तन्त्रालोक

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तन्त्रालोक अभिनवगुप्त द्वारा रचित एक तांत्रिक ग्रन्थ है।

परिचय

तन्त्रालोक की रचना हेतु निमित्तभूत शिष्य, सहयोगी और पारिवारिक वातावरण दो कारणों ने अभिनवगुप्त को तन्त्रालोक लिखने हेतु सर्वाधिक प्रेरित किया वे अपने शिष्यों और सहपाठियों[1] जनो द्वारा अत्यन्त दृढ़ और श्रद्धापूर्ण निवेदन तथा अपने गुरु ‘सोमशम्भु’ अथवा शंम्भुनाथ की आज्ञा वशवर्शी होकर एक पूर्ण शास्त्ररूप तंत्रालोक के लेखन हेतु बाघ्य हो गए। [2] अभिनव तंत्रालोक उपसंहार में तंत्रालोक की रचना सहायक साधनरूप अपने प्रधान शिष्यो का उल्लेख किया है। इनमें उनके भाई मनोरथ का स्थान सर्वप्रथम आता है। [3] जब मनोरथ अभिनव के अखिलशास्त्रविमर्श पूर्ण शाम्भवशक्ति के एक मात्र अधिकारी बने उसी समय उनके अन्य चचेरे भाई भी समान प्रार्थना पूर्वक अभिनव के पास उपस्थित हो कृपा की अभियाचना की। [4] इनमें से सौरि के पुत्रमंद्र, क्षेम, उत्पल अभिनव, चक्रक, पद्यगुप्त (सभी चचेरे भाई) और रामगुप्त का नामोल्लेख पूर्वक वार्णित है। कुछ और लोगों ने अभिनव से कृपा की याचना जिसे कृपालुहृदयवाले आचार्य अभिनव अस्वीकार नही कर सके, किंतु उनके नाम का कहीं वर्णन नही मिलता है। परात्रींशिक विवरण[5] के उपसंहार श्लोकों मे मनोरथ, कर्ण और उत्पल का नाम लिया गया है।

अभिनव के भाई मनोरथ सर्वशास्त्रवेत्ता तथा शिव की पराभक्ति से युक्त थे। कर्ण यथापि युवा थे तथापि वे संसारिक आकर्षणों से दूर होकर शैव अनुशासन में गम्भीर प्रवेश पा चुके थे। कर्ण ने मंद्र के साथ अभिनव से यह निवेदन किया था कि वे ‘मालिनीविजयोत्तर’ तंत्र[6] पर एक टीका लिखे। कर्ण के सांसारिक वृत्ति से सर्वथा दूर और अपने नाम के अनुरूप गुण वाले योगेश्वरीदत्त[7] नाम एक पुत्र भी था। कर्ण की युवा पत्नी, अम्बा,[8] जो कि अभिनव की भगिनी भी थी, वेे अपने पति की अल्प अवस्था में ही मृत्यु के बाद समस्त लोकेषणाओं से मुक्त शिवपादपाों के गहन भक्ति में प्रविष्ट हो चुकी थी[9]। यद्यपि वे अभिनव से ज्येष्ठ थी तथापि वे अभिनव को गुरु मानती थी न कि उन्हें बन्धु बुद्धि से देखती थी। [10] आगे हम रामगुप्त का वर्णन पाते है जिन्हे अभिनव ‘परात्रींशिका विवरण’ में रामदेव कहते है। [11] परात्रींशिका विवरण के अनुसार रामदेव व्याकरण, मीमांसा और तर्कशास्त्र (न्याय) के निष्णात विद्वान थे।

