पर्वतीय वर्षा

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उष्ण एवं आर्द हवाएं जब पर्वतिय भागों से अवरुद्ध होती हैं, तो उनके ढाल के सहारे ऊपर उठने लगती हैं, जिस कारण "शुष्क एडियाबेटिक दर" से प्रति १००० फीट पर वायु का ५.५ डिग्री फा० तापक्रम कम होने लगता हैं, जिस कारण वायु ठंडी होती जाती हैं और उसकी सापेक्षित आर्द्रता बड़नें लगती हैं। अधिक ऊपर जानें से वायु संतप्त हो जाती हैं तथा पुनः ऊपर उठनें पर संघनन प्रारम्भ हो जाता है, जिस कारण संघनन की गुप्त ऊष्मा वायु में मिल जाती हैं, जिससे वायु पुनः ऊपर उठने लगती हैं और अन्ततः उस सीमा को पहुच जाती हैं जहां पर स्थित वायु का तापक्रम इसके बराबर हो जाता हैं और हवा आर्द्र एडियाबेटिक ताप-पतन दर(प्रति १००० फीट पर ३.६ डिग्री फा०) से ठंडी होकर बढ़ती ऊचाई पर भी वर्षा करती जाती हैं। पर्वत के जिस ढ़ाल पर गवा टकराती हैं, उसे पवनमुखी ढ़ाल कहतें हैं तथा वर्षा इसी ढ़ाल पर होती हैं। इसे व्रष्टि ढाल भी कहा जाता हैं। पर्वत के जिस ढाल के सहारे हवा नीचे उतरती हैं, उसे पवन विमुखी ढाल कहते हैं।