नारदस्मृति

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नारदस्मृति प्रमुख स्मृतिग्रन्थ है और हिन्दुओं के धर्मशास्त्र का एक अंग है। यह ग्रन्थ विशुद्ध रूप से न्याय-सम्बन्धी ग्रन्थ है जो व्यवहार विधि (procedural law) और मूल विधि (substantive law) पर केन्द्रित है। नारद स्मृति में अट्ठारह प्रकरण तथा एक हजार अट्ठाइस (1028) श्लोक हैं। पी. वी. काणे के अनुसार नारद स्मृति की रचना प्रथम शताब्दी से ३०० ई. के बीच सम्भावित है।

इसमें हिन्दू धर्म के प्राचीन नियम हैं जो किसी प्राचीन ऋषि के द्वारा कहे गये हैं किन्तु इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि नारद ही वह ऋषि हैं। नारद स्मृति का वास्तविक लेखक कौन है यह कितनी प्राचीन है यह आज भी प्रश्न का विषय बना हुआ है। नारदीय मनुसंहिता तथा नारदस्मृति में अधिकतम समानता है।

याज्ञवल्क्य ने नारद को धर्मवक्ता के रूप में नहीं माना है, अपितु कुछ आचार्यों ने इनकी गणना धर्मशास्त्रकारों में की है। नारद स्मृति तथा मनुस्मृति दोनों में बहुत कुछ समानता है क्योंकि नारद ने बहुत कुछ मनुस्मृति से लिया है। वर्तमान समय में प्राप्त नारद स्मृति का प्रतिपाद्य विषय व्यवहार है। नारद स्मृति के रचनाकाल के विषय में भी निश्चित कुछ नहीं कहा जा सकता है। याज्ञवल्क्य तथा पराशर ने नारद का नामोल्लेख नहीं किया है अतः यह याज्ञवल्क्य के बाद की रचना है। मिताक्षरा ने नारद के उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। नारद स्मृति में राजनीति पर केवल परोक्ष रूप से यत्र-तत्र चर्चा हुई है। इसमें व्यवहार-सम्बन्धी बातों का अधिकतर उल्लेख किया है।

नारद स्मृति के भाष्यकार 'असहाय' हैं जो एक सुप्रसिद्ध टीकाकार थे। किन्तु यह भाष्य दुर्भाग्यवश पूर्णरूप से उपलब्ध नहीं है। मनुस्मृति (मेधातिथि) भाष्य में असहाय का नामोल्लेख किया है। याज्ञवल्क्य स्मृति की व्याख्या में विश्वरूप ने असहाय को गौतम धर्मसूत्र के भाष्यकार के रूप में याद किया है। विश्वरूप एवं मेधातिथि ने असहाय का उल्लेख किया है, अतः असहाय का समय ७५० ई. के लगभग होना चाहिए।

विषय

नारदस्मृति में अट्ठारह अध्याय है जिन्हें 'व्यवहारपद' कहा गया है।

ऋणदानम्

ऋणं देयमदेयं च येन यत्र यथा च यत् ।
दानग्रहणधर्माभ्यामृणादानमिति स्मृतम् ॥

उपानिधिः

स्वं द्रव्यं यत्र विश्रम्भान्निक्षिपत्यविशङ्किरः ।
निक्षेपो नाम तत्प्रोक्तं व्यवहारपदं बुधैः ॥

सम्भूयसमुत्थानम्

वणिक्प्रभृतयो यत्र कर्म सम्भूय कुर्वते ।
तत्सम्भूयसमुत्थानं व्यवहारपदं स्मृतम् ॥

दत्ताप्रदानिकम्

दत्त्वा द्रव्यमसम्यग्यः पुनरादातुमिच्छति ।
दत्ताप्रदानिकं नाम तद्विवादपदं स्मृतम् ॥

अशुश्रूषाभ्युपेत्यम्

अभ्युपेत्य च शुश्रूषां यस्तां न प्रतिपद्यते ।
अशुश्रूषाभ्युपेत्यैतद्विवादपदमुच्यते ॥

वेतनस्यानपाकर्म

भूतानां वेतनस्योक्तो दानादानविधिक्रमः ।
वेतनस्यानपाकर्म तद्विवादपदं स्मृतम् ॥

अस्वामिविक्रयः

निक्षिप्तं वा परद्रव्यं नष्टं लब्ध्वापहृत्य वा ।
विक्रीयतेऽसमक्षं यद्विज्ञेयोऽस्वामिविक्रयः ॥

विक्रीयसम्प्रदानम्

विक्रीय पण्यं मूल्येन क्रेत्रे यत्र प्रदीयते ।
विक्रीयासम्प्रदानं तद्विवादपदमुच्यते ॥

क्रीतानुशयः

क्रीत्वा मूल्येन यः पण्यं क्रेता न बहु मन्यते ।
क्रीतानुशय इत्येतद्विवादपदमुच्यते ॥

समयस्यानपाकर्म

पाषण्डिनैगमादीनां स्थितिः समय उच्यते ।
समयस्यानपाकर्म तद्विवादपदं स्मृतम् ॥

सीमाबन्धः

सेतुकेदारमर्यादाविकृष्टाकृष्टनिश्चये ।
क्षेत्राधिकारो यस्तु स्याद्विवादः क्षेत्रजस्तु सः ॥

स्त्रीपुंसयोगः

विवाहादिविधिः स्त्रीणां यत्र पुंसां च कीर्त्यते ।
स्त्रीपुंसयोगनामैतद्विवादपदमुच्यते ॥

दायभागः

विभागोऽर्थस्य पित्र्यस्य पुत्रैर्यत्र प्रकल्प्यते ।
दायभाग इति प्रोक्तं तद्विवादपदं बुधैः ॥

साहसम्

सहसा क्रियते कर्म यत्किञ्चिद्बलदर्पितैः ।
तत्साहसमिति प्रोक्तं सहो बलमिहोच्यते ॥

स्तेयम्

तस्यैव भेदः स्तेयं स्याद्विशेषस्तत्र दृश्यते ।
आधिः साहसमाक्रम्य स्तेयमाधिश्छलेन तु ॥

वाक्पारुष्यम्

देशजातिकुलादीनामाक्रोशन्यङ्गसंयुतम् ।
यद्वचः प्रतिकूलार्थं वाक्पारूष्यं तदुच्यते ॥

दण्डपारुष्यम्

परगात्रेष्वभिद्रोहो हस्तपादायुधादिभिः ।
भस्मादीनामुपक्षेपैर्दण्डपारुष्यमुच्यते ॥

द्यूतसमाह्वयम्

अक्षब्रध्नशलाकाद्यैर्देवनं जिम्हकारितम् ।
पणक्रीडा वयोभिश्च पदं द्यूतसमाह्वयम् ॥

प्रकीर्णम्

प्रकीर्णके पुनज्ञेर्यो व्यवहारो नृपाश्रयः ।
राज्ञामाज्ञाप्रतीघातस्तत्कर्मकरणं तथा ॥

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