दूतवाक्यम्
दूतवाक्यम संस्कृत के प्राचीनतम नाटककार महाकवि भास की सुप्रसिद्ध काव्यकृति है। इसकी गणना दृश्यकाव्यों के अन्तर्गत की जाती है। नाट्यकला की दृष्टि से दूतवाक्य की परीक्षा करने पर इसे 'व्यायोग' नामक रूपक-भेद के अन्तर्गत रखा जाता है। व्यायोग की परिभाषा देते हुए आचार्य विश्वनाथ ने कहा है-
- ख्यातेतिवृत्तो व्यायोगः स्वल्पस्त्रीजनसंयुतः।
- हीनो गर्भविमर्शाभ्यां नरैर्बहुभिराश्रितः॥
- एकांकश्च भवेदस्त्रीनिमित्तसमरोदयः।
- कैशिकीवृत्तिरहितः प्रख्यातस्तत्र नायकः॥
- राजर्षिरथ दिव्यो वा भवेद् धीरोद्धतश्च सः।
- हास्यश्रृंगारशान्तेभ्य इतरे त्रांगिनो रसाः॥ - साहित्यदर्पण 6/231.233
अर्थात् व्यायोग उस रूपक को कहते हैं जिसमें प्रसिद्ध इतिवृत्त का चयन किया जाता है। पुरुष पात्रों की अधिकता और स्त्रीपात्रों की न्यूनता होती है, गर्भ और विमर्श सन्धियों की योजना अपेक्षित नहीं होती और पूरी रचना एक अंक में समाप्त होती है। इसमें ऐसे युद्ध का वर्णन होता है जिसमें स्त्री निमित्त न हो। इसमें कैशिकी वृत्ति का अभाव होता है। इसका नायक धीरोद्धत प्रकृति का कोई प्रख्यात व्यक्ति होता है या फिर कोई राजर्षि अथवा देवपुरुष। इसमें श्रृंगार, हास्य और शान्त रसों के अतिरिक्त अन्य कोई रस मुख्य होता है। दूतवाक्य में ‘व्यायोग’ के मुख्य लक्षण घटित होते हुए देखे जा सकते हैं। इसकी कथावस्तु महाभारत की कथा के उस अंश से ली गयी है जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर कौरवों की सभा में जाते हैं। इस रूपक में स्त्रीपात्रों का सर्वथा अभाव है। इसमें राज्य के विभाजन को लेकर युद्ध की चर्चा है। कौरवों में से धीरोद्धत प्रकृति का दुर्योधन दूतवाक्य का नायक है। इसमें शृंगार और शान्त रसों की नहीं, वीर रस की प्रधानता है। इस रूपक में केवल एक अंक है।
संस्कृत रूपक के मुख्य रूप से तीन तत्त्व होते हैं- कथावस्तु, नेता और रस। प्राचीन काल से ही संस्कृत नाटक मंच पर खेले जाते रहे हैं, इसलिए इनके मूल्यांकन में अभिनय की दृष्टि से मंचन -योग्यता को भी पर्याप्त महत्त्व दिया जाता है।
कथावस्तु
कथावस्तु रूपक का मुख्य तत्त्व है। यह (कथा) प्रख्यात, उत्पाद्य या मिश्र किसी भी प्रकार की हो सकती है। व्यायोग नामक रूपक में प्रायः प्रसिद्ध इतिवृत्त होता है। महाकवि भास ने दूतवाक्य की कथावस्तु महाभारत के उद्योग पर्व से ली है। महाभारत की मूल कथा इस प्रकार है-
द्यूतक्रीड़ा में हारने के बाद पाण्डव बारह वर्ष तक वनवास में और एक वर्ष तक अज्ञातवास में व्यतीत करने की शर्त पूरी करके वापस लौटे। जब उन्होंने कौरवों से अपने हिस्से का राज्य मांगा, तो दुर्योधन ने अस्वीकार कर दिया। कौरवों और पाण्डवों के बीच समझौते के प्रयत्न प्रारम्भ हुए। जब यह कार्य सरलता से सम्पन्न होता न दिखा, तब युधिष्ठिर ने विनाशकारी शुद्ध के स्थान पर कौरवों के साथ सन्धि करवाने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण से उनका दूत बनने का निवेदन किया। दूत के रूप में उनके हस्तिनापुर पहुंचने पर धृतराष्टं ने उनके स्वागत का पूरा प्रबन्ध किया। श्रीकृष्ण पहले कुन्ती के पास गये, फिर दुर्याधन आदि के पास। वे विदुर के घर ठहरे, जहाँ उन्होंने सुना कि कौरव युद्ध की पूरी तैयारी कर चुके हैं और वे लोग श्रीकृष्ण