विधिशास्त्र
विधिशास्त्र या न्यायशास्त्र, विधि का सिद्धान्त, अध्ययन व दर्शन हैं। इसमें समस्त विधिक सिद्धान्त सम्मिलित हैं, जो कानून बनाते हैं। विधिशास्त्र के विद्वान, जिन्हें जूरिस्ट या विधिक सिद्धान्तवादी (विधिक दार्शनिक और विधि के सामाजिक सिद्धान्तवादी, समेत) भी कहा जाता हैं, विधि, विधिक कारणन, विधिक प्रणाली और विधिक संस्थाओं के प्रकृति की गहरी समझ प्राप्त कर पाने की आशा रखते हैं।
विधि के विज्ञान के रूप में विधिशास्त्र, विधि के बारे में एक विशेष तरह की खोजबीन है। साधारण अर्थ में समस्त वैधानिक सिद्धांत विधिशास्त्र में अंतर्निहित हैं। विधिशास्त्र "जूरिसप्रूडेंस" अर्थात् Juris=विधान, Prudence=ज्ञान। इस अर्थ में कानून की सारी पुस्तकें विधिशास्त्र की पुस्तकें हैं। इस प्रसंग में कानून का एकमात्र अर्थ होता है देश का साधारण विधि, जो उन नियमों से सर्वथा पृथक् है, जिन्हें कानून से सादृश्य रहने के कारण कानून का नाम दिया जाता है। यदि हम विज्ञान शब्द का प्रयोग इसके अधिक से अधिक व्यापक रूप में करे जिसमें बौद्धिक अनुसंधान के किसी भी विषय का ज्ञान हो जाए तो हम कह सकते हैं कि विधिशास्त्र देश के साधारण कानून का विज्ञान है।
शाखाएँ
विधिशास्त्र तीन शाखाओं में विभक्त है-
- वैधानिक अभिदर्शन (Exposition),
- वैधानिक इतिहास,
- विधिनिर्माण के सिद्धांत (Principles of Legislation)
वैधानिक अभिदर्शन का उद्देश्य है किसी प्रस्तावित विधि की प्रणाली के तथ्य को, चाहे वह वर्तमान हो अथवा भूतकाल में इसका अस्तित्व रहा हो, उपस्थित करना। वैधानिक इतिहास का उद्देश्य है उस ऐतिहासिक प्रक्रिया को उपस्थित करना जिससे कोई कानून प्रणाली विकसित हुई है या हुई थी। विधिनिर्माण के सिद्धांत का उद्देश्य है कानून को उपस्थित करना-वह कानून नहीं जो वर्तमान है या भूतकाल में था, बल्कि वह कानून जो देश, काल, पात्र के अनुसार होना उचित है। विधिशास्त्र को किसी वैधानिक प्रणाली के वर्तमान या भूत से अपेक्षा नहीं है, यह इसके आदर्शमय भविष्य से संबद्ध है।
विधिशास्त्र के तीन अंग
विधिशास्त्र सिद्धान्त के तीन अंग होते हैं- विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र, ऐतिहासिक विधिशास्त्र, एवं नैतिक विधिशास्त्र।
विश्लेषणात्मक शाखा में क्रमबद्ध वैधानिक सिद्धांत के दार्शनिक अथवा सामान्य विचार होते हैं; ऐतिहासिक शाखा में वैधानिक इतिहास का दार्शनिक अथवा सामान्य भाग होता है; नैतिक शाखा में विधाननिर्माण के दार्शनिक सिद्धांत रहते हैं। किंतु ये तीनों शाखाएँ परस्पर संबद्ध हैं। अत: इन्हें एक दूसरे से पृथक् कर इनपर विचार नहीं कर सकते।
विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र का उद्देश्य होता है - 'विधान के मौलिक सिद्धांतों का विश्लेषण'। इनके ऐतिहासिक उद्गम, विकास, नैतिक भाव अथवा मान्यता पर इस प्रसंग में विचार आवश्यक होता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित विषय आते हैं:
- देश के सामान्य कानून के आधार पर विश्लेषण;
- देश के साधारण कानून तथा अन्यान्य कानून प्रणाली के बीच पारस्परिक संबंध की परीक्षा;
- विधान के विभिन्न अंगों के भाव, जिससे इसका स्वरूप तथा व्यक्तित्व बनता है, यथा-राज्य, सार्वभौमिकता, न्याय का शासन इत्यादि;
- विधान के उद्गम-यथा देशाचार, कुलाचार;
- विधान का वैज्ञानिक वर्गीकरण;
- वैधानिक अधिकार की भावना का विश्लेषण;
- वैधानिक दायित्व के सिद्धांत की परीक्षा;
- अन्यान्य वैधानिक भावना की समीक्षा, यथा-संपत्ति, न्यास इत्यादि।
ऐतिहासिक विधिशास्त्र
मूलत: विधान के साधारण सिद्धांतों के उद्गम एवं उनके विकास से संबद्ध है। जिन स्रोतों से देश का साधारण विधान प्रभावित होता है, वे भी इसकी सीमा के अंतर्गत है। अन्य शब्दों में, यह विधान के मूल सिद्धांत एवं उनकी पद्धति की भावना का इतिहास है।
नैतिक विधिशास्त्र
नैतिक विधिशास्त्र, विधान की विवेचना नैतिक गांभीर्य एवं इसकी पूर्णता की दृष्टि से करता है। कानून की प्रणाली के बौद्धिक तत्व अथवा इसके ऐतिहासिक विकास से इसे कोई प्रयोजन नहीं है। विधान के उद्देश्य एवं किस सीमा तक तथा किस रूप में इसकी पूर्ति होती है, यही इसका विषय है। साधारणत: इसका लक्ष्य एवं उद्देश्य किसी राजनीतिक फर्मे के अंतर्गत राज्य की भौतिक शाक्ति द्वारा न्याय का पालन करने में है। अत: नैतिक विधिशास्त्र यह देखता है कि न्याय के सिद्धांत का विधान से कहाँ तक संबंध है। यह नैतिक एवं वैधानिक दर्शन का मिलनबिंदु है। अपने सामान्य रूप में न्याय, नैतिकता अथवा नैतिक दर्शन से संबद्ध है। अपने विशेष रूप में न्याय, देश के कानून की अंतिम शृंखला के रूप में वैधानिक दर्शन की उस शाखा से संबद्ध है, जिसे नैतिक विधिशास्त्र कहते हैं। इसकी परिधि के अंतर्गत सामान्य: निम्नलिखित विषय आते हैं-
- न्याय की धारणा (Conception of Justic);
- कानून एवं न्याय में संबंध;
- न्याय के पालन के उद्देश्य की पूर्ति करने वाली प्रणाली,
- कानून एवं नैतिकता पर आधारित अधिकार में अंतर;
- नैतिक अर्थ एवं उन वैधानिक भावनाओं की मान्यता तथा सिद्धांत, जो ऐसे मौलिक हैं कि उनका विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र में अध्ययन किया जा सकता है।
विभिन्न देशों में विधिशास्त्र
देखें, तुलनात्मक विधिशास्त्र संसार के भिन्न भिन्न देशों में विधिशास्त्र की परिभाषा किंचित् भिन्न भिन्न रूपों में की गई है। जर्मनी के विधान में विधिशास्त्र कानून का मोटामोटी वह पर्याय है, जिसका लक्ष्य वैज्ञानिक अध्ययन होता है। फ्रांस के विधान में इससे न्यायालय के क्षेत्राधिकार का बोध होता है, जो कानून के "कोड" की विकृति एव विकास करता है। अंग्रेजी एवं अमरीकी विधान में सन्निहित हैं।
सनातन भारतीय विधान
