पशुपूजा

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हाथी के सिर युक्त गणेश हिन्दुओं के पूज्य हैं। वे विद्या के देवता और संकटमोचक हैं।

पशु के प्रति पूज्य भावना अथवा इस भावना से आचारों तथा कृत्यों का पालन पशुपूजा (Animal worship) है। इन दृष्टि से किसी जाति या व्यक्ति के श्रद्धाभाव के कारण पशुविशेष उस जाति या व्यक्ति की संततियों का प्रतीक भी बन जाता।

पशुसंबंधी अनेक आचारों का प्रचलन संसार के विभिन्न भागों में दूर-दूर तक है। किंतु इनमें सभी आचार पूजाभावना से ही नहीं किए जाते। पूजा के लिए पूज्य के प्रति श्रद्धा और उसके द्वारा शुभता एवं कल्याण की कामना मुख्य विशेषताएँ हैं। आचारों के अनुसार पशुपूजा की विविध कोटियाँ बनाई जाती हैं। इन कोटियों के आधार पर उनके संप्रदायों को वर्गीकृत किया जाता है और ये वर्गीकरण भी उन संप्रदायों में प्रचलित पूजा की मूल भावना पर आधारित होता है। इस भावना के आदिम स्वरूप की व्याख्या के लिए तत्कालीन मानव की आस्था के मूल कारणों की खोज आवश्यक हो जाती है। किंतु एक तो आदिम पशुपूजा के कृत्यों और आचारों के पीछे निहित भावना को ठीक-ठीक जानने का साधन उपलब्ध नहीं है, दूसरे, आधुनिक मानव की मन: स्थिति तबसे नितांत भिन्न है। अत: आधुनिक पशुपूजा की भावनाओं तथा कोटियों के आधार पर आदिम पशुपूजा के मूल कारण के प्रति संभावित दृष्टिकोण ही उपस्थित किए जा सकते हैं जो (1) उपयोगितावादी एवं (2) दैवी अथवा अभौतिक हो सकते हैं।

इतिहास पूर्व अतीत का अंधकारयुगीन मानव आज की अपेक्षा पशुओं के अति निकट था। यह निकटता आत्मीयता और साहचार्यगत उपयोगिता में भी प्रतिफलित हो सकती है और इसके विपरीत वह उनके लिए घातक, भयोत्पादक तथा विपत्तिकर भी सिद्ध हो सकती है। इन्हीं संभावनाओं के अनुसार उपयोगितावादी दृष्टिकोण द्विविध हैं - (1) भय अथवा आत्मरक्षामूलक और (2) स्वार्थमूलक। भय अथवा आत्मरक्षामूलक उपयोगितावादी दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य सदा से अनेक प्राणियों की क्रूरता और शक्ति के आतंक से नतमस्तक होकर उनके प्रति श्रद्धावनत हुआ ताकि वह उनसे अपनी रक्षा कर सके। प्राचीन मिस्र में पवित्र घड़ियाल को चारा खिलाने की प्रथा थी और आधुनिक काल में ऐसी ही प्रथा पश्चिमी अफ्रीका में पाई जाती है। संभवत: आदिमसमाज में भूखे घड़ियाल से हानि के परिणामों पर इस प्रथा का प्रचलन आत्मकल्याण की भावना से हुआ हो। लेकिन हम इसे घड़ियाल की पूजा नहीं कह सकते क्योंकि इससे श्रद्धा का संबंध नहीं है। स्वार्थमूलक उपयोगितावादी दृष्टिकोण के अनुसार पशुपूजा के आचार विशुद्ध स्वार्थभाव से किए जाते हैं ताकि बलिपशु के मांस रूप में भोजन सामग्री सुलभ हो सके। आहारखोजी आदिम मानव जब पूरी तरह मांसाहारी न रहा और शाकाहारी होकर अन्न आदि पर भी निर्भर रहने लगा तब कुछ पशुओं का संबंध धरती की उर्वराशक्ति से जुड़ गया। सर्पपूजा इसी का परिणाम है, क्योंकि वह उस पाताल लोक का निवासी कल्पित है जहाँ से प्राप्त जल द्वारा फसलों तथा वनस्पतियों की सिंचाई होती है और इस प्रकार उसकी कृपा से औषधि, अन्न और संपत्ति के के रूप में विभिन्न खाद्य सामग्रियाँ सुलभ होती हैं। किंतु कुल मिलाकर देवता अथवा दिव्य शक्तियों से पर, विशुद्ध रूप से आत्मरक्षा या स्वार्थ की दृष्टि से पशु के प्रति की जानेवाली स्वतंत्र आदरभावना का अर्थ पूजा नहीं है। इसी प्रकार बलिपशु की हड्डी के प्रति आदर भावना या जीवित पशुविशेष का आदरसूचक नामकरण पशुपूजा से भिन्न दृष्टिकोण के परिणाम हैं।

