प्राकृतिक चिकित्सा में अद्भुत चमत्कार किए।
डॉ॰ विट्ठलदास मोदी
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विट्ठलदास मोदी का जन्म 25 अप्रैल सन् 1912 ई. में जनपद गोरखपुर में हुआ था। इन्होने मैट्रिक तक की शिक्षा गोरखपुर से लेकर आगे की शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से की। वह अध्यापक बनना चाहते थे। एक बार यह भंयकर रूप से बीमार पड गए तथा सभी तरह की दवा लम्बे समय तक लेने पर आराम नहीं हुआ तो इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा श्री बालेश्वर प्रसाद सिंह के मार्गदर्शन में न केवल रोगमुक्त हुए बल्कि उनका स्वास्थ्य पहले से भी उत्तम हो गया। इसी से ही उनकी आस्था और निष्ठा प्राकृतिक चिकित्सा में लग गई।
आगे चलकर सन् 1940 ई. में इन्होने गोरखपुर में आरोग्य मंदिर प्राकृतिक चिकित्सालय की स्थापना की। इन्होने एडोल्फ जस्ट द्वारा लिखी पुस्तक 'रिटर्न टू नेचर' (Returne to nature) का हिन्दी अनुवाद करके भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में एक बड़ा कार्य किया। इन्होने गांधी जी की रचनात्मक प्रवृतियों पर केन्द्रित पत्रिका 'जीवन-साहित्य' का संपादन भी किया।
इन्होने भारत में प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में ज्ञान व अनुभव का प्रयोग कर खूब सम्मान तथा प्रतिष्ठा हासिल की। विदेशों में भी इस पद्धति के अध्ययन के लिए उन्होने अनेकों देशों की यात्रा की। वह अमेरिका भी गए तथा वहां के प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र देखकर तथा अनुभव प्राप्त कर उन्होने 'यूरोप-यात्रा' नामक एक पुस्तक लिखी।
प्राकृतिक चिकित्सा की शिक्षा के लिए एक शिक्षा केन्द्र की स्थापना 1962 में गोरखपुर में 'स्कूल ऑफ नेचूरल थेराप्यूटिक्स' नाम से की। इसके द्वारा उन्होने हजारों बालक-बालिकाओं को प्राकृतिक चिकित्सा की शिक्षा दी तथा आज वे शिष्य देश के विभिन्न भागों में प्राकृतिक चिकित्सा के काम में लगे हैं। इन्होने शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए 'रोगों की सरल चिकित्सा', 'स्वास्थ्य के लिए फल तरकारियाँ', 'बच्चों का स्वास्थ्य एवं उनके रोग', 'दुग्ध-कल्प', 'उपवास से लाभ', 'उपवास चिकित्सा' आदि अनेकों पुस्तकों को अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं अनुवाद भी किया। मोदी जी ने प्राकृतिक चिकित्सा में मानस के निर्मलीकरण के लिए भगवान बुद्ध द्वारा प्रवर्तित विपश्यना ध्यान-साधना का समावेश किया। इस प्रकार अपने जीवन के 60 वर्षों प्राकृतिक चिकित्सा को समर्पित किए।[३]
डॉ॰ जानकीशरण वर्मा
ये एक सफल चिकित्सक थे। इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन्होने हिन्दी भाषा में बहुत सारी पुस्तकें लिखी। इन्होने 'अचूक चिकित्सा के प्रयोग' नाम्क एक श्रेष्ठ पुस्तक की रचना की। इनकी पुस्तक पढकर ही प्राकृतिक चिकित्सा प्रेमी मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं। अपनी इन पुस्तकों के कारण ही उनका नाम प्राकृतिक चिकित्सा के इतिहास में सदा अमर रहेगा।
डॉ॰ के लक्ष्मण शर्मा
इनका जन्म तमिलनाडु में हुआ था। इन्होने उच्च शिक्षा प्राप्त करके सारा जीवन प्राकृतिक चिकित्सा के लिए समर्पित कर दिया। इन्होने अति प्रसिद्ध पुस्तक 'प्रेक्टिकल नेचर केयर' की रचना की। इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में खूब प्रगति की।
डॉ॰ बालेश्वर प्रसाद सिंह
