पंचांग पद्धति

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अयनांश

जगत् के सब पंचांगों की उत्पत्ति प्राचीन काल में धार्मिक क्रियाओं के समय निश्चित करने के लिए हुई है। बाद में उनमें सामाजिक उत्सव और वर्तमान काल में राजकीय महत्व के कार्यक्रम भी शामिल किए गए हैं। हमारे समस्त प्राचीन सामाजिक उत्सवों को भी धार्मिक स्वरूप दिया गया है। हमारे भारत देश में कई शताब्दियों से विविध धर्म प्रचलित हैं। इससे हमारे पंचांग भी विविध प्रकार के बने हैं। इनके मुख्य प्रकार (1) हिंदू, (2) इस्लाम, (3) पारसी और (4) खिष्टीय है। आज के हिंदू पंचांगों के भी करीब 30 प्रकार पाए जाते हैं। हिंदू पंचांगों के अतिरिक्त अन्य (इस्लामी आदि) पंचांगों में गणित का विषय बहुत कम आता है, इससे हमारी अधिकतर चर्चा हिंदू पंचांगों के विषय में ही होगी। अत: इस लेख में, जहाँ अन्यथा न कहा गया हो, वहाँ "पंचांग" शब्द से हिंदू पंचांग ही समझना चाहिए।

गणित की सूक्ष्मता

हमारे पंचांगों में उत्सवों और व्रतों के अतिरिक्त ग्रहण, सूर्योदयास्त, इष्ट घटनाओं के समय, आकाश में ग्रहों की स्थिति इत्यादि खगोलीय विषय दिए जाते हैं। खगोलशास्त्र आजकल पश्चिम में इतनी उन्नत स्थिति में आ गया है कि वहाँ के पंचांगों में दिए हुए खगोलीय घटनाओं के समय आकाशस्थित ग्रहों की प्रत्यक्ष घटनाओं के साथ सेकंड तक बराबर मिल जाते हैं और यहाँ हमारे पंचांगों का गणित इतना स्थूल हो गया है कि उनके ग्रहणों में डेढ़ घंटे तक का अंतर पाया जाता है। इसका कारण यह है कि जिन ग्रंथों से हमारे पंचांग बनते हैं वे कम से कम 500 वर्ष पुराने हैं और इन 500 वर्षों में पश्चिम में गणित ज्योतिष में बहुत उन्नति हो गई है। इससे हमारे पंचांगों का गणित अर्बाचीन गणित ज्योतिष शास्त्र से करना चाहिए, जिससे वह प्रत्यक्ष आकाश के अनुसार यथार्थ उतरे। ऐसे गणित को "प्रत्यक्ष" या "इक्तुल्य" गणित या "दृग्गणित" कहते हैं। आज गुजरात और महाराष्ट्र में समस्त पंचांग प्रत्यक्ष गणित से बनाए जाते हैं। पर भारत के अन्यान्य प्रदेशों में प्रत्यक्ष गणित से बहुत कम पंचांग बनाए जाते हैं।

किंतु केवल प्रत्यक्ष गणित से हमारे पंचांगों का प्रश्न हल नहीं हो सकता। हमारे पंचांग सूर्यचंद्र की आकाशीय स्थिति के अनुसार बनाए जाते हैं और इनमें अन्य ग्रहों की स्थिति भी दी रहती है। स्थिति बतलाने की रीति यह है कि आकाश की एक निश्चित रेखा के ऊपर एक निश्चित बिंदु से ग्रहों के अंतर नापे जाते हैं ओर ये अंतर पंचांगों में दिए जाते हैं। उस निश्चित रेखा को "क्रांतिवृत्त", निश्चित बिंदु को "आरंभस्थान" और वहाँ से ग्रह के अंतर को "भोग" कहते हैं। पाश्चात्यों का आरंभस्थान निश्चित है और वह वसंतसंपात है। मगर हमारे पंचांग का आरंभस्थान कौन सा बिंदु हो, इस विषय में हमारे पंडितों में बहुत मतभेद है। वसंतसंपात और हमारे आरंभस्थान के बीच में जो अंतर है, उसकी "अयनांश" कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अयनांश कितना है इस विषय में हमारे पंडितों में मतभेद है। अयनांश के निश्चय के बिना आरंभस्थान का निश्चय नहीं होता और आरंभस्थान के निश्चय के बिना पंचांग बन नहीं सकता। अत: अयनांश हमारे पंचांग की महत्वपूर्ण समस्या है।