अमल में पशुपूजा संबंधी दैवी अथवा अभौतिक दृष्टिकोण ही पूजा भावना का मूल कारण हो सकता है। पशुपूजा के कुछ संप्रदाय इस विश्वास के आधार पर विकसित हुए कि कुछ पशुओं का अविच्छिन्न संबंध दिव्य शक्तियों या देवताओं से है और संबंधित देवता को पशुविशेष की पूजा द्वारा प्रसन्न किया जा सकता है। कुछ पशु अपने स्वभाव की विशेषताओं के अनुरूप प्रकृति की तद्वत् विशेषताओं वाली शक्तियों के प्रतीक मान लिए गए। इनके संबंध में पुरावृत्त और पौराणिक आख्यान भी बने। भारत में पशुपूजा आत्मा के विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करने के सिद्धांत से संबधित है। पशुपूजा के कुछ संप्रदाय इस विश्वास के कारण भी चल पड़े कि मनुष्य के पितर मृत्युपरांत पशुयोनि में जन्म ग्रहण करते हैं। इस दृष्टि से पशुपूजा उन विश्वासों या मान्यताओं पर आधारित है जिनके द्वारा "दिव्यपशु" की कल्पना चरितार्थ होती है। इस प्रकार प्रकृति की महान शक्तियों, पितरों, देवताओं अथवा दैवी सृष्टि के प्राणियों का पशुरूप में अवतरित होने की धारणा है जिसके साथ भय और स्वार्थमूलक दृष्टिकोण का मेल परवर्ती है (दे. पशुपूजा, भारत)।

पशुपूजा असामान्य तथा व्यापक रूप से मिस्त्र में प्रचलित हुई। वहाँ प्राय: सभी मुख्य पशु पूजा के पात्र थे जिनमें कुछ पशुओं की पूजा का स्वरूप आंचलिक था और कुछ का सार्वभौम। इसके विपरीत कुछ अंचलों में पूजित पशु दूसरे अंचलों में घृणा का पात्र भी था। पशुपूजा की यह भावना इतनी बढ़ी कि जाने या अनजाने उनकी हत्या करनेवालों का मृत्युदंड तक दिया गया। बाज पक्षी तथा बिल्ली इसी प्रकार के सर्वपूज्य जीव थे। कहते हैं, रोम के राजनीतिक दबाव में होने पर भी जब एक रोमी सैनिक ने मिस्त्र में बिल्ली की हत्या कर दी तो रोम के सम्राट के अनुरोध को भी ठुकराकर मिस्त्री शासक ने उसे प्राणदंड दिया था। मिस्त्र में कुछ पशु तो देवताविशेष के प्रतीक ही नहीं, अवतार तक माने जाते थे। साँड़ और बकरे ऐसे ही पशु थे और इनकी पूजा संबंधित देवता अथवा उनके प्रतीक रूप में सर्वत्र व्याप्त थी। पशुपूजा (भारत) पशुपूजा को प्राय: देवी देवताओं की आराधना से संबद्ध किया जाता है। पुराणों तथा प्रचलित साहित्य में विभिन्न देवी देवताओं की शक्ति और उनके विशिष्ट लक्षणों के विषय में अनेक कथाएँ मिलती हैं। उनसे संबंधित अनेक किंवदंतियाँ भी प्रचलित हैं। (कालांतर से वैदिक भारत में कुछ मूलत: वैदिक देवी देवताओं के महत्व में ह्रास किंतु इनमें स कुछ को नई मान्यता प्राप्त हुठ और बहुत समय बाद युगों पुरानी पंरपराओं और लोकवार्ताओं में वर्णित बहुत से देवी देवताओं को वेदों में प्रधानता दी गई। अत: बाद के इन देवी देवताओं में से अधिकांश अनार्य मूल के रहे होंगे।) प्राचीन वैदिक परंपराओं में आस्था रखनेवाले अधिकांश भारतीय जन बहुत से पशुओं को देवी देवताओं के वाहन के रूप में पवित्र मानते हैं। पशुओं की पवित्रता विषयक इस धारणा का टोटम वाद (गणचिन्हवाद) नहीं कहा जा सकता। पशु इसलिए पवित्र नहीं मान जाते कि उनकी मानव प्राणियों से नातेदारी है वरन् इसलिए कि उनका उपयोग विभिन्न देवी देवताओं ने वाहन के रूप में किया है और करते हैं। दुर्गा और सिंह, शिव और वृषभ, गणेश और चूहा, कार्तिक और मयूर, लक्ष्मी और उल्लू, सरस्वती और हंस और इसी प्रकार अन्य देवी देवता क्रमश: अन्य पशु पक्षियों से संबंधित माने गए हैं। ब्रह्मा का वाहन हंस, काम का मकर, अग्नि का भेड़ और वरुण का मत्स्य है। हिंदू पुरावृत्त में इन पशुओं का विशेष स्थान है और देवी देवताओं की मूर्तियों में इन्हें भी अंकित किया जाता है गाय के प्रति हिंदुओं की भावनाएँ भिन्न प्रकार की रही हैं। भवभूतिकृत उत्तर रामचरित में वशिष्ठ मुनि के आश्रम में राज्यपरिवर के वनागमन के उपलक्ष्य में किए गए भोज का वर्णन मिलता है। चरक संहिता में भी मुर्गी के मांस का समर्थन अत्यंत पौष्टिक भोजन के रूप में किया गया है किंतु बाद में गाय के प्रति विशेष भावनाओं का उदय हुआ। माता के समान दूध देनेवाली गाय को माता तुल्य व्यवहार की पात्री समझा गया और तभी से गोपूजा और गोमांस विरोध का बीजारोपण हुआ।