इनका प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में योगदान बहुमूल्य है। इन्होने भारत के कोने-2 में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार प्रसार किया। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन्होने बहुत सारे शिविरों का आयोजन कर हजारों लोगों को भी उपचार उपलब्ध करा कर उन्हें रोग मुक्त किया। इनके द्वारा अनेक पत्रिकाओं का सम्पादन कुशलता-पूर्वक किया गया। 'जीवन-सखा' एक श्रेष्ठ पत्रिका थी। इन्होने गांधी जी से प्राकृतिक चिकित्सा की प्रेरणा प्राप्त की तथा अपना पूरा जीवन प्राकृतिक चिकित्सा को सर्म्पित किया। इन्होने अनेकों युवकों को प्रशिक्षण देकर सुयोग्य प्राकृतिक चिकित्सक बनाया।
महात्मा गांधी
महात्मा गांधी महान प्राकृतिक चिकित्सक थे। इन्होने भारत में प्राकृतिक चिकित्सा के अतिरिक्त उपवास और सत्याग्रह के नियमों का भी अनुपालन किया। इन्होने सर्वप्रथम भारत में प्राकृतिक आश्रम का निर्माण किया। इन्होने 'आरोग्य की कुंजी' का सम्पादन किया जिसका प्रचार-प्रसार देश और विदेश में हुआ तथा लाखों लोगों ने इससे लाभ उठाया।
गांधी जी ने एडोल्फ जुस्ट द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक 'रिटन टू नेचर' का अध्ययन करके प्राकृतिक चिकित्सा की प्रेरणा प्राप्त की और इस क्षेत्र में बहुत सफलता प्राप्त की। इन्होने भारत के साथ-2 विदेशों में भी इस पद्धति का प्रचार किया। इनकी लिखी पुस्तकों में "Diet & Diet reform" अपने समय की आहारशास्त्र की लाभकारी और उपयोगी पुस्तक है।
डॉ॰ वेगिराज कृष्णम राजू
इनका जन्म 1910 में हुआ। इन्होने आन्ध्र प्रदेश में विशाल प्राकृतिक चिकित्सालय की स्थापना की तथा एक आदर्श प्राकृतिक चिकित्सा शिक्षण संस्था का संचालन किया। इन्होने कई पुस्तकें भी लिखी जो प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण है।
डॉ॰ महावीर प्रसाद पोद्दार
इस प्राकृतिक चिकित्सक ने महात्मा गांधी जी से प्रेरणा प्राप्त कर इस पद्धति को अपनाया। अपनी सम्पूर्ण आयु प्राकृतिक चिकित्सालय में रहकर हजारों निराश रोगियों को जीवन दान दिया और हिन्दी में अनेक किताबों भी लिखी।
सन्त विनोबा भावे
विनोबा भावे महात्मा गांधी जी के आध्यात्मिक आचार्य थे तथा इन्होने भी राम नाम तत्व की प्राकृतिक चिकित्सा से महत्वपूर्ण बताते हुए 'राम नाम एक चिन्तन' पुस्तक में प्राकृतिक जीवन के मूलभूत आदर्शों का बड़े सुन्दर विवेचन किया। इन्होने कई सम्मेलनों में प्राकृतिक चिकित्सकों का विषेष मार्गदर्शन किया।
मोरार जी देसाई
अंग्रेजी शासन के समय एक उच्च पद पर कार्यरत होते हुए भी इन्होने इसका त्याग कर स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लिया और भारत के प्रधानमंत्री का पद भार को सम्हालते हुए प्राकृतिक चिकित्सा को नया मोड दिया। इन्होने कई पुस्तकों के द्वारा अपने अनुभवों को जन-2 तक पहुचाया।
डॉ॰ शरण प्रसाद
आपने अनेक वर्षों तक भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा विद्यापीठ कलकत्ता में प्राचार्य एवं मुख्य चिकित्सक के रूप में कार्य किया तथा कई वर्षों तक गांधी जी द्वारा स्थापित निसर्गोपचार केन्द्र उरूलीकंचन में मुख्य चिकित्सक के पद पर कार्य किया। इन्होने अपने अनुभवों के आधार पर कई श्रेष्ठ तथा प्रमाणिक ग्रन्थों का लेखन किया जिनका प्रकाशन सर्व सेवा संघ द्वारा किया गया।
डॉ॰ एस. जे. सिंह