सायन, निरयण - जिस पंचांग में वसंतसंपात को आरंभस्थान माना जाता है, उसको "सायन" पंचांग कहते हैं और जिस पंचांग में इस संपात के अतिरिक्त किसी और बिंदु को आरंभस्थान माना जाता है, उसको "निरयण" पंचांग कहते हैं। वसंतसंपात, दक्षिणायन, शरत्संपात और उत्तरायण, ये चार बिंदु क्रांतिवृत्त के ऊपर अनुक्रम से 90-90 अंश के अंतर से आए हैं। सूर्य स्थिर है, मगर पृथ्वी सूर्य के चारों और एक वर्ष में पूरा एक चक्कर लगाती है। परंतु हमें भ्रमवश ऐसा भासित होता है कि सूर्य ही हमारे चारों ओर घूम रहा है। सूर्य के इस भासमान वार्षिक मार्ग को "क्रांतिवृत्त" कहते हैं। इस मार्ग पर सूर्य एक वर्ष में पश्चिम से पूर्व की ओर भ्रमण करता हुआ हमको दिखाई देता है।

दो संपात और दो अयन, ये चार बिंदु स्थिर नहीं, किंतु ये सब वार्षिक 50 विकला की बहुत छोटी गति से सतत पश्चिम की ओर वापस जा रहे हैं। ऋतुएँ, दिन और रात्रि का बढ़ना घटना, इन सब घटनाओं का आधार ये चार बिंदु हैं, अर्थात् जब सूर्य इन बिंदुओं के पास आता है, तब ये घटनाएँ होती हैं। इससे ऋतु, दिनमान, इत्यादि सायन वर्ष के अनुसार होते हैं। सायन वर्ष का मान 365 दिवस, 5 घंटे, 48 मिनट और 46 सेकंड है।

निरयण पंचांग का आरंभस्थान संपात के सिवाय कोई भी स्थिर या अस्थिर बिंदु हो सकता है। इससे जहाँ स्थिर आरंभस्थान विवक्षित हो, वहाँ असंदिग्धता के लिए "निरयण" के स्थान पर "नाक्षत्र" शब्द का प्रयोग करना अधिक अच्छा है। तथापि "नाक्षत्र" के अर्थ में "निरयण" शब्द बहुत प्रयुक्त किया जाता है। तारे स्थिर हैं, इससे सूर्य किसी एक तारा, या स्थिर बिंदु से चलकर जितने समय के बाद फिर उस स्थिर बिंदु या तारा के पास पहुँचे उतने समय को "नाक्षत्र" वर्ष कहते हैं। नाक्षत्र वर्ष का मान 365 दिन, 6 घंटे, 9 मिनट और 10 सेकंड है। तारे दृश्य और स्थिर हैं, उनके संबंध में ग्रहों के आकाशीय स्थान नाक्षत्रपद्धति से हम बतला सकते हैं। यह नाक्षत्रपद्धति का विशेष उपयोग है। सायन वर्ष नाक्षत्र वर्ष से 20 मिनट और 24 सेकंड छोटा है।

हमारे पुराने ढंग के पंचांगों में, जो वर्षमान लिया जाता है, वह 365 दिन, 6 घंटे, 12 मिनट और 36 सेकंड है। यह न शुद्ध सायन है और न शुद्ध नाक्षत्र। यह शुद्ध सायन वर्ष से लगभग 24 मिनट और शुद्ध नाक्षत्र वर्ष से लगभग मिनट बड़ा है। यह वर्षमान लेने के कारण हमारी ऋतुएँ और तारों के बीच में ग्रहों के स्थान, ये सब हमारे प्रत्यक्ष अवलोकन और अनुभव से भिन्न आते हैं।

पंचांग के विषय

ऐसी स्थिति में हमको क्या करना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर देने के पहले हमारे लिए यह जान लेना आवश्यक है कि हमारे पंचांग में कौन कौन से विषय आते हैं। पंचांग अर्थात् पाँच अंग ये हैं : तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण।