हिंदू पुरावृत्त और गार्हस्थ्य जीवन में सर्प का महत्व सदा ही माना गया है। शेषनाग की कल्पना उस विशालकाय सर्प के रूप में की गई है जो पृथ्वी माता को अपने सहस्त्र फणों पर धारण किए हुए है। एक पौराणिक कथा के अनुसार विश्वव्यापी प्रलय के समय विष्णु और लक्ष्मी भी शेषशय्या पर आरूढ़ हुए थे। किंतु सर्प का महत्व केवल पौराणिक ही नहीं है। आज भी कुछ दूरस्थ ग्राम्य परिवारों में किसी सर्पविशेष की पूजा गृहदेवता के रूप में की जाती है। किंतु इसमें भी टोटमी (गणचिन्हीय) विश्वास परिलक्षित नहीं हाते। यद्यपि पुनर्जन्म के सिद्धांत को सभी प्रमुख भारतीय चिंतनप्रणालियों मे मान्यता दी गई है और जन्मजन्मांतरों में आत्मा के पशुओं और पौधों में प्रवेश की कल्पना की गई है, तथापि यह विश्वास भारत में पशुपूजा का आधार कभी नहीं रहा। पशुपूजकों ने पशु और मानव में कोई नातेदारी नहीं देखी। पशुओं तथा पेड़ पौधों में आत्मा के प्रवेश का विश्वास केवल सैद्धांतिक रूप में माना गया है। दार्शनिकों ने इस सिद्धांत के नैतिक पक्ष पर बल दिया है किंतु मानव प्रणालियों के प्रसंग में।

यद्यपि वेदवर्णित पशुपूजा के अनार्य मूल के संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, तथापि देश के दूरस्थ प्रदेशों में वास करनेवाले अनार्य कबीलों में पशुपूजा और प्रचलन आज भी है, या निकट भूत में था। यहाँ विशिष्ट देवी देवताओं से सबंद्ध वृक्षों की पवित्रता संबंधी विश्वासों का उल्लेख भी अप्रासंगिक न होगा। ऐसे वृक्षों में अश्वत्थ, वट, बिल्व, वकुल, हरीतकी, आँवला, नीम और तुलसी मुख्य हैं। कहीं कहीं तुलसी को नारायणभक्त कहा गया है। विलियम क्रुक ने ऐसे बहुत से द्रविड़ भाषाभाषी कबीलों का वर्णन किया है जो पशुविशेष से नाता जोड़ते हैं। इन विश्वासों का मूल निश्चय ही टोटमी है। चूँकि मिर्जापुर की घंघर जाति के लकड़ा कुल के नामकरण का आधार एक प्रकार का चीता है, अत: उस कुल के सदस्य चीते का मांस नहीं खाते। बड़ कुल के लोगों में वट वृक्ष की पत्तियाँ खाना निषिद्ध है। पंजाब के सर्प कबीले में प्रत्येक सोमवार और बृहस्पतिवार को सर्पपूजन के निमित्त दूध चावल पकाए जाते हैं। ऐसे किसी दिन मरे पाए जानेवाले सर्प पर फूल चढ़ाए जाते हैं और उसका सादर दाहसंस्कार किया जाता है। बहुत से जातिनामों का आधार भी बिल्ली, चूहा, बगुला, अजगर आदि पशु हैं। रामायण और महाभारत में सूर्य और चंद्रमा से जन्मे राजाओं की कथाएँ मिलती हैं। कुछ कथाओं में राजपुत्रों का जन्म अनहोनी पस्थितियों में होता दिखाया गया है। उदाहरणार्थ एक कथा में साठ हजार पुत्रों का जन्म कद्दू से होता है। राजस्थान के जैतवा अपने को वानर (हनुमान) का वंशज बताते हैं। विंध्य पठार की चेरो जाति में नाग से उत्पत्ति का विश्वास पाया जाता है। छाटा नागपुर के राजा और प्रधान, सिर पर, कुंडली मारकर बैठे सर्प की अनुकृति में, साफा बाँधते हैं। एक संथाली किंवदंती के अनुसार इस कबीले की उत्पत्ति जंगली बत्तख से हुई है।

बंगाल के बावरियों का टोटमी चिन्ह बगुला है और इसलिए वह बगुले का मांस नहीं खाते। उड़ीसा के कुम्हार साल मछली की पूजा करते हैं और उसका मांस नहीं खाते। खंडों और जाटों का गणचिन्ह मोर है।

पुराणों में देवताओं के पशुरूप में अवतरण की कथाएँ मिलती हैं। भगवान विष्णु वाराह, कूर्म और मत्स्य रूप में अवतरित हुए थे। हिंदू समाज में इन अवतारों का आदरपूर्ण स्थान है।