की कोई बात मानने को तैयार नहीं हैं; अतः श्रीकृष्ण का दौत्य कर्म व्यर्थ को जाएगा। फिर भी वे दूसरे दिन विदुर के साथ राजसभा में उपस्थित हुए। जब सब सभासद यथास्थान बैठ गये तब उन्होंने धृतराष्टं को बताया कि वे पाण्डवों की ओर से कौरवों से शान्ति-वार्ता करने आये हैं। श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के आगे पाण्डवों को दायभाग देने का प्रस्ताव रखा। कौरव-प्रमुख भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्टं ने भी दुर्योधन से पाण्डवों को दाय भाग दे देने को कहा, किन्तु दुर्विनीत दुर्योधन पाण्डवों को सूई की नोंक के बराबर की भूमि देने को तैयार नहीं था। सन्धि का प्रस्ताव ठुकरा कर उनसे निर्णय को युद्ध पर ही छोड़ देने की बात की। वह क्रुद्ध होकर गान्धारी की बात अनसुनी करके अपने भाईयों के साथ राजसभा से चला गया। किसी प्रकार विदुर की प्रार्थना पर वह पुनः राजसभा में आया। पुनः उसने शकुनि, कर्ण, दुःशासन आदि से श्रीकृष्ण को बन्दी बनाने को कहा। किसी प्रकार धृतराष्टं ने उसे इस निन्दनीय कर्म से रोका। तब श्रीकृष्ण ने अपना विराट् रूप दर्शाया, जिसे श्रीकृष्ण की कृपा से अन्धे धृतराष्टं, द्रोण, भीष्म, विदुर और संजय ने देखा। धृतराष्टं ने श्रीकृष्ण के चरणों में सिर रखकर क्षमा मांगी। पाण्डवों के पास वापस लौटकर श्रीकृष्ण ने अपनी सन्धिवार्ता की असफलता का वर्णन किया।
‘दूतवाक्य’ में कवि ने महाभारत के इसी कथांश को कुछ भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है- नान्दीपाठ के पश्चात् प्रविष्ट हुआ सूत्रधार जैसे ही कुछ बतलाने जा रहा था कि तभी उसे नेपथ्य से कुछ शब्द सुनाई पड़ता है। उससे ज्ञात होता है कि कौरवों और पाण्डवों में विरोध हो गया है और उसी के लिए दुर्योधन की आज्ञा से उसका सेवक मन्त्रशाला की व्यवस्था कर रहा है। दुर्योधन एक वीर राजा के रूप में रंगमंच पर उपस्थित होता है। वह सब आमन्ति्रात राजाओं और सभासदों को सम्मान के साथ सभाभवन में बैठाता है। सभी सभासदों के बीच शकुनि के सुझाव पर भीष्म सेनापति चुने जाते हैं। इसी समय कांचुकीय बादरायण पाण्डवों के शिविर से दूत के रूप में पुरुषोत्तम नारायण के आने की सूचना देता है। श्रीकृष्ण को नारायण कहने पर दुर्योधन क्रोधित हो उठता है और कांचुकीय से कहता है कि कहो कि केशव नामक दूत आया है। बाद में वह उपस्थित राजाओं से पूछता है कि कृष्ण के साथ हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए। उनके आदरसूचक उत्तर को सुनकर वह पुनः उत्तेजित हो उठता है और कहता है कि कृष्ण को बन्दी बना लेना ही उसे रुचिकर है। वह आज्ञा देता है कि केशव के आने पर कोई भी सम्मानार्थ अपने आसन से नहीं उठेगा। यदि किसी ने ऐसा किया तो उसे राज्य की ओर से कठिन दण्ड दिया जायेगा। स्वयं अपने को उठने से रोकने के लिए वह बादरायण से द्रौपदी के केशहरण का चित्रपट मंगवाता है जिसे देखता हुआ वह बैठा रह सके। चित्रपट को देखते हुए वह द्रौपदी, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल-सहदेव, शकुनि, आचार्य आदि की भाव-भंगिमाओं का चित्रण करता है।
दुर्योधन के कहने पर कांचुकीय दूत कृष्ण को लेने जाता है। दुर्याधन कर्ण से कृष्ण के नारी जैसे मृदु वचन सुनने को तैयार होने को कहता है। श्रीकृष्ण के सभा में प्रवेश करते ही सभी राजा और क्षत्रिय घबड़ा कर खड़े हो जाते हैं। दुर्योधन भी अपने आसन से गिर जाता है। वासुदेव कृष्ण सभी राजाओं को सम्मान के साथ आसन ग्रहण करने का अनुरोध करते हैं। द्रौपदी के केश और वस्त्र खींचने के चित्र को दुर्योधन के पास देखकर वे मन ही मन उसकी भर्त्सना करते हैं कि अपने ही कुल के बन्धुओं के अपमान करने को मूर्खता के कारण दुर्याधन अपना पराक्रम समझता है। औपचारिक कुशलवार्ता के अनन्तर वासुदेव पाण्डवों का सन्देश सुनाते हैं कि ‘जो हमारा दायभाग है, वह हमें मिलना चाहिए।’ दुर्योधन कहता है कि ‘पाण्डु को मुनिशाप मिला था अतः पाण्डव तो देवपुत्र हैं फिर हमारे बन्धु कैसे हुए? उनका पिता के धन में क्या अधिकार?’ वासुदेव दुर्योधन से पूछते हैं कि धृतराष्टं भी अपने पिता विचित्रवीर्य के धन के उत्तराधिकारी कैसे हो सकते हैं? दुर्योधन वासुदेव को उनके बाल-कृत्यों पर भी उलाहना देने लगता है।
श्रीकृष्ण की तर्कसंगत स्पष्टवादिता से दुर्योधन और बौखला जाता है। वह कहता है कि राज्य भिक्षा में प्राप्त करने की वस्तु नहीं। वह राज्य का तृणमात्र भी पाण्डवों को नहीं देगा। वासुदेव उसको चेतावनी देते हुए कहते हैं कि तुम्हारे कारण सम्पूर्ण कुरुवंश का शीघ्र ही विनाश हो जाएगा। वे जाने लगते हैं। दुर्योधन उनको बन्दी बनाने की आज्ञा देता है। वासुदेव विश्वरूप में प्रकट हो जाते हैं। दुर्योघन उनकी माया से और अधिक चकरा जाता है और बाहर निकल जाता है। वासुदेव क्रोधित होकर सुदर्शन चक्र को बुलाते हैं, वह मानव रूप में प्रकट होता है। सुदर्शन के समझाने पर वासुदेव प्रकृतिस्थ होते हैं। अनन्तर वासुदेव के दिव्यास्त्र शार्ंर्ग धनुष, कौमोदकी गदा, पाञ्चजन्य शंख और नन्दक असि एक के बाद एक प्रवेश करते हैं और सुदर्शन के समझाने पर लौट जाते हैं। फिर विष्णुवाहन गरुड़ का प्रवेश होता है। भगवान् को शान्तरोष जानकर सभी अपने-अपने धाम लौट जाते हैं। बाद में श्रीकृष्ण भी पाण्डवों के शिविर में लौटने लगते हैं कि तभी वृद्ध धृतराष्टं का प्रवेश होता है। धृतराष्टं वासुदेव के पैरों पर गिरकर पुत्रों के अपराध के लिए क्षमा मांगते हैं। भरतवाक्य के साथ दूतवाक्य रूपक समाप्त होता है।
महाभारत की मूल कथा से दूतवाक्य की कथा की तुलना करने पर हमें महाकवि भास द्वारा किये गये कुछ मौलिक परिवर्तन दिखायी देते हैं। महाभारत में धृतराष्टं राजा हैं, वे कृष्ण के दूत रूप में आने पर राजसिंहासन पर बैठते हैं जबकि दूतवाक्य में दुर्योधन को राजा के रूप में अवतरित किया गया है। दूतवाक्य में द्रौपदी के केश और वस्त्र खींचने से सम्बन्धित चित्र कवि की उद्भावना है। महाभारत में श्रीकृष्ण को बन्दी बनाने का कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया जाता है जबकि दूतवाक्य में उनको बांधने का प्रयत्न दिखाया गया है। दूतवाक्य में दिव्य आयुधों और वाहन गरुड़ की मानव रूप में अवतारणा कवि की अपनी कल्पना है। कवि ने श्रीकृष्ण और दुर्योधन के लम्बे वार्तालाप को अत्यन्त व्यंग्यपूर्ण और रोचक बना दिया है। इन सब नवीनताओं से ही दूतवाक्य की कथा और संवाद सुन्दर और प्रभावशाली हो गये हैं। दूत के रूप में उपस्थित श्रीकृष्ण के वाक्य अर्थात् सन्धि -प्रस्ताव पर आधारित होने के कारण इस रूपक का नाम ‘दूतवाक्य’ सर्वथा सार्थक है।