"तिथि" पूर्ण चंद्रबिंब का 15वाँ हिस्सा ओर "करण" 30वाँ हिस्सा बतलाता है। "वार" एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का समय बतलाता है। "नक्षत्र" क्रांतिवृत्त का 27वाँ हिस्सा और "राशि" 30वाँ हिस्सा हैं। "योग" सूर्य और चंद्र के भोगों का योग है। इसका कारण समझने के लिए खगोल की एक दो अन्य बातें जान लेना आवश्यक है।

आकाश का जो गुंबद जैसा गोलार्ध भाग हमें पृथ्वी पर ढक्कन सरीखा रखा हुआ भासित होता है, उसको नीचे की ओर बढ़ाकर यदि पूर्ण गोल किया जाय, तो उसे हम खगोल कहेंगे। पृथ्वी के विषुवत्त के तल को यदि चारों ओर बढ़ाया जाय, तो वह खगोल को एक वृत्त में काटेगा। इस वृत्त को हम "आकाशीय विषुववृत्त" कहेंगे। आकाश में दिखाई देनेवाले किसी पिंड का आकाशीय विषुववृत्त से, उत्तर या दक्षिण, जो अंतर होता है, यह उस पिंड की क्रांति (declination) कही जाती है। गणितशास्त्र का नियम है कि जब किसी दो पिंडों के भोगांशी (celestial longitudes) का योग या वियोग (अंतर) 0 या 180 अंश होता है, तब उन दो पिंडों की क्रांति समान होती है और इसको "क्रांतिसाम्य" कहते हैं। सूर्यचंद्र के क्रांतिसाम्य का समय निकालना, पंचांग के "याग" अंग का उद्देश्य है।

इतना समझने के बाद हम यह सोच सकते हैं कि हमारा पंचांग सायन अथवा किस अयनांश का निरयण (नाक्षत्र) होना चाहिए। खगोल संबंधी कुछ ही विषय ऐसे हैं जिनमें सायन और निरयण का कोई संबंध नहीं रहता, अत: उनमें कहीं कोई मतभेद नहीं है, उदाहरणार्थ वार। जो विषय दो ग्रहों के अंतर पर निर्भर हैं, उनमें भी मतभेद नहीं है, क्योंकि ग्रहों के सायन और निरयण अंतर समान होते हैं। इसका कारण यह है कि भोगों का अंतर लेने में अयनांश वियोग क्रिया में उड़ जाता है। ऐसे विषय है तिथि और करण। इन दोनों में सूर्य और चंद्र का अंतर लेना पड़ता है ग्रहण भी ऐसा ही विषय है। सूर्य के पास यदि कोई अन्य ग्रह आए, तो वह दिखाई नहीं देता और जब वह फिर सूर्य से दूर चला जाता है, तब पुन: दिखाई देने लगता है। इन घटनाओं को ग्रहों का "लोपदर्शन" अथवा "उदयास्त" कहते हैं। ये घटनाएँ सूर्य और ग्रह के बीच के अंतर पर निर्भर करती है, इससे इनमें भी सायन निरयण दोनों प्रकर के गणितों से एक ही उत्तर आता है।

सूर्य, चंद्र इत्यादि के दैनिक उदय और अस्त के साथ भी सायन या निरयण पद्धति का कोई संबंध नहीं। समस्त ग्रह, ताराओं के बीच, पश्चिम से पूर्व की ओर चलते हैं, मगर हमारे दृष्टिभ्रम के कारण कभी कभी वे हमको कुछ समय तक उलटी गति से, अर्थात् पूर्व से पश्चिम की ओर, चलते दिखाई देते हैं। इनकी ऐसी गति को "वक्री" गति कहते हैं। इस घटना के साथ भी सायन या निरयण पद्धति का कोई संबंध नहीं।

इस प्रकार पंचांग के कुछ विषयों का सायन और निरयण पद्धति से कोई संबंध नहीं है और कुछ विषय ऐसे हैं जिनके सायन और निरयण गणितों के परिणाम समान आते हैं। इन दोनों प्रकारों के विषयों में सायन और निरयण का मतभेद नहीं। अब ऐसे विषय रहे जिनका सायन गणित और भिन्न भिन्न अयनांशों के निरयण गणित, ये सब एक दूसरे से भिन्न आते हैं। ऐसे विषयों में हमको क्या करना चाहिए, अब इसपर विचार करना आवश्यक है।