सनातन भारतीय विधान में विधिशास्त्र धर्मशास्त्र पर आधारित है। "धर्म" की परिभाषा निम्नलिखित रूप में की गई है: श्रुति: स्मृति. सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन: और एतच्चतुर्विधं प्राहू: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम अर्थात् वेद, स्मृति, सदाचार एवं सुनीति धर्म के उद्गम हैं। "धर्म" व्यापक शब्द है। धार्मिक, नैतिक, सामाजिक एवं वैधानिक दृष्टि से यह मनुष्य के कर्तव्य एवं दायित्व की समष्टि है। धार्मिक एवं धर्म निरपेक्ष भावना के बीच विभाजन रेखा स्थापित नहीं की जा सकती, क्योंकि कितने ही विषय ऐसे हैं जो धार्मिक एवं सांसारिक दोनों हैं। भारत का सनातन धर्म राजा अथवा शासक के आदेश पर आधारित नहीं है। इसकी मान्यता (Sanction) इसी में अंतर्निहित है। स्मृतिकारों और उनके पूर्वजों ने कहा है कि "धर्म भगवान की देन है। यह राजाओं का राजा है। इससे अधिक शक्तिशाली दूसरा कोई नहीं। इसकी सहायता से शक्तिहीन भी शक्तिशाली से अपना अधिकार ले सकते हैं। राजा न्याय का निर्माता नहीं, केवल इसका पालक है।" (शतपथ ब्राह्मण 14-4.2.26)
विधिवेत्ता ऑस्टिन किंवा बेंथम के सिद्धांत के अनुसार सनातन धर्म का अधिकांश नैतिकता में संनिविष्ट हो जाएगा, क्योंकि यह "धर्म" किसी राजा अथवा सार्वभौम सत्ताप्राप्त शासक का आदेश नहीं है। यह सत्य है कि स्मृति अपने तईं कानून नहीं है, क्योंकि इसे न तो व्यवस्थापिका सभा ने बनाया और न राज्य ने घोषित किया। पर यह जस रिसेप्टम (Jus Receptum) के सिद्धांत पर मान्य था अर्थात् समाज ने इसे ग्रहण कर लिया था। अत: एक मत के अनुसार स्मृति के कानून का उद्गम समाज ही है। इसका एक अंश नैतिक आदेश है, जिसका स्रोत नैसर्गिक माना गया है एवं अवशेष परंपरा एवं सदाचार है। स्मृतिकारों के व्यक्तित्व एवं सम्मान तथा सुनीति पर आधारित होने के कारण स्मृति के वचनों की मान्यता ही इनके वैधानिक व्यादेश का प्राधिकार है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित होने पर यह विवाद उठ खड़ा हुआ कि भारत में राजनिर्मित विधान धर्मशास्त्र द्वारा घोषित विधान से किसी समय अधिक मान्य था या नहीं। कौटिल्य ने कहा है कि विधान चार स्तंभों पर आधारित है: धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं, राजशासन
इनमें परवर्ती आधार क्रमागत पूर्व के आधार से अधिक शक्तिशाली है किंतु यह स्मरणीय है कि राजशिलालेख (Edicts) द्वारा धर्मशास्त्र में कथित किसी भी मौलिक आदेश अथवा व्यवहार का उल्लंघन नहीं हुआ। कौटिल्य ने भी सैद्धांतिक रूप में यह स्वीकार किया था कि राजनिर्मित विधान धर्मशास्त्र की परिधि से बाहर नहीं है।
विधिशास्त्र और समाजशास्त्र
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। 19वीं शताब्दी के आरंभ में फ्रांसीसी दार्शनिक ऑगस्त कोंत ने समाजशास्त्र शब्द का नामकरण किया। समाजशास्त्र स्थूल रूप से समाज का अध्ययन है। समाजशास्त्री के अध्ययन में विधान भी सम्मिलित है किंतु उसका दृष्टिकोण से भिन्न है। वकील, अधिवक्ता या निर्णायक के रूप में, उन नियमों को देखता है जिन्हें सर्वसाधारण को अनुकरण करना चाहिए। समाजशास्त्रवेत्ता यह देखता है कि ये नियम क्या हैं। कुछ हद तक दोनों साथ चल सकते हैं, क्योंकि वास्तव में ये नियम वांछित चरित्र के द्योतक हैं। किंतु समाजशास्त्रवेत्ता को वास्तविक चरित्र में अधिक उत्सुकता रहती है, वांछित चरित्र के विचार में नहीं। वैधानिक समाजशास्त्र को अपराधशास्त्र भी कहते हैं। यह अपराधों के कारण, अपराधियों के चरित्र, विभिन्न प्रकार के दंडों का अपराधियों पर प्रभाव - विशेषत: कहाँ तक दंडों से अपराध के घटने पर प्रभाव पड़ता है - इन सब का अध्ययन करता है। इससे कानून के सुधार में सुविधा होती है।
विधिशास्त्र के अध्ययन का महत्व
सामण्ड के अनुसार विधिशास्त्र के अध्ययन की अपनी अभ्यान्तरिक रूचि है जिसके कारण इसकी तुलना किसी गंभीर ज्ञान की शाखा से की जा सकती है। वास्तव में अनुमान और सिद्धान्त का प्राकृतिक आकर्षण होता है। विधिशास्त्रिक अनुसंधान विधिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि विचारों को प्रभावित करते हैं अतएव विधिशास्त्र का अध्ययन महत्वपूर्ण है। विधिशास्त्र का अध्ययन मानव के चिन्तन मनन की प्रखरता म वृद्धि करता है। डायस के अनुसार यह विधि-वेत्ता को सिद्धान्त और जीवन प्रकाश लान का सुअवसर देता है क्योंकि यह सामाजिक विज्ञान के संबंध में मानव विचारों पर विचार करता है। विधिक अवधारणाओं के तार्किक विश्लेषण से विधिवेत्ताओं की तार्किक पद्धति का विकास होता है। इससे विधिवेत्ता की व्यवसायिक प्रारूपवाद की बुराई को दूर किया जा सकता है। डायस ने माना कि विधिशास्त्र विधि में जीवनदायी ( Lifemanship ) का विकास कर अध्येता में प्रतिभा निखार की अनुप्रेरणा देता है। जे जी फिलीमोर ने स्पष्ट किया है कि विधिशास्त्र का विज्ञान इतना उच्च स्तरीय है कि इसका ज्ञान इसके अध्येता को ज्ञानपूर्ण अवधारणाओं और मनोवेगों, जो मानव परिस्थितियों में उत्पन्न सभी अपेक्षाओं में लागू हो सके, के साथ जीवन में प्रवेश कराता है। लास्की ने विधिशास्त्र के महत्व का मूल्यांकन करते हुए इसे ‘विधि का नेत्र’ कहा है। विधि की बढ़ती गुत्थियों एवं मानव संबंधों की जटिलताओं के निराकरण का रास्ता विधिशास्त्र के अध्ययन में पाया जा सकता है। इसीलिए इसे विधि का व्याकरण माना गया है। अनिरूद्ध प्रसाद के अनुसार विधिशास्त्र का जागरूक अध्ययन सामाजिक समस्याओं के समाधान एवं न्याय की सार्थकता को अवश्यभावी करता है। वर्तमान जेल सुधार, कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार की अपेक्षा, मानव गरिमा के साथ जीने क अधिकार के साथ सोशल एक्शन लिटीगेशन तथा लोक हित वादों का अन्वेषण नवीन विधिशास्त्रीय दृष्टिकोण से ही उपजा है। इसी प्रकार पर्यावरण सुधार विधि, गरीबों क लिए मुफ्त कानूनी सहायता आदि विधिशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों की अन्तर्विद्या ज्ञान के आदान-प्रदान तथा पारस्परिक प्रभावों की देन है। विधिशास्त्र विधि की विभिन्न शाखाओं की मूलभूत संकल्पनाओं के सैद्धान्तिक आधारों का ही ज्ञान नहीं कराता है बल्कि उनके अन्तर्सम्बन्धों का भी ज्ञान कराता है। विधिशास्त्र केवल विधिक प्रणाली के माध्यम से न्याय प्रशासित ही नहीं करता वरन् नवीन सिद्धान्तों, विचारों एवं अन्य मार्गा की खोज के माध्यम से न्यायपूर्ण समाज की स्थापना में सहायक होता है।
