न्यायिक सुधार
न्यायिक सुधार (Judicial reform) से आशय किसी देश की न्यायपालिका का राजनीतिक ढंग से पूर्णतः या आंशिक परिवर्तन करना है। न्यायिक सुधार, विधिक सुधार का एक हिस्सा है। विधिक सुधार में न्यायिक सुधार के साथ-साथ कानूनी ढांचे में परिवर्तन, कानूनों में सुधार, कानूनी शिक्षा में सुधार, जनता में विधिक जागरूकता लाना, न्याय का त्वरित एवं सस्ता बनाना आदि भी शामिल हैं। न्यायिक सुधार का लक्ष्य न्यायालयों में सुधार, वकालत (bar) में परिवर्तन, दस्तावेजों का रखरखाव आदि सम्मिलित है।
न्यायिक संस्था और विधि का शासन, आधुनिक सभ्यता और लोकतांत्रिक शासन की आवश्यकता है। यह महत्तवपूर्ण है कि न्याय प्रदान करने के प्रभावी तंत्र को सुनिश्चित करने के जरिए न्याय तंत्र और विधि के शासन में लोगों की आस्था न सिर्फ परिरक्षित है बल्कि उसे बढ़ाने के साथ-साथ उसे हासिल करने का यह सरल रास्ता भी है।
न्यायिक सुधार के प्रमुख अंग ये हैं- सर्वसामान्य विधि (कॉमन लॉ) के स्थान पर विधि का संहिताकरण, इन्क्विजीशन प्रणाली से आगे बढ़कर वाद-प्रतिवाद प्रणाली (ऐडवर्सरियल प्रणाली) लागू करना, न्यायिक स्वतंत्रतता को और अधिक मजबूत करना (न्यायिक परिषदों द्वारा या नियुक्ति की प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी बनाकर), एक निश्चित आयु के बाद न्यायधीशों को अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त करना आदि।
भारत के सन्दर्भ में न्यायिक सुधार
दशकों से भारतीय न्यायतंत्र में सुधारों की आवश्यकता महसूस की जा रही है क्योंकि सस्ता एवं शीघ्र न्याय कुल मिलाकर भ्रामक रहा है। अदालतों में लंबित मामलों को जल्दी निपटाने के उपायों के बावजूद 2 करोड़ 50 लाख मामले लंबित हैं। विशेषज्ञों ने आशंका प्रकट की है कि न्याय तंत्र में जनता का भरोसा कम हो रहा है और विवादों को निपटाने के लिए अराजकता एवं हिंसक अपराध की शरण में जाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। वे महसूस करते हैं कि इस नकारात्मक प्रवृत्ति को रोकने और इसके रुख को पलटने के लिए न्याय तंत्र में लोगों का भरोसा तुरंत बहाल करना चाहिए।
पिछले पांच दशकों से भारतीय विधि आयोग, संसदीय स्थायी समितियों और सरकार द्वारा नियुक्त अन्य समितियों, उच्चतम न्यायालय की अनेक पीठ, प्रतिष्ठित वकील और न्यायाधीश, विभिन्न कानूनी संघ#संगठन और गैर सरकारी संगठनों जैसे विभिन्न कानूनी स्थापित#सरकारी प्राधिकरणों ने न्याय तंत्र में समस्याओं की पहचान की है और उनको जल्दी दूर करने का आह्वान किया है। फिर भी, ऐसी अनेक सिफ़ारिशों का प्रभावी कार्यान्वयन अब भी लंबित है। गृह मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति के अनुसार (2001) विधि आयोगों की प्राय: पचासों रिपोर्टें कार्यान्वयन की प्रतीक्षा में हैं।