ये श्रेष्ठ प्राकृतिक चिकित्सकों में से एक हैं। इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा का प्रशिक्षण विदेश से प्राप्त किया तथा अपने जीवन का बड़ा काल प्राकृतिक चिकित्सा को समर्पित किया। इन्होने लेलिंग का अंग्रेजी भाषा से उर्दु तथा हिन्दी लिपि में सविस्तार अनुवाद किया जो उस समय के महत्वपूर्ण योगदानों में से एक था। ये बहुत ही लोकप्रिय प्राकृतिक चिकित्सक थे।
डॉ॰ बी. वेंकटराव तथा डॉ॰ श्रीमती विजयलक्ष्मी
ये दोनो ही डॉ॰ कृष्णम राजू के शिष्य थे तथा उनसे प्रशिक्षण ग्रहण कर इन्होने हैदराबाद में एक विशाल प्राकृतिक चिकित्सालय की स्थापना की। इसी के साथ नेचर केयर कॉलेज की स्थापना कर उसे उस्मानिया विश्वविद्यालय से मान्यता भी दिलाई जहां M.B.B.S. योग्यता के बराबर उपाधि छात्रों को दी जाती थी।
डॉ॰ एस. स्वामीनाथन
ये एक महान चिकित्सक तथा डॉ॰ स्व. के लक्ष्मण शर्मा के शिष्य भी थे। उच्च शिक्षा ग्रहण कर केन्द्रीय सरकार में उच्च अधिकार के पद पर कार्यरत होते हुए भी प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार प्रसार में निस्वार्थ भाव से बढ चढ कर सेवा की। यह 'लाइफ नेचुरल' अंग्रेजी मासिक पत्रिका के सम्पादक के साथ-2 'जीवन सखा' मासिक पत्रिका का भी सम्पादन किया।
डॉ॰ हीरा लाल
भारत के प्राकृतिक चिकित्सकों में डॉ॰ हीरा लाल जी का विषेष स्थान है। इन्होने डॉ॰ विट्ठल दास और डॉ॰ महावीर प्रसाद पोद्दार के साथ प्राकृतिक चिकित्सा का कार्य आरोग्य मन्दिर में प्रारम्भ किया। इसके साथ-2 ही इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार-प्रसार के लिए गांव-गांव जाकर अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई साथ ही प्रकाशन के कार्य में भी क्रियाशील रहे। चिकित्सा के प्रचार प्रसार में इन्होने अपना जो सहयोग दिया उसके परिणामस्वरूप जन-जन तक इस चिकित्सा को पहुंचाना सम्भव हो पाया। इन्होने महामंत्री के रूप में अखिल भारत प्राकृतिक चिकित्सा परिषद एवं योग परिषद के कार्य भार को संभाला। इनके द्वारा कई पुस्तकों का सम्पादन हिन्दी व अंग्रेजी में किया गया।
डॉ॰ जे. एम. जस्सावला
यह भी लम्बे समय से प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र से जुडे हुए हैं तथा इन्होने प्राकृतिक चिकित्सा के अनुभवों के आधार पर प्राकृतिक चिकित्सकों को अनेकों उच्च कोटि की प्रमाणिक पुस्तकें भी दी है।
डॉ॰ गौरीशंकर
डॉ॰ एम. जस्सावला की तरह इन्होने भी अपने जीवन के लगभग 44 वर्ष प्राकृतिक चिकित्सा संगठनों एवं अन्य रचनात्मक कार्यो में सक्रिय रूप से कार्य करते हुए शिक्षण प्राप्त कर उत्तर प्रदेश में प्रमुख चिकित्सक के रूप में कार्य किया। इन्होने 1980 में महर्षि दयानन्द प्राकृतिक योग प्रतिष्ठान की स्थापना की। इन्होने तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखी।
डॉ॰ जगदीश चन्द्र जौहर
इन्होने सन् 1947 में महात्मा गांधी जी के सम्पर्क में आने पर इस पद्धति की ओर अग्रसर होकर कई महत्वपूर्ण कार्य किए तथा आयुर्वेद का प्रशिक्षण प्राप्त कर सेवा में लग गए। पट्टी कल्याणा प्राकृतिक चिकित्सालय के संस्थापक पं॰ ओम प्रकाश त्रिखा के सम्पर्क में आने से पूर्ण रूप से केवल प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार प्रसार में लग गए। इन्होने बाद में गांधी जी द्वारा लिखी गई पुस्तक 'आरोग्य की कुंजी' की उर्दु में अनुवाद भी किया।
डॉ॰ युगल किशोर चौधरी
इन्होने अपना पूरा जीवन केवल प्राकृतिक चिकित्सा को समर्पित किया तथा इसका प्रचार प्रसार करते हुए तीस से अधिक पुस्तक लिखकर प्राकृतिक चिकित्सा साहित्य को समृद्ध किया। 'मिट्टी चिकित्सा', 'पृथ्वी की अद्भुत रोगनाशक शक्ति' आदि इनके द्वारा रचित प्रमुख पुस्तकें हैं।