विधिशास्त्र का इतिहास
प्राचीनतम भारतीय विधिशास्त्र धर्मशास्त्र के अनेक पाठों में मौजूद हैं, जैसे की बोधायन का धर्मशास्त्र।
विधिशास्त्रीय सिद्धान्त
प्राकृतिक विधि
विधि में मानव को भावनात्मक सम्बल प्रदान करने व प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुख-सुविधाओं के सम्यक उपभोग हेतु समान अधिकार है। विधि द्वारा मानवीय हित में संरक्षित यह विधा ही "प्राकृतिक विधि" कही जाती है। आल्पियन: "दैवी और मानवीय वस्तुओं का ज्ञान, उचित एवं अनुचित वस्तुओं का विज्ञान"
थॉमस अक्विनस
विधिक प्रत्यक्षवादी
रोनाल्ड
विधिक यथार्थवाद
मानदण्डक विधिशास्त्र
गुण विधिशास्त्र
कर्तव्यशास्त्र
उपयोगितावाद
जॉन रॉल्स
उपसंहार
विधिशास्त्र से हमें उस अध्ययन, शोध एवं अनुमान का बोध होता है, जिनका प्राथमिक लक्ष्य सर्वसाधारण के प्रश्न..."कानून क्या है"? का उत्तर देना होता है। विधिवेत्ता की दृष्टि में कानून उन प्रभावों की समष्टि है, जिनके द्वारा न्यायालयों में निर्णय दिए जाते हैं। कानून का प्रथम लक्ष्य है सामाजिक द्वंद्वों का निराकरण, यद्यपि सब प्रकार के द्वंद्व इस सीमा के अंदर नहीं आते। विधिवेत्ता रस्को पाउंड के अनुसार कानून का कार्य यह है कि वह लोगों के पारस्परिक हक का संतुलन करे, जिससे प्रत्येक व्यक्ति को अधिकतम मिले एवं समाज के हित के लिए उसे न्यूनतम त्याग करना पड़े।
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- विधिशास्त्र तथा विधिक सिद्धान्त का अर्थ, परिभाषा
- [१] Navigate to page for Encyclopedia of the Science of Law (Mellen, 2002).
- John Witte, Jr: A Brief Biography of Dooyeweerd, based on Hendrik van Eikema Hommes, Inleiding tot de Wijsbegeerte van Herman Dooyeweerd (The Hague, 1982; pp 1–4,132).[२]
- LII Law about... Jurisprudence.
- The Case of the Speluncean Explorers: Nine New Opinions, by Peter Suber (Routledge, 1998.) Lon Fuller's classic of jurisprudence brought up to date 50 years later.
- The Roman Law Library, incl. Responsa prudentium by Professor Yves Lassard and Alexandr Koptev.
- Evgeny Pashukanis - General Theory of Law and Marxism.
- Internet Encyclopedia: Philosophy of Lawसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link].
- The Opticon: Online Repository of Materials covering Spectrum of U.S. Jurisprudence.
- For more information about Neil MacCormick and the Edinburgh Legal Theory Research Group visit [३]
- Jurisprudence Revision Notes for Students: - LawTeacher.net - Jurisprudence
- Foundation for Law, Justice and Society
- Bibliography on the Philosophy of Law. Peace Palace Library