निदान (संस्कृत)

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आयुर्वेद में चिकित्सा आरम्भ करने के पहले रोगपरीक्षा तथा रोगीपरीक्षा करने का प्रावधान है।[१]

रोगमादौ परीक्षेत ततोनन्तरं औषधम् ।
ततः कर्म भिषक् पश्चात् ज्ञानपूर्वं समाचरेत् ॥
यस्तुरोगं अविज्ञाय कर्मान्यरभते भिषक।
अपि औषधविधानज्ञः तस्य सिद्धि यद्रच्छया ॥
यस्तु रोगविशेषज्ञः सर्वभैषज्यकोविदः।
देशकालप्रमाणज्ञः तस्य सिद्धिरसंशयम् ॥ (चरकसंहिता, सूत्रस्थान, २०/२०,२१,२२)

अर्थात् चिकित्सा के पूर्व परीक्षा अत्यन्त आवश्यक है। परीक्षा की जहां तक बात आती है तो परीक्षा रोगी की भी होती है और रोग की भी। रोग-रोगी दोनों की परीक्षा करके उनका बलाबल ज्ञान करके ही सफल चिकित्सा की जा सकती है।

आयुर्वेदाचार्यों ने रोग की परीक्षा हेतु निदानपञ्चक का वर्णन किया है। आयुर्वेद के अनुसार, रोग की परीक्षा (रोग का ज्ञान) इन पांच उपायों से होता है -

(१) निदान (etiology),
(२) पूर्वरूप (prodromal symptoms),
(३) रूप (symptoms),
(४) उपशय (therapeutic suitability),
(५) सम्प्राप्ति (pathogenesis)।

इन पांच उपायों को निदानपञ्चक कहते हैं।

निदान– रोग के कारण को निदान कहते हैं।

पूर्वरूप - रोग उत्पन्न होने के पहले जो लक्षण होते हैं उन्हें पूर्वरूप कहा जाता है।

रूप - उत्पन्न हुए रोगों के चिह्नों को लक्षण या रूप कहते हैं।

उपशय - औषध, अन्न व विहार के परिणाम में सुखप्रद उपयोग को उपशय कहते हैं।

सम्प्राप्ति - रोग की अति प्रारम्भिक अवस्था से लेकर रोग के पूर्ण रूप से प्रगट होने तक, रोग के क्रियाकाल (pathogenesis) की छः अवस्थायें होती हैं।

निदानपंचक से रोग के बल का ज्ञान होता है। इसके साथ ही साथ चिकित्सा हेतु रोगी के बल का ज्ञान भी आवश्यक है। जिससे यह निर्णय होता है कि रोगी चिकित्सा सहन करने योग्य है अथवा नहीं। इसके लिए दशविध परीक्षा का वर्णन आया है जिसके अंतर्गत विकृति परीक्षा को छोड़कर शेष परीक्षा रोगी के बल को जानने के लिए है।

उपशय

अज्ञात व्याधि में व्याधि के ज्ञान के लिए, तथा ज्ञात रोग में चिकित्सा के लिए, उपशय का प्रयोग किया जाता है। छ: प्रकार के उपशय हैं।

१) हेतुविपरीत, २) व्याधिविपरीत ३) हेतु-व्याधिविपरीत ४) हेतूविपरीतार्थकारी ५) व्याधिविपरीतार्थकारी तथा ६) हेतु-व्याधिविपरीतार्थकारी

औषध, अन्न व विहार से गुणित होने पर उपशय के 18 भेद हो जाते हैं, जो 18 प्रकार की चिकित्सा पद्धतियां हैं। इन प्रकारों में प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपैथी तथा आ.चि.वि. सहित भिन्न-भिन्न चिकित्सा पद्धतियों के सिद्धान्त सूत्र विद्यमान हैं। जैसे, उपशय के एक प्रमुख भेद 'व्याधिविपरीत' पर आधारित चिकित्सा पद्धति एलोपैथी है जो मूलतः लक्षणों के विपरीत चिकित्सा है। मात्र लक्षण विपरीत औषध से तात्कालिक रूप से रोग का शमन होता है, किन्तु चिकित्सा के लक्ष्य, 'धातुसात्म्य' की सिद्धि अनिश्चित है।

आयुर्वेद में भी व्याधिविपरीत चिकित्सा का महत्वपूर्ण स्थान है, जैसे अतिसार के वेग को रोकने के लिए स्तम्भन औषधि (पाठा, कुटज आदि) का प्रयोग किया जाता है परन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि उसका कोई हानिकारक साइड इफेक्ट नहीं होता।

एलोपैथी मात्र लक्षणात्मक चिकित्सा पद्धति होती तो भी स्वीकार्य होती परन्तु यह दुष्प्रभाव युक्त तथा हानिकारक है, इसलिये विनाशकारी है और ऐसी दुष्प्रभाव युक्त चिकित्सा को आयुर्वेद 'चिकित्सा' ही नहीं मानता।

सम्प्राप्ति

रोग की अति प्रारम्भिक अवस्था से लेकर रोग के पूर्ण रूप से प्रगट होने तक, रोग के क्रियाकाल (pathogenesis) की छः अवस्थायें होती हैं-

1. संचय (Accumulation) 2. प्रकोप (Aggravation) 3. प्रसर (Spread)
4. स्थान संश्रय (Localization) 5. अभिव्यक्ति (Appearance of disease) एवं 6. भेद (Chronicity of disease)

दोषों के संचय, प्रकोप, प्रसर तथा स्थान संश्रय रोगों की पूर्वरूप अवस्था है। अभिव्यक्ति में रोग के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और रोग प्रकट हो जाता है। भेद अवस्था रोग की जीर्ण अवस्था है।

संचयंच प्रकोपंच प्रसरं स्थानसंश्रयम्।
व्यक्ति भेदंच यो वेत्ति दोषाणां स भवेद्धिषक् ॥ सु.सू. 21/36

अर्थात दोषों का संचय, प्रकोप, प्रसर, स्थानसंश्रय, व्यक्ति और भेद को जो जानता है वही यथार्थ वैद्य है।

रोगों की अति प्रारम्भिक अवस्था में ही त्रिदोष असंतुलन को निम्न उपायों से, बिना किसी ब्लड टेस्ट या एक्सरे आदि द्वारा जांच कर रोग का निदान किया जाता है नाड़ी परीक्षण, मल-मूत्र, नेत्र, जिह्वा, स्वर, स्पर्श एवं आकृति परीक्षण।

यथासंभव पूर्व-पूर्व अवस्थाओं में ही चिकित्सा करने को उत्तम माना जाता है क्योंकि यदि संचय । काल में ही चिकित्सा कर दी जाए तो दोष ना आगे बढ़ेगा और न रोग उत्पन्न होगा।

सन्दर्भ

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इन्हें भी देखें