न्यायिक सुधारों का कार्यान्वयन नहीं होने के कारणों में से एक के रूप में न्याय तंत्र को कम बजटीय सहायता का भी उल्लेख किया जाता रहा है। 10वीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) के दौरान न्याय तंत्र के लिए 700 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे जो कुल योजना व्यय 8,93,183 करोड़ रुपए का 0.078 प्रतिशत था। नवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान तो आवंटन और कम था जो सिर्फ 0.071 प्रतिशत था। यह माना गया है कि इतना अल्प आवंटन न्याय तंत्र की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी अपर्याप्त है। यह कहा जाता है कि भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ 0.2 प्रतिशत ही न्याय तंत्र पर खर्च करता है। प्रथम राष्ट्रीय न्यायिक वेतन आयोग के अनुसार, एक को छोड़कर सभी राज्यों ने अधीनस्थ न्याय तंत्र के लिए अपने संबंधित बजट का 1 ऽ से भी कम उपलब्ध कराया है जो अधिक संख्या में लंबित मामलों से पीड़ित हैं।
परंतु संसाधनों का अभाव ज्यादातर नागरिकों, खासतौर पर उन वंचित तबकों, को न्याय या किसी अन्य मूल अधिकार से इंकार करने का कारण नहीं हो सकता जिनकी अस्पष्ट कानूनों और प्रभावी बाधा के रूप में कार्य करने वाली उच्च लागत के कारण न्याय तक सीमित पहुंच है। न्याय में देरी न्याय देने से इंकार है इस बात को मानते हुए उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने पी. रामचंद्र राव बनाम कर्नाटक (2002) मामले में हुसैनआरा मामले की इस बात को दोहराया कि, शीघ्र न्याय प्रदान करना, आपराधिक मामलों में तो और भी अधिक शीघ्र, राज्य का संवैधानिक दायित्व है, तथा संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 21, 19, एवं 14 तथा राज्य के निर्देशक सिध्दांतों से भी निर्गमित न्याय के अधिकार से इंकार करने के लिए धन या संसाधनों का अभाव कोई सफाई नहीं है। यह समय की मांग है कि भारतीय संघ और विभिन्न राज्य अपने संवैधानिक दायित्वों को समझें और न्याय प्रदान करने के तंत्र को मजबूत बनाने की दिशा में कुछ ठोस कार्य करें।
अन्य प्रमुख कारकों में पिछले दशकों से न्याय तंत्र के बुनियादी ढांचे में सुधार लाने की उपेक्षा, न्यायाधीशों की रिक्तियों को भरने में असाधारण देरी और आबादी एवं न्यायाधीशों के बीच बहुत निम्न अनुपात शामिल हैं। न्याय तंत्र के कार्य निष्पादन को सुधारने के लिए इन कारकों पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है।
120वें विधि आयोग की रिपोर्ट में इस बात की ओर संकेत किया गया है कि भारत, दुनिया में आबादी एवं न्यायाधीशों के बीच सबसे कम अनुपात वाले देशों में से एक है। अमरीका और ब्रिटेन में 10 लाख लोगों पर करीब 150 न्यायाधीश हैं जबकि इसकी तुलना में भारत में 10 लाख लोगों पर सिर्फ 10 न्यायाधीश हैं। अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ के अनुसार उच्चतम न्यायालय ने सरकार को न्यायाधीशों की संख्या में 2007 तक चरणबध्द ढंग से वृद्धि करने का निर्देश दिया था ताकि 10 लाख की आबादी पर 50 न्यायाधीश हो जाएं, जो अब तक पूरा नहीं किया गया है।
न्यायाधीशों की अनुमोदित रिक्तियों को भरने के लिए भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है। केवल प्रक्रियागत देरी के कारण न्यायाधीशों के 25 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं। उच्च न्यायालयों में 6 जनवरी 2009 को 886 न्यायाधीशों की नियुक्ति की मंजूरी थी मगर वहां सिर्फ 608 न्यायाधीश कार्य कर रहे थे जिससे स्पष्ट है कि न्यायाधीशों के 278 पद रिक्त पड़े थे। इसी प्रकार, पहली मार्च 2007 को 11,767 अधीनस्थ न्यायाधीश कार्य कर रहे थे और 2710 पद रिक्त पड़े थे।