अभिनव के पांचो चचेरे भाई जिनका वर्णन अभिनव ने उपसंहार श्लोकेां में किया है वे सभी समस्त विषयाकर्षणों को निरस्त करते हुए शिव की पूर्ण भाक्ति में प्रवेश पा चुके थे। हम यह स्पष्ट रूप में यह सिद्ध नही कर पाते है कि अनेक प्रसिद्ध ग्रन्थों और टीकाओं के लेखक‘क्षेभराज’ उनके चचरे भाई क्षेम है अथवा कोई अन्य है परन्तु कुछ परिस्थितजन्य साक्ष्य इस तथ्य की पुष्टि करते है। अभिनवगुप्त इन सभी को ‘ पितृव्य तनयाः’ कहते हुए सम्बोधित करते है। आभिनव तंत्रालेाक मे कही भी यह स्पष्ट नही करते हैं कि उनके चाचा (पितृव्य) कोन थे। डॉ॰ के0 सी0 पाण्डेय ‘अभिनवभारती[12] के आधार पर वामनगुप्त को अभिनव का चाचा बताते है। जब हम अभिनव के गुरूओं की चर्चा करेगे तब इस विषय पर पुनः प्रकाश पड़ेगा।

अब हम मंद् के उपर आते हैं वे कर्ण के बाल्यावस्था के मित्र और चचेरे भाई होगे। वत्सलिका जो किसौरि की पत्नी थी अभिनव उन्हे भंद्र की चाची[13] कहते हैं तथा जो कि कृपापूर्ण व्याक्तित्त्व से युक्त थी। अभिनव ने इन्ही की कृपापूर्ण व्यक्तित्त्व से युक्त थी। अभिनव ने इन्ही की कृपापूर्ण देखरेख, उनके एक कस्वे में स्थित आवास अपने साहित्यिक सृजन हेतु उपयुक्त स्थल मान[14]। इन सभी लोंगों की समवेत प्रार्थना ने ही अभिनव को तंत्रालोक की रचना हेतु विवश कर दिया उस प्रार्थना को ठीक उसी प्रकार अस्वीकार नही कर सके जैसे एक नर्तकी जो कि नर्तन की इच्छुक है किसी वाद्ययंत्र के वादन के समय अपने ऊपर नियंत्रण नही कर सकती।

तन्त्रालोक का संग्रह स्थल तन्त्रालोक एक कस्वें में स्थित मंद्र के आवास में लिखा गया जहाँ उनकी चाची वत्सलिका[15] द्वारा अपने नाम को सत्यसिद्ध करतंे हुए उनके प्रति अपने स्थ्ेाह अपने उत्युच्च स्तरीय ग्रन्थ के लेखन में सफल हुए[16]। आचार्य अभिनव का कवि हृदय, उनके काव्य का प्रत्येक शब्द बत्सलिका के प्रतिकृतज्ञता से परिपूर्ण होकर वत्सलिका के ऊपर बरसता है। [17] वत्सलिका सौरि की पत्नी की पत्नी थी जो कि राजमंत्री थे तथा जो बाद में शिव के प्रति भक्ति से परिपूर्ण होकर अपने बाद से त्यागपत्र दे दिया[18]।

