नैदानिक परीक्षा (शिक्षा)

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व्यक्ति में किसी प्रकार की असामान्यता, अयोग्यता, अक्षमता, व्यतिक्रम अथवा व्याधि के स्वरूप की ठीक पहचान अर्थात्‌ निदान (डायग्नासिस) नैदानिक परीक्षा (Diagnostic Test) कहलाती है। यह मनोशारीरिक अव्यवस्थाओं की ज्ञात लक्षणावली के आधार पर करने के लिए विज्ञों द्वारा सुस्थिर की गई जाँच की विशिष्ट प्रणाली है।

नैदानिक परीक्षाओं की अब हजारों तरह की प्रश्नावलियाँ एवं पद्धतियाँ चल पड़ी है जिनमें व्यक्ति के मनोजगत्‌ की सूक्ष्मतल विकृति की पहचान प्रायोगिक धरातल पर कर ली जाती है। ये परीक्षाएँ व्यक्तिगत रूप में भी होती हैं और समूहगत भी। आजकल समूह परीक्षाएँ (ग्रूप टेस्ट्स), शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से तथा सैनिक विभाग और कार्यालयीय कर्मचारियों की सहायता से काफी मात्रा में संपन्न की जा रही हैं।

परिचय

रोगादि की प्रारंभिक पहचान में और व्यक्ति की विशिष्ट कठिनाई अथवा गलती करने के उसके बद्धमूल ढ़र्रे की सही पकड़ में ऐसी परीक्षाओं से बड़ी मदद मिलती है। मनोविज्ञान में इनका निर्धारण सामान्य शिक्षा, व्यक्तित्व मूल्यांकन अथवा मनोरोग की विशेषावस्थाओं की दृष्टि से किया गया है। शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में इनसे छात्र की किसी विषय अथवा पाठ संबंधी खास कमजोरी ढूँढ़ निकाली जाती है और इसी के सहारे तदर्थ एक औपचारिक धरातल भी तैयार किया जाता है। पूर्ण निदान और भी कई संबद्ध तथ्यों पर आधृत होता है, किंतु ये परीक्षाएँ नैदानिक उपलब्धि में अच्छे खासे हथियार का काम करती हैं। कोई सधा सधाया ढंग, आले द्वारा हृदय-गति जाँचने की भाँति, इनमें नहीं होता कि व्यक्ति अपने से कुछ भी न करे। इन जाँचों में व्यक्ति परीक्षक द्वारा उपस्थित की गई समस्या के प्रति अपनी निजी प्रतिक्रिया, चाहे वह आत्माभिव्यक्त की शैली में हो अथवा वैकल्पिक उत्तरों के चुनाव के रूप में, व्यक्त करता है। यही प्रतिक्रिया नैदानिक मूल्यांकन के लिए सामग्री प्रस्तुत करती है। उमंगों, अभिरुचियों तथा विशिष्ट कार्यक्षमताओं की प्रकृति आँकनेवाली कुछ सुनिश्चित परीक्षाएँ भी इनमें योग देती हैं।

विभिन्न प्रकार

सामान्य पर्यवेक्षण (आबजर्वेशंस) की निष्पत्तियाँ इन परीक्षाओं की कोटि में नहीं आतीं, बशर्ते वे पर्यवेक्षण प्रयोगशाला के कड़े वैज्ञानिक प्रतिबंधों में न संपन्न हुए हों। हाँ, कुछ उन्मुक्त कार्यकलापों के वैज्ञानिक निरीक्षण में नैदानिक परीक्षा के सूत्र मिल जाते हैं।

नैदानिक परीक्षाओं के स्वरूप मुख्यत: तीन हैं -

  • प्रश्नोत्तरपरक,
  • 'प्रक्षेपित' विचारों की स्वभाव-मीमांसा-परक, तथा
  • कार्य-संपादन-परक

किस स्थिति में कैसी परीक्षा उपयुक्त होगी, इसपर प्राय: सामान्य स्वीकृत मत नहीं, तथापि इनकी उपादेयता सर्वमान्य है।

प्रश्नोत्तरपरक परीक्षण

प्रश्नोत्तरपरक परीक्षाओं में या तो परीक्षात्मक कसौटी पर कसे कुछ मानक प्रश्न पूछे जाते हैं अथवा 'परीक्षार्थी' को निश्चित उत्तरों में से चुनना या प्रतिक्रिया व्यक्त करना पड़ता है।

बुद्धिमाप परीक्षा

'मनोवैज्ञानिक परीक्षाओं के जनक' फ्रांस के मनोविद बिने ने अपनी प्रसिद्ध बुद्धिमान परीक्षा उम्र के आधार पर तैयार किए गए मानक प्रश्नों द्वारा मानसिक आयु की खोज की। वास्तविक उम्र से उसमें भाग देकर बुद्धिलब्धि के अंक (IQ = इंटेलिजेंस कोशेंट) की प्राप्ति की जाती थी। प्रश्नावलियाँ 2-3 साल की उम्र से 14-15 तक प्रति वर्ष की अलग अलग हैं। प्रत्येक में प्राय: पाँच प्रश्न चुने जाते हैं। अधिक मेधावी लड़के की मानसिक आयु उसकी वास्तविक आयु से अधिक होती है जब कि एक बोदे लड़के की कम बुद्धिलब्धि निकालने की निम्नलिखित रीति है (मान लिया कि लड़के की मा.आ. 12 तथा वा.आ. 10 वर्ष की है)

बुद्धिलब्धि अंक = (मानसिक आयु / वास्तविक आयु) * १००

यहाँ 100 से गुणित करने का अभिप्राय दशमलव की दिक्कत से बचना है। 100 बुद्धिलब्धिवाले सामान्य होते हैं जिनकी मा.आ. तथा वा.आ. दोनों बराबर होती है। इससे नीचे जानेवाले अंकों के अनुसार जड़बुद्धि मूढ़, बोदा तथा इससे ऊपर के अंकों के अनुसार मेधावी अतिमेधावी, प्रज्ञावान आदि का निर्धारण होता है। 1905 से 1911 तक बिने ने साइमन के सहयोग से प्रश्नावलियों के कई संशोधन और 1916 में स्टेंफोर्ड युनिवर्सिटी में टर्मन ने अपना प्रसिद्ध संशोधन प्रस्तुत किया।

प्रश्नों के कुछ नमूने

खिलौनों (यथा बिल्ली, कुत्ता) अथवा तकिया आदि की पहचान (2 वर्ष)। लकड़ी तथा कोयले में कौन सी समानता है? (8 वर्ष)। किसी साधारण वक्तव्य में निरर्थक शब्द की पहचान (11 वर्ष)। इत्यादि।

प्रैस्सी की 'X-O' परीक्षा

प्रस्तुत किए गए शब्दवर्ग में से किसी शब्द को काट देने अथवा वृत्त बनाकर घेर देने की क्रिया की वजह से इसका नाम पड़ा है। व्यक्ति की संवेगात्मक भावनाओं का बोध शब्दविशेष के प्रति उसकी व्यक्त अभिरुचि के आधार पर किया जाता है। शब्दवर्गों के उदाहरण -

  • 1. भोजन भद्दा काला नंगा चूसना परीक्षार्थ चुने गए व्यक्ति को इन शब्दों में से सबसे कम अप्रिय लगनेवाले को एक छोटे से वृत्त द्वारा घेर देना होगा।
  • 2. एक मुख्य शब्द (यथा, 'लड़की') के आगे प्रस्तुत किए गए कुछ शब्दों में से, जो उसकी राय में उससे सर्वाधिक संबद्ध होगा, ढूंढ़ निकालना होगा।
लड़की - स्वास्थ्य, देहयष्टि ऐब, कोमल, चढ़ाव।
  • 3. अन्य कई प्रस्तुत शब्दवर्गों में से हर एक से अवांछित शब्दों को काट देना होगा। ऐसा एक शब्दवर्ग है-
भिक्षा, कसम, धूम्रपान, छेड़खानी, थूकना।