हालांकि, हाल के वर्षों में अदालतों की कार्य प्रणाली में सुधार लाने के लिए उपाय किए गए हैं। केंद्र सरकार ने फरवरी 2007 में बेहतर प्रबंधन के लिए न्याय प्रदान करने के तंत्र में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग के लिए देश की सभी जिला एवं अधीनस्थ अदालतों के कम्प्यूटरीकरण और उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के बुनियादी ढांचे को उन्नत करने के लिए योजना मंजूर की थी। 442 करोड़ रुपए की यह योजना दो वर्ष में पूरी की जानी थी। इस परियोजना के तहत अब तक न्यायिक अधिकारियों को 13,365 लेपटॉप, करीब 12,600 न्यायिक अधिकारियों को लेज़र प्रिंटर उपलब्ध कराए जा चुके हैं तथा 11,000 न्यायिक अधिकारियों एवं अदालतों के 44,000 कर्मियों को सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी उपकरण इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण दिया जा चुका है। 489 जिला अदालतें और 896 तालुका अदालतों के परिसर में ब्रॉडबैण्ड संपर्कता उपलब्ध कराई गई है। इस परियोजना के तहत, देश में सभी अदालत परिसरों में कम्प्यूटर कक्ष स्थापित किए जाने हैं। अदालतों के ई-समर्थ बनने से अधिक दक्षता से कार्य करने और मुकदमों का तेजी से निपटारा करने में मदद मिलेगी। इससे उच्च अदालतों के साथ इन अदालतों का नेटवर्क बनेगा तथा इस प्रकार अधिक जवाबदेही सुनिश्चित होगी।
ढांचगत सुविधाओं के विकास के लिए केंद्र प्रायोजित एक और योजना 1993-1994 से चल रही है जिसमें अदालत के भवनों और न्यायिक अधिकारियों के लिए आवासीय जगहों की स्थापना शामिल है। इस योजना के तहत 2006-07 से 2008-09 तक राज्यों को 286 करोड़ 19 लाख रुपए जारी किए गए हैं। 10 वर्ष की अवधि के लिए ऐसी आवश्यकताओं के अनुमानों वाली सापेक्ष योजना के आधार पर 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान न्याय तंत्र के लिए परिव्यय की मांग की गई है। इस बीच, एक से अधिक पारी में काम करके अदालतों के मौजूदा बुनियादी ढांचे के अधिकतम इस्तेमाल से मुकदमों को तेजी से निपटाया जा सकता है। गुजरात ऐसा राज्य है जहां सांध्यकालीन अदालतें कार्य कर रही हैं और सराहनीय परिणाम दे रही हैं।
11वें वित्त आयोग की सिफारिश पर बनाई गई फास्ट ट्रैक अदालतें भी लंबित पड़े मुकदमों को निपटाने में प्रभावी सिध्द हुई हैं। इसके मद्देनज़र सरकार ने राज्यों को केंद्रीय सहायता उपलब्ध करवा कर सत्र स्तर पर संचालित 1,562 फास्ट ट्रैक अदालतों की समय अवधि बढ़ा दी है। केंद्रीय विधि मंत्रालय के अनुसार, इन अदालतों में 28 लाख 49 हजार मुकदमें स्थानांतरित किए गए थे जिनमें से 21 लाख 83 हजार का निपटारा हो चुका है। केंद्र सरकार का, ग्रामीण आबादी को उसके घर पर ही न्याय प्रदान करने के लिए ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 के तहत पंचायत स्तर पर 5 हजार से अधिक ग्राम न्यायालय स्थापित करने का प्रस्ताव है। इन अदालतों में सरल एवं लचीली प्रक्रिया अपनाई जाएगी ताकि इन मुकदमों की सुनवाई और निपटारा 90 दिन के भीतर किया जा सके।
वैकल्पिक विवाद निवारण का सहारा लेने से विवाचन, बातचीत, सुलह और मध्यस्थता के जरिए लंबित मामलों में कमी लाने में बहुत मदद मिल सकती है। अमरीका और कई अन्य देशों में विवाद समाधन तंत्र के रूप में वैकल्पिक विवाद निवारण बहुत सफल रहा है। भारत में विवाचन सुलह अधिनियम 1996 पहले से ही है और सिविल प्रक्रिया संहिता को भी संशोधित किया गया है। हालांकि, पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित मध्यस्थता एवं सुलह कराने वालों के न होने से इन उपायों पर बुरा असर पड़ता है। न्याय की मुख्यधारा में वैकल्पिक तंत्र को विकसित करने के मद्देनज़र न्यायिक अधिकारियों और वकीलों को प्रशिक्षित करने की ज़रूरत है।
इन सभी उपायों को और सुदृढ़ करने तथा इनका विस्तार करने की आवश्यकता है लेकिन सुधारों को अमलीजामा पहनाते हुए भावी आवश्यकताओं को ज़हन में रखना होगा क्योंकि शिक्षा के प्रसार के फलस्वरूप अपने कानूनी अधिकारों के बारे में समाज के और अधिक तबकों के जागरूक होने से भविष्य में मुकदमेबाजी और बढ़ेगी।
सरकार को समग्र न्याय प्रक्रिया को भी दिमाग़ में रखना होगा जो मुकदमों को निपटाने में बाधा डालने के लिए अंतहीन जिरह संबंधी अपील और देरी करने वाले वकीलों की भूमिका को अनुमति देती है। न्याय में देरी को कम करने के जरिए वाद प्रक्रिया और सिविल प्रक्रिया में बदलाव लाने के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन अधिनियम), 2002 के बावजूद, स्थिति अब भी संतोषजनक होने से कोसों दूर है। तुच्छ मुक़दमेबाजी के मसले से भी निपटना होगा और लागत में अत्यधिक वृद्धि करना इसका एक रास्ता हो सकता है। पुलिस जांच तंत्र को मजबूत और आधुनिक बनाने की ज़रूरत है जिससे न्याय तंत्र पर बोझ कम होगा।
न्याय प्रदान करने के तंत्र की सभी जटिलताओं और सूक्ष्म अंतरों पर साकल्यवादी रूप से विचार करने से यह स्पष्ट है कि न्याय तंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए वर्तमान संकट एवं त्रुटियों पर विचार करना होगा।
यह भी याद रखना होगा कि न्याय में देरी, पर्याप्त सबूतों का नहीं होना और वास्तविक जीवन की स्थितियों में संवैधानिक एवं कानूनी सिद्धान्तों को लागू करने में असमर्थता लोगों के जीवन में तबाही लाते हैं।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
- संविधानवाद (Constitutionalism)
- संवैधानिक अर्थशास्त्र (Constitutional economics)
- न्यायपालिका
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
- विधिक सुधार (लीगल रिफॉर्म)
- विधि का शासन
- शक्तियों का पृथक्करण (Separation of powers)
बाहरी कड़ियाँ
- आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार की आवश्यकता
- समय की मांग हैं न्यायिक सुधार
- न्यायिक सुधार के उपायसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link] (जगमोहन)
- सुधार नहीं, परिवर्तन ज़रूरी (पॉलिसी प्रपोज़ल्स फॉर इण्डिया डॉट कॉम)
- न्यायिक सुधार (भारत स्वाभिमान)
- INFORMATION TECHNOLOGY IN THE ADMINISTRATION OF JUSTICE
- E-JUSTICE : TOWARDS A STRATEGIC USE OF ICT IN JUDICIAL REFORMसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- Judicial reform in Europe
- Prashant Bhushan led Campaign for Judicial Accountability & Reforms in India, world's largest democracy
- Dr. Richard Cordero's erudite website on Judicial Reforms Research & Actionable Strategy in USA