उत्तरायण, दक्षिणायन और वसंतादि ऋतुओं का संबंध सायन गणना के साथ है। निरयण गणना के साथ इनका संबंध नहीं है। इससे इन विषयों को सायन गणना के अनुसार ही निर्णीत करना चाहिए। उदाहरणत:, उत्तरायण और शिशिर ऋतु का आरंभ 22 दिसम्बर से ही मानना चाहिए, 14 जनवरी से नहीं। इससे उलटे विषय हैं अश्विनी, भरणी आदि नक्षत्र और मेष, वृषभ आदि राशियाँ। ये सब तारों के समुदाय हैं। ये तारे स्थिर हैं, इससे इनका गणित स्थिर आरंभस्थानवाली नाक्षत्र (निरयण) गणना से करना चाहिए, जिससे तारों के बीच में ग्रहों के स्थान यथार्थता से निर्दिष्ट हो सकें।

जब निरयण गणना की बात आती हैं, तब उसके स्थिर आरंभस्थान का अर्थात् अयनांश का प्रश्न स्वाभाविक ही उत्पन्न होता है। संपात और अयन निसर्गसिद्ध हैं, इस संबंध में कोई मतभेद नहीं है। निरयण गणना का स्थिर आरंभस्थान संपात के सदृश नैसर्गिक नहीं, मगर वह सांकेतिक प्रकार से बहुजनसम्मति से कोई भी लिया जा सकता है। यद्यपि इस विषय में हमारे पंडितों का ऐकमत्य नहीं हुआ, तथापि भारत शासननियुक्त "पंचांग संशोधन सीमिति" (कैलेंडर रिफॉर्म कमिटी) ने जिस अयनांश की सिफारिश की है, उसे अब धीरे धीरे सभी पंचांगकार प्रयुक्त कर रहे हैं। वह इस प्रकार से है : 1963 ई. के प्रारंभ (जनवरी, 1) का अयनांश 23 डिग्री 20 मिनट 24.29 सेकेण्ड और वार्षिक अयनगति, अर्थात् अयनांश की वृद्धि = 50.27सेकेण्ड। इस वार्षिक गति से अयनांश भविष्य काल में सर्वदा बढ़ते रहते हैं। यदि भूतकाल का अनांश चाहें, तो इस गति से घटाकर लेना चाहिए।

पंचांग के अश्विनी आदि नक्षत्र और मेषादि राशियाँ क्रांतिवृत्त के समान विभाग हैं, मगर आकाश के अश्विनी आदि और मेषादि तारापुंज आकाश में समान विस्तारवाले नहीं है। ये समान अंतर पर भी स्थित नहीं हैं, अत: पंचांगस्थ और आकाशस्थ नक्षत्रों और राशियों में पूर्ण सादृश्य रहना संभव नहीं है। तथापि यथोचित स्थिर आरंभस्थान लेने से यह सादृश्य लगभग आ जाता है। संपात और अयन चल बिंदु हैं, अत: इनको आरंभस्थान मानने से पंचांग के और आकाश के नक्षत्रों और राशियों का सादृश्य कुछ समय के बाद नहीं रह जाएगा, यह स्पष्ट है।

पंचांग के दैनिक (विष्कंभादि) योगों का उद्देश्य सूर्य चंद्र का क्रांतिसाम्य है, यह ऊपर बतलाया गया है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह गणित सायन पद्धति से करना चाहिए, यह भी समझाया गया है। इसमें और भी एक बात है। विष्कंभादि योगों में व्यतिपात 17वाँ योग है। इसे गणित सिद्धांत के अनुसार 14वाँ रखना चाहिए। इसका कारण, जैसा हमने ऊपर बतलाया है, यह है कि योग 0 (360) अंश अथवा 180 अंश होना चाहिए। सूर्य चंद्र के क्रांतिसाम्य को "महापात" कहते हैं, जो "व्यतिपात" और "वैधृत" नाम से प्रसिद्ध हैं। उनमें वैधृति 27वाँ योग है, जिसकी समाप्ति 360 डिग्री पर होती है। 180 डिग्री पर 13 योग होते हैं। इससे व्यतिपात 14वाँ योग होना चाहिए, मगर वह 17वाँ है। अतएव उपर्युक्त परिवर्तन आवश्यक है।

अधिक, क्षय और चांद्र मासों के नाम एवं वर्षमान

"पंचांग" शीर्षक लेख में बतलाया गया है कि "वर्ष" नामक कालमान का हेतु वसंतादि ऋतु बतलाने का है, इससे वर्षमान सायन लेना चाहिए। इसके और भी कारण हैं। हमारे बहुत से सामाजिक उत्सव और धार्मिक कृत्य ऋतुओं के ऊपर निर्भर हैं, जैसे शरत्पूर्णिम, वसंतपंचमी, शीतलजलयुक्त घटदान, शरद् के श्राद्ध का पायस भोजन, वसंत का निंबभक्षण, शरद् का नवान्नभक्षण इत्यादि। ये सब चांद्र मास के ऊपर निर्भर हैं, चांद्रमास अधिक मास पर निर्भर हैं, अधिक मास सौर संक्रांति के ऊपर निर्भर हैं और सौर संक्रांति वर्षमान के ऊपर निर्भर है। यदि हमारा वर्षमान सायन न हो, तो हमारे सब उत्सव और व्रत गलत ऋतुओं में चले जायेंगें। अंतिम 1.500 वर्षों में, अर्थात् आर्यभट से लेकर आज तक तक की अवधि में हमारा, वर्षमान सायन रहने के कारण हमारे व्रतों और उत्सवों में लगभग 23 दिनों का अंतर पड़ गया है। इस अंतर को हम "अयनांश" कहते हैं। यदि यही स्थिति भविष्य में भी बनी रही तो हमारी शरत्पूर्णिमा वसंत ऋतु में और हमारी वसंतपंचमी शरद्ऋतु में आ जायगी। इस असंगति को दूर करने का एक ही उपाय है और वह है सायन वर्षमान का अनुसरण। यह अनुसरण हम दो प्रकार से कर सकते हैं :

(1) "शुद्ध सायन" और (2) "विशिष्ट सायन"।

1. शुद्ध सायन - यह सुविदित है। वह वसंतसंपात से आरंभ होकर फिर वसंतासंपात पर समाप्त होता है। इसमें अयनांश सर्वदा. (शून्य) रहता है। वर्तमान हिंदू पंचांग पद्धति के निर्माता आर्यभट के समय में, जो उत्सव जिन ऋतुओं में पड़ा करते थे, वे उत्सव उन्हीं ऋतुओं में आज भी पड़ेंगे। मगर इस पद्धति के अधिक मास वर्तमान प्रणाली के अधिक मासों से भिन्न आएँगे। हमारे आज के ज्योतिषी वर्ग में "पंचांगवाद" का ज्ञान अल्प होने और भिन्न अधिक मास के कारण उत्सव भिन्न मासों में आने से (प्रचलित पद्धति के अनुसार) शुद्ध सायन पंचांग का प्रचार नहीं होता। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पंचांग के अश्विनी आदि नक्षत्र और मेषादि राशियाँ तो नाक्षत्र (निरयण) ही रहेंगी। ही रहेंगी। सायण संक्रांतियों का उपयोग अधिक मास और चांद्र मास नाम के निर्णय के लिए होगा, जैसा आज भी अयनों और ऋतुओं के लिए उनका उपयोग होता है।

2. विशिष्ट सायन - शुद्ध सायन पंचांग का प्रचार आज कठिन है, इसलिए भारत सरकार द्वारा नियुक्त पंचांग संशोधन समिति ने विशिष्ट सायन मार्ग की संस्तुति की है। इस मार्ग में भी वर्षमान तो सायन ही रहेगा, मगर अयनांश 23 अंश स्थिर रहेगा। इसका परिणाम यह होगा कि हमारे उत्सवों में और उनसे संबद्ध ऋतुओं में लगभग 23 दिनों का जो अंतर आज आता है, वह भविष्य में स्थिर रहेगा और बढ़ेगा नहीं। दूसरा परिणाम यह होगा कि आज की प्रचलित पद्धति से जो अधिक मास आते है वे ही भविष्य में भी कुछ वर्षों तक आते रहेंगे, परंतु आगे धीरे धीरे उनमें भिन्नता बढ़ती जायगी। आज की प्रचलित पद्धति और शुद्ध सायन पद्धति इन दोनों के बीच का मध्यम मार्ग है।

इस पद्धति के अश्विनी और मेष तथा आकाश के इन नामों के तारापुंजों में प्राय: वैसा ही सादृश्य रहेगा जैसा आजकल वर्तमान है। मगर कुछ समय के बाद उनमें बहुत अंतर पड़ जायगा। वैसी अवस्था आने पर इसका उपाय भी सोचा जायगा, जिसमें हमारे आजकल के आरंभस्थान मेष और अश्विनी के बदले मीन और उत्तरा भाद्रपदा इत्यादि को आरंभस्थान मानने की व्यवथा रहेगी। इस प्रकार की युक्तियों से, पंचांग सायन रहने पर भी, पंचांग के और आकाश के नक्षत्रों का संबंध कालांतर में भी ठीक बना रहेगा। अधिकांश जनता का संबंध ऋतुओं के साथ है। तारादिकों का संबंध केवल पंडित लोगों से है, जिनका अनुपात जनसाधारण में अत्यल्प है। वे विद्वान् हैं अत: तारों की यथार्थ गणना के लिए कोई अन्य व्यवस्था कर सकते हैं।

(1) भारत सरकार द्वारा नियुक्त पंचांग संशोधन समिति का "राष्ट्रीय पंचांग" इस विशिष्ट सायन मार्ग का एक उदाहरण है, यह ऊपर बतलाया गया है। यह मार्ग चांद्र मासों की व्यवस्था के लिए है। "राष्ट्रीय पंचांग" की दिनगणना के लिए सौर मास और प्रत्येक मास की निश्चित दिनसंख्या रखी गई है (अंगरेजी मासों की तरह), जिससे तिथियों के वृद्धि क्षय और अधिक मास की गड़बड़ी नहीं रहती। यह व्यवस्था केवल व्यावहारिक दिनगणना के लिए है। धार्मिक व्रतों लिए चांद्र मास, अधिक मास, तिथि इत्यादि तो हैं ही। दिनगणना में वर्ष के दिन 365 और प्रति चार वर्ष में एक वर्ष के 366 दिन होते है। इससे राष्ट्रीय दिनांकों का मेल अँगरेजी तारीखों से हमेशा बना रहता है, जैसा नीचे की तालिका में बतलाया गया है।

राष्ट्रीय		ग्रैगोरियन		 मास दिनसंख्या
मास	 दिनांक	मास	तारीख	
चैत्र	 1	मार्च	22 या 21 30 या 31
बैशाख	 1	ऐप्रिल	21	 31
ज्येष्ठ	 1	मई	22	 31
आषाढ़	 1	जून	22	 31
श्रावण	 1	जुलाई	23	 31
भाद्रपद	 1	अगस्त	23	 31
आश्विन	 1	सितंबर	23	 30
कार्तिक	 1	अक्टूबर	23	 30
अग्रहायण 1	नवंबर	22	 30
पौष	 1	दिसंबर	22	 30
माघ	 1	जनवरी	21	 30
फाल्गुन	 1	फरवरी	20	 30

अँगरेजी लीप वर्ष (Leap year) के अनुसार ही चैत्र के दिन 30 या 31 रखे गए हैं। इसका नियम यह है कि वर्ष के शालिवाहन शक के वर्ष में 78 बढ़ाए जाऐं और इस योग को ईसवी सन् का वर्ष मानकर, आगे ग्रेगोरो पंचांग के अनुसार लीप वर्ष रखा जाय। लीप वर्ष में चैत्र का प्रारम्भ 21 मार्च को होता है और चैत्र के दिन 31 होते हैं। सामान्य वर्ष में चैत्र का प्रारंभ 22 मार्च को होता है और चैत्र के दिन 30 होते हैं।

ग्रेगोरी लोप वर्ष के नियम सुविदित हैं। जिस वर्ष की संख्या को 4 से नि:शेष भाग दे सकें, वह लीप वर्ष है और अन्य वर्ष सामान्य हैं। मगर शताब्दियों के वर्षों में जिस वर्ष की संख्या को 400 से नि:शेष भाग दे सकें वह वर्ष लीप है और अन्य शताब्दी वर्ष सामान्य हैं। उदाहरणत:, ग्रेगोरी वर्ष 1963 और 1900 सामान्य हैं और 1964 और 200 लीप हैं।

शालिवाहन शक वर्ष 1885, 1822, 1886 और 1922 में 78 बढ़ाने से क्रमानुसार 1963, 1900, 1964 और 2000 आते हैं इन ग्रेगोरी वर्षों के सामान्य लीप की जो व्यवस्था ऊपर बतलाई गई है, वही व्यवस्था अनुक्रम से शालिवाहन शक वर्ष 1885, 1822, 1886 और 1922 है।

उपर्युक्त व्यवस्था दिनगणना के लिए है। व्रतोत्सवो के लिए चांद्र मास, अधिक मास और तिथि का भी विचार किया जाता है और इसके लिए 23 स्थिर अयनांश लिए जाते हैं। स्थिर अयनांश के कारण हमारे व्रतोत्सव आज जिन ऋतुओं में पड़ते हैं, उन्हीं ऋतुओं में वे निरंतर पड़ते रहेंगे।

इस्लामी (हिजरी) पंचाग

इस्मलामी (हिजरी) पंचांग के वर्ष में 12 चांद्र मास होते है। इसमें अधिक मास नहीं होते। अत: 33 वर्षों में सब मासों में सब ऋतुएँ आ जाती हैं। ऐसी स्थिति व्यवहार के लिए और विशेषकर कृषि के लिए प्रतिकूल है। अत: प्रचलित इस्लामी पंचांग के मास और उनकी तारीखों को धार्मिक त्यौहारों के लिए रखकर व्यावहारिक कार्यों के लिए किसी प्रकार का सायन सौर पंचांग रखना हितावह होगा। ऐसा सायन सौर पंचांग बनाना कठिन नहीं, जिसमें इस्लामी परंपरा भी सुरक्षित रहे। इस प्रकार के प्रयत्न इस्लामी इतिहास के भूतकाल में किए जा चुके हैं, मगर वे निष्फल रहे। अब इस प्रकार के सफल प्रयत्न होने चाहिए।

इस्लामी मास की पहली तारीख अमावस्या के बाद प्रथम चंद्रदर्शन होनेवाली संध्या को पड़ती है और महिना 29.30 दिनों का, परवर्ती चंद्रदर्शन के पूर्व तक का, होता है। इस प्रकार किसी इस्लामी मास में 29 और किसी मास में 30 दिन होते हैं। मध्यम मान से एक चांद्र मास में 29.53 दिन होते हैं। इससे 12 चांद्र मासों के एक वर्ष में 354 दिन और 36 चांद्र मासों के तीन वर्षों में 1,063 दिन होते हैं।

पारसी पंचांग

पारसी पंचांग में वर्ष में 12 मास और मास में 30 दिन होते हैं। 12 मास के बाद पाँच दिन "गाथा" की धार्मिक क्रिया के लिए रखे जाते हैं। इस प्रकार एक वर्ष में 365 दिन होते हैं। वैसे यह पंचांग सौर है, मगर ग्रेगोरी पंचांग की भाँति चौथे वर्ष लीप वर्ष नहीं रखा जाता, परंतु 120 वर्षों के बाद एक अधिक मास रखा जाता है। इससे ऋतुओं के साथ मासों का अंतर एक मास से अधिक कभी नहीं होता। तथापि यदि हम व्यवस्था के बदले प्रति चार वर्षों पर पाँच दिनों की गाथा के बदले छह दिनों की गाथा रखी जाय, तो पारसी तारीखों और ऋतुओं में एक शताब्दी में एक दिन से कम का अंतर पड़ा करेगा और यदि ग्रेगोरी पंचांग की शताब्दी की "लीप" वर्ष की योजना पारसी पंचांग में स्वीकृत की जाय, तो पारसी पंचांग की तारीखों का ऋतुओं के साथ सर्वदा पूरा मेल रहा करेगा। चार चार वर्षों पर एक वर्ष पाँच दिनों की गाथा के बदले छह दिनों की गाथा रखने का प्रयोग पारसी पंचांग में भूतकल में किया जा चुका है, किंतु वह पूरा सफल नहीं हुआ। इस प्रयोग को "फसली सन्" कहते हैं और यह 21 मार्च से आरंभ होता है। आजकल भी कुछ लोग इसका व्यवहार करते हैं, मगर अधिकांश लोग ऊपर बतलाई हुई पाँच दिनों की गाथावाली पद्धति ही मानते है। इसमें भी पुन: कुछ ऐतिहासिक कारणों से दो भेद हो गए हैं। इन दोनों प्रकार के वर्षों के आरंभ में एक मास का अंतर रहता है। अन्यथा दोनों प्रकार समान ही है। एक पकार को "कदीमी" या "दरियाई रोज" कहते हैं और दूसरे प्रकार को "शाहंशाही" या "यझदेझरदी" कहते हैं।

खिष्ट्रीय पंचांग

इसको हम "ग्रेगोरी" पंचांग कहते हैं और इसके मास जनवरी, फरवरी इत्यादि हैं। इसके विभिन्न मासों के दिनों की संख्या सुविदित है, अत: उसका उल्लेख यहाँ नहीं किया जा रहा है। इसमें पड़नेवाले "लीप" वर्ष की व्यवस्था ऊपर बतलाई गई हैं। 1582 ई. में पोप ग्रेगोरी ने यह पंचांग प्रचलित किया। उसके पूर्व जूलियन पंचांग चलता था।

यद्यपि यह पंचांग संप्रति अंतरराष्ट्रीय प्रयोग में आ रहा है, तथापि इसमें अनेक त्रुटियाँ हैं, जिन्हें सुधारने के प्रयत्न किए जा रहे हैं। उसके विभिन्न मासों के दिन 28, 29, 30, 31 होते हैं, पर इसका कोई सरल नियम नहीं है। अमुक मास की अमुख तारीख का वार भी सरलता से नहीं जाना जाता। ऐसी त्रुटियों को सुधारने के लिए कई विधियाँ प्रस्तावित की गई हैं। इनमें से जो पद्धति सबसे अधिक लोकप्रिय हुई है उसे "विश्वपंचांग" नाम दिया गया है। उसका परिचय नीचे दिया जा रहा है।

विश्वपंचांग (World calender)

इसमें, ईसवी और मास के जो नाम आजकल प्रचलित हैं, वे ही रखे गए हैं, मगर मासों के दिन इस प्रकार हैं। जनवरी, फरवरी, इत्यादि 12 मासों के दिन अनुक्रम से 31, 30, 30, 31, 30, 30 31, 30, 30, 31, 30, 30, है। ये सब मिलकर 364 दिन होते हैं। जिस वर्ष में यह पंचांग शुरु होगा। जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर इन मासों के 31 दिन होते हैं और इन सबकी पहली तारीख को रविवार होता है। फरवरी, मई, अगस्त और नवंबर इन मासों के 30 दिन होते हैं और इन सबकी पहली तारीख को बुधवार होता है। मार्च, जून, सितंबर और दिसंबर इन मासों के भी 30 दिन होते हैं और उन सब की पहली तारीख को शुक्रवार होता है। इसके अतिरिक्त जून मास के बाद एक दिन रखा गया है, जिसकी "विश्ववार" (ज़्दृद्धथ्ड्ड"द्म क़्ठ्ठन्र्) की संज्ञा दी गई है। यह बार साप्ताहिक वारों से भिन्न एक अतिरिक्त वार है इसमें भी लीप वर्ष आजकल की भाँति ही रखा गया है, अंतर केवल यह है कि फरवरी मास में एक दिन न बढ़ाकर दिसंबर में बढ़ाया गया है। दिसंबर का लीप वर्ष का बढ़ा हुआ 31वाँ दिन भी साप्ताहिक वारों से भिन्न ""विश्ववार"" होगा।

इस प्रकार लीप वर्ष में दो और सामान्य वर्ष में एक "विश्ववार" होगा। स्पष्ट है कि इस पंचांग में भी ग्रेगोरियन पंचांग की भाँति लीप वर्ष के 366 और सामान्य वर्ष के 365 दिन होंगे। अत: ऋतुचक्र आजकल के अनुसार ही रहा करेगा।

"विश्वपंचांग" से विशेष लाभ यह है कि प्रत्येक वर्ष विभिन्न मासों की भिन्न भिन्न तारीखें सर्वदा निश्चित वारों को ही पड़ा करेंगी। अतएव एक वर्ष के लिए बनाया हुआ वार का कैलेंडर सभी वर्षों के लिए ठीक रहेगा। वार और तारीखों में साम्य की यह योजना ऐसी सरल है कि इसे हम आसानी से याद रख सकते हैं और कैलेंडर के अभाव में भी किसी मास की किसी तारीख का वार आसानी से जान सकते हैं।

बाहरी कड़ियाँ