इसी प्रकार के अन्य शब्दवर्ग हैं।

अनुवृत्तिज्ञापक प्रश्नावलियाँ

बहुत सी ऐसी प्रश्नावलियाँ हैं जिनके द्वारा व्यक्ति की अनुवृत्ति (ऐटीच्यूड) का पता चलता है। 'हाँ' अथवा 'नहीं' में उनका उत्तर होता है। आजकल पत्रिकाओं में इस ढंग की असंख्य प्रश्नावलियाँ प्रचलित हैं जो प्राय: प्रामाणिक नहीं होतीं। अनुवृत्ति की पहचान के लिए ऐसे चुनाव संबंधी प्रश्न अथवा दो प्रकार के विचारों में से स्वरुचि के अनुकूल किसी एक को पसंद करने की समस्या आदि प्रारंभ में थर्स्टन तथा लिकर्ट ने प्रस्तुत की थी। गार्डन ऐलपोर्ट की 'व्यक्तित्व' के मूल्यात्मक आदर्शों की परीक्षा के प्रश्न भी इसके अंतर्गत आ सकते हैं।

कार्यसंपादनपरक (पर्फामेंस टेस्ट)

इस ढंग की परीक्षाओं में एक समस्यामूलक अथवा प्रयत्नसाध्य कार्य व्यक्ति की जाँच के लिए दिया जाता है। छोटे बच्चों को किसी आदमी की पूरी शक्ल एक निश्चित समय में बना देने का कार्य देना, किसी व्यूहमय पहेली को सुलझाने के लिए कहना, छात्र से कुछ पढ़ने के लिए कहकर उसकी शब्दोच्चारण संबंधी कठिनाइयों, वाक्यविन्यास एवं विरामचिन्हों के विषय में उसकी सही पहचान आदि तथ्यों का मूल्यांकन करना, किसी चीज को ढूंढ़ निकालने के लिए कहना अथवा दुर्गम स्थान पर रखी गई किसी वस्तु को लाने के कार्य में व्यक्ति के प्रयत्नों की शैली, तात्कालिक सूझबूझ तत्परता आदि की परख करना इत्यादि कार्यसंपादनपरक परीक्षाएँ हैं। इसमें पोर्टियस की व्यूह पहेलियाँ (3 से 14 वर्ष तक के लड़कों की भिन्न अवस्थाओं के लिए अलग अलग), थर्स्टन की विविध जाँच प्रणालियाँ, ड्यूरल की पठन-असुविधा-विश्लेषण (एनैलिसिस ऑव द रीडिंग डिफिकल्टीज़) आदि अधिक प्रसिद्ध हैं।

कारीगर, कलाकार, बुद्धिजीवी, संगीतज्ञ आदि की विशिष्ट क्षमताओं (ऐप्टीच्यूड्स) की जाँच के लिए जो कुछ निर्धारित कार्य-संपादन-परीक्षाएँ हैं वे व्यक्ति की विभागीय अयोग्यता जाँचने में भी सहायक होती हैं।

'प्रक्षेपित' विचार-विश्लेषण-परक ('प्रोजेक्टिव' टेकनीक)

प्रस्तुत किए गए, किंचित्‌ असामान्य, (स्टिम्युलस) के प्रति व्यक्ति की प्रतिक्रिया ही, जो प्राय: रचनात्मक तथा विश्लेषणात्मक प्रकृति की होती है, इन परीक्षाओं का विषय बनती है। इनके माध्यम से व्यक्ति की कोई एक विशेष मनस्थिति अथवा विभागीय शक्ति नहीं, बल्कि संपूर्ण व्यक्तित्व ही उत्तरदाता होता है। प्राय: ये उत्तेजक सामान्य वस्तु नहीं होते, बल्कि इनकी कृत्रिम रचनात्मक प्रस्तुति हुआ करती है। व्यक्तित्व लक्षणों (पर्सनैलिटी ट्रेट्स) की परीक्षाओं को नैदानिक परीक्षाओं में लिया जाए या नहीं, इसपर विवाद भी है। परीक्षक इस अंकप्राप्ति (स्कोरिंग) के आधार पर अपनी धारणा नहीं बनाता बल्कि व्यक्त उत्तरों की व्याख्या करता है। इन उत्तरों का कोई निश्चित मापदंड नहीं होता। इनके सहारे पूरे व्यक्तित्व की कुछ खास खामियों को ढूँढ़ने में सहायता मिलती है क्योंकि व्यक्ति के उन्हीं कुछ विचारों का प्रक्षेपण (प्रोजेक्शन) बाहर की ओर प्रस्तुत वस्तुओं के माध्यम से हो जाता है।

रोर्शाक पद्धति

आविष्कारक स्विस मनोविद् हर्मान रोर्शाक हैं (1921)। रोशनाई के विविध प्रकार के धब्बोंवाले दस कार्ड इसके उपकरण हैं। व्यक्ति इन्हें देखकर किसी जानवर, मानवाकृति अथवा प्राकृतिक वस्तु से इनका साम्य बताता है। कार्डों में पाँच काले, दो काले-लाल-संयुक्त तथा शेष तीन रंगीन होते हैं। ध्यान रखने की बातें ये होती हैं कि व्यक्ति किसी आकार की कल्पना पूरे को देखकर करता है अथवा अंश रूप में; काल्पनिक साम्यवाली वस्तु का कोई गुण अथवा क्रिया बताता है या नहीं; साम्यस्थिर करने वाली वस्तु मनुष्य, पशु, प्राकृतिक उपादान आदि में से कौन सा तत्व है, आदि। रंगों के मेल अथवा शुद्ध रंग के कार्ड व्यक्ति की न्यूनाधिक अथवा आनुपातिक संवेगात्मकता (इमोशनैलिटी) दर्शाती है।

विषयवस्तु के विशिष्ट बोध की परीक्षा (थीमेटिक एपर्सेप्शन टेस्ट TAT)

रोर्शाक पद्धति से मिलती जुलती है। पहले की व्याख्या रूपात्मक (फार्मल) होती है जबकि इसकी विषयवस्तु (कंटेंट) संबंधी। इसकी प्रस्तुति एच.ए. मरे द्वारा हुई (1938)। इसमें चित्रों के आधार पर उसकी संभाव्य अंत:कथा बताने के लिए व्यकित को प्रेरित किया जाता है। उदा. - चित्र में एक स्त्री शायद किसी पीड़ा की वजह से मुँह को हाथों से ढँके दर्वाजे से टिककर खड़ी हैं। व्याख्याकार अपने अंतर्निहित वास्तविक व्यक्तित्व के आधार पर विविध व्याख्याएँ करता है, यथा - पेट या सिर दर्द, मतली, मृत्युशोक, यौन समागम की अतृप्ति आदि। व्याख्याओं द्वारा व्यक्ति का उद्देश्य, उसकी प्रवृत्ति, अनुभूति, आवश्यकता, प्रेरणा आदि का पता चलता है।

शब्द एवं वाक्य संबंधी

युंग ने शब्दसाहचर्य की परीक्षा चलाई जो काफी अपनाई गई, विशेषत: फ्रॉयडीय मनोचिकित्सा के मुक्त साहचर्य (फ्री एसोसिएशन) क्षेत्र में। 100 मानक शब्दों को रखकर एक एक के लिए यथाशीघ्र कोई ऐसा शब्द पूछा जाता है जो उसे तुरत प्रेरित करता हो। उदा. - 'योग्यता' के लिए तत्काल दिया गया सहचारी शब्द 'सौंदर्य', 'बलवान्‌' या ऐसा ही और कुछ। युंग के कथनानुसार चेतन धरातल पर एकाएक मिल जानेवाले इन शब्दों का सूत्रसंचालन गहरे अचेतन से होता है।

टेंडलर (1930) ने आधे वाक्यों की अपने ढंग से पूर्त्ति करने की परीक्षा प्रस्तुत की जिसमें व्यक्ति के मानसिक बौद्धिक गठन एवं उसके दृष्टिकोण की थाह मिलती है।

सन्दर्भ ग्रंथ

1. इंसाइक्लोपीडिया ऑव सायकालॉजी (फिलासाफिकल लायब्रेरी, न्यूयार्क) के निबंध 'इंटेलिजेंस टेस्ट', 'प्रोजेक्टिव टेकनीक' एवं रोर्शाक मेथड;

2. साईकालाजी दि फंडामेंटल्स ऑव ह्यूमन एडजस्टमेंट (डॉ॰ नार्मेन मुन) प्रका. हूटन मिफ्लिन ऐंड कं., न्यूयार्क;

3. फाउंडेशंस ऑव साइकालोजी (बोरिंग, लैंगफेल्ड प्रभृति) प्रका. एशिया पब्लि. हाउस।

4. ईसाइक्ला. ऑव एजुकेश्नल रिसर्च में मैक्स वट का लेख 'डायग्नासिस' (मैकमिलंस);

5. फंडामेंटल कंसेप्ट्स इन क्लिनिकल सायकालोजी (शैफर: मैक्ग्रा हिल्स)।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