अभिनवगुप्त यद्यपि अपने जीवनवृत्त और परिस्थितियों के सम्बन्ध में पर्याप्त विवरण देते हैं तथापि वे अपने समय के सम्बन्ध में कोई भी प्रत्यक्ष संकेत नही देते हैं। अभिनव का स्थितिकाल अभ्रान्त रूप से स्पष्ट निश्चित है। इस विषय में हमें अभिनव द्वारा कुछ संकेत प्राप्त होते हैं सौरि अभिनव से ज्येष्ठ तथा समकालीन थे क्योंकि उत्तरकालीन उनकी तीन पीढ़ियां सौरि कर्ण और योगेश्वरीदत्त दिखाई देती है। कर्ण निश्चित रूप से अभिनव के समकालीन थे। अभिनव की बहन अम्बा के पति थे। अभिनव, कर्ण की मृत्यु प्रत्यक्षदर्शी थे। कर्ण, अभिनव के निवाट सम्बन्धी होने के साथ साथ अभिनव के अत्यन्त जिज्ञासु शिष्य थी। कर्ण अपेक्षा कृत अल्पायु में ही दिवंगत हो गए थे जब उनके पुत्र योगेश्वरी दत्त बड़े हो चुके थे। ‘परात्रींशिका विवरण’ में वार्णित तथ्यों की पुत्र थे जो सम्राट यशस्कर की सभा में वरिष्ठ अथवा प्रधानमंत्री थे। यशस्कर का निश्चित रूप से ज्ञात है कि उनका शासनकाल 939 ई0 में था। अभिनवगुप्त समा्रट यशस्कर के तृतीय पीढ़ी के समय में तन्त्रालोक का लेखन कार्यकर रहे थे। उस समय वे सर्वथा परिपक्व अवस्था में थे। तथा उसकी स्वीकृत तिथि 950 से 1025 ई0 में समान्वित होती है। तन्त्रालोक का स्वरूप निदर्शन कदाचित् कि तन्त्रालोक आचार्य अभिनवगुप्त की सर्वाधिक गम्भीर तथा मौलिक कृतियों में अन्यतम है। जबकि अनेक महत्त्वपूर्ण तथा समकालीन अथवा पूर्ववर्ती कृतियों पर उनकी टीकाएँ हैं। [19] यहाँ उक्त तथ्य को तंत्रालोक रूपी दर्पण में इस प्रकार सकते हैं-

तन्त्रालोक का वैशिष्ट्य तंत्रालोक के अंतःप्रान्त तथा चतुर्दिक दृष्टिपात से हमें गम्भीर अन्तज्र्ञान से अत्यन्त दीप्त उसका विविध स्वरूप दृष्ट होता है। लगभग 12वीं शती के ऋजुविमर्शिनी के लेखक ने इसे ‘त्रिकशास्त्र’ अथवा ‘त्रिकसार शास्त्र’[20] कहा है और इसके दृष्टान्त के रूप वे तंत्रालोक की ही पंक्तियां उद्धृत करते हैं। अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ उस समय तक त्रिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाला सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हो गया था। आ0 अभिनवगुप्त के प्रसिद्ध शिष्य क्षेमराज इस ग्रन्थ के विषय में दो महत्त्वपूर्ण तथ्य बताते हैं-

  • 1. यह ग्रन्थ पूर्ण शिवात्मैक्यबोधावस्थितिपूर्वक रचित है। [21]
  • 2. यह ग्रन्थ समस्त तांत्रिक अथवा आगम साहित्य के रहस्यरूप हृदय का प्रकाशक है। [22]

अभिनवगुप्त ने तन्त्रसार में संक्षेपतः वर्णन करते हुए कहा है कि तंत्रालोक में वैदिक विधि, निषेधों से लेकर शैव, तंत्र, कुल और त्रिक परम्परा के मत उपलब्ध हैं। [23] यह तथ्य तंत्रालोक में बार-बार विस्तारपूर्वक वर्णित है। [24] अंततः तंत्रालोक का यह स्वरूप स्पष्ट हो जाता है कि ‘‘त्रिक-परम्परा’’ पर अभिनवगुप्त द्वारा प्रस्तुत यह एक मात्र अतिविशिष्ट और अधिकृत ग्रन्थ है। ‘तंत्रसार’ के अनुसार तंत्रालोक न केवल आगम परम्परा का कोष है बल्कि वह तंत्र के पारस्परिक भेद ज्ञान और अवान्तर भेद को सूक्ष्मतया विश्लेषित करनेवाला एक आलोचनात्मक ग्रन्थ है। [25] ध्वन्यालोक की लोचन-टीका[26] में आ0 अभिनव के अनुसार तंत्रालोक का केन्द्रीय भाव उस परमसत्ता के चतुर्दिक घूमता है जिसे ‘अनुत्तर’ कहा गया है। तंत्रालोक का मुख्य उद्देश्य विषय को पारिभाषित करते हुए प्रकट करना तथा उसका विश्लेषण करना है। इस प्रकार तंत्रालोक एक टीका का रूप ले लेता है। अतएव इसे वार्तिक[27], श्लोक वार्तिक[28] और षडर्धश्लोकवार्तिक[29] (त्रिक) कहा गया है। सम्भवतः आ0 अभिनवगुप्त को वार्तिक नाम देने की प्रेरणा कात्यायन के वार्तिकों से मिली। जहाँ वार्तिक को उक्त, अनुक्त और दुरूक्त अर्थ के चिन्तन के रूप में परिभाषित किया गया है। [30] यह स्पष्ट दिखायी देता है कि तंत्रालोक इस परिभाषा को पूर्णतया आत्मसात करता है कहीं-कहीं आ0 अभिनवगुप्त ने तंत्रालोक को आगमाधारित समस्त टीका प्रकारों (लघु, सामान्य और बृहद्) का मिश्रित रूप कहा है। इस प्रकार तंत्रालोक एक ही साथ वार्तिक भाष्य और वृत्ति का रूप ले लेता है। [31] सम्भवतः यही कारण है कि किन्ही विशिष्ट विषयों के व्याख्या और विश्लेषण के सन्दर्भ में तंत्रालोक प्रमाणिक ग्रन्थ कहा गया है। [32] इस तंत्रालोक को कहीं-कहीं ‘तंत्रालोक’ भी कहा गया है। [33]

तन्त्रालोक की रचना के पीछे कारण स्वरूप दृष्टिकोण

संग्रह ग्रन्थ

अभिनवगुप्त ने तंत्रालोक की रचना विविध दृष्टियों से की। प्रथम और सर्वाधिक प्रभावशाली कारण उपलब्ध तांत्रिक साहित्य तथा पारम्परिक तंत्रज्ञान का वर्गीकरण करना था। [34] अतः तकनीकी दृष्टि से तंत्रालोक एक संग्रह ग्रन्थ है। [35] आ0 अभिनवगुप्त की रचना का मूलभूत उद्देश्य तांत्रिक स्त्रोतों से ही नहीं वरन् त्रिक-भिन्न परम्परा को भी आगम साहित्य से संगृहीत करना था[36] आ0 अभिनव ने स्वयं इस सन्दर्भ में विचार किया है। उनका स्पष्ट उद्देश्य अपने विचारों को आगम परम्परा के सार के रूप में प्रस्तुत करना था जिसमें वे सर्वथा उपयुक्त सिद्ध हुए। [37] जिसका जयरथ ने आ0 अभिनवगुप्त को संग्रकार कहते हुए समर्थन किया है। [38]

प्रक्रिया अथवा पद्धति ग्रन्थ

आ0 अभिनव द्वितीय किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उद्देश्य प्रक्रिया अथवा पद्धति को प्रस्तुत करना था। अभिनवगुप्त विभिन्न आगम सिद्धान्तों और पद्धतियों में सर्वश्रेष्ठ रूप में मान्य अनुत्तरषडर्धक्रम (त्रिक) परम्परा में किसी पद्धति और प्रक्रिया ग्रन्थ के न होने से दुःखी थे[39] यह रिक्ति एक चिन्त्य विषय थी। इसकी सम्पूर्ति हेतु आ0 अभिनव ने प्रत्येक दृष्टि से पूर्ण प्रक्रिया ग्रन्थ के रूप में लिखने का निश्चय किया। [40] यद्यपि आ0 अभिनवगुप्त तथा तंत्रालोक के विवेक टीकाकार जयरथ दोनों प्रक्रिया ग्रन्थ की शैली के सन्दर्भ में स्पष्ट ज्ञान प्रदान नहीं करते हैं। तथापि जयरथ आ0 अभिनवगुप्त के प्रक्रिया ग्रन्थ रचनारूप उद्देश्य की सूचना से परिपूर्ण हैं। [41] इस परिपेक्ष्य में 4 निष्कर्ष उपलब्ध होते हैं।

  • 1. तंत्रालोक में वर्णित प्रक्रिया पूर्णतः मालिनीविजयोत्तरतंत्राधारित है। [42]
  • 2. अद्वयवादी विचारधारान्तर्गत दोनों प्रक्रियाएं थी। 1.कुल, 2.तंत्र प्रक्रिया
  • 3. कुल प्रक्रिया दोनों में श्रेष्ठ थी[43] और दोनों प्रक्रियाएं सम्मिलित रूप से त्रिक प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व करती थीं।
  • 4. साधकों का एक वृहद समूह इस सम्प्रदाय का अनुयायी था किन्तु किसी निर्बाध परम्परा के नियंत्रक तथा उसकी प्रकृति के निर्धारणार्थ एक निर्देशक ग्रन्थ की आवश्यकता होती है। वे यह नहीं जानते थे। तंत्रालोक का प्रक्रिया ग्रन्थ के रूप में संकलन इस रिक्ति को पूर्ण करने में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। [44]

अब तंत्रालोक का प्रक्रिया से तात्पर्य क्या है ? यह देखते हैं। यदि हम तंत्रालोक के प्रथम आह्निक के 14वें और 15वें श्लोक को देखें तो यह पाते हैं कि प्रक्रिया और पद्धति शब्द एक ही अर्थ को संकेतित करते हैं तथा अन्य ध्यातव्य तथ्य यह है कि दोनों शब्द एक विशेष वर्ग के ग्रन्थों की ओर संकेत करते हैं। स्वाभाविक रूप में यहाँ वैयाकरणों का प्रक्रिया शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ अनाकांक्ष है। वाचस्पत्यम् के अनुसार प्रक्रिया शब्द का अर्थ एक अध्याय अथवा क्रमबद्धरूप प्रकरण है। [45] जबकि शब्दकल्पद्रुप के अनुसार प्रक्रिया शब्द का अर्थ नियतविधि[46] है इस प्रकार यहाँ पद्धति एक निश्चित भावार्थ बोधक ग्रन्थ का रूप ले लेती है। वाचस्पत्यम्[47] और शब्दकल्पद्रुप[48] दोनों इस तथ्य से सहमत हैं और हेमचन्द्र का नाम समर्थन हेतु उद्धृत करते हैं। इन शब्दकोशकारों के अनुसार प्रक्रियाग्रन्थ किसी विषय के मूलाभिप्राय को व्यक्त करने हेतु उसकी प्रक्रिया का प्रकटन करता है। तंत्रालोक के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि आ0 अभिनव का प्रक्रिया सम्बन्धी सिद्धान्त उक्त प्रक्रिया की परिभाषा के अति सन्निकट है।

अभिनवगुप्त तन्त्रालोक में ‘परात्रीशिका’ को अनुत्तरप्रक्रिया कहते हैं। [49] यह कथन ही परात्रिशिकाविवरण को भी प्रक्रियाग्रन्थ मानने हेतु पर्याप्त है। आ0 अभिनवगुप्त अन्य स्थानों पर ‘प्रक्रिया’ शब्द का प्रयोग ‘साधना’ के अर्थो में भी करते है। [50] यह तथ्य तब और भी दृढ़ हो जाता है जब अभिनव स्वच्छन्द तंत्र का ‘प्रक्रिया से श्रेष्ठ’ कोई ज्ञान नही है’ यह कथन उद्घृत करते है। [51] जयरथ प्रक्रिया भेद के कारण तंत्रो मे परस्पर भेद को स्पष्ट करते हुए समस्त संदेह निरस्त कर देते हैं। [52] इस प्रकार यह स्पष्टतः कहा जा सकता है कि विधि-निषेधातीत तथा विधि-निषेधात्मक उभय विशिष्ट साधना विधियों को प्रस्तुत करने वाले ग्रन्थ को प्रक्रिया ग्रंन्थ कहते है। जैसा कि ज्ञात हे अभिनव इस प्रक्रिया अर्थ में द्वितीय शब्द पद्धति का प्रयोग करते है। परन्तु उनकी पद्धति का आदर्श स्वरूप क्या था ? यह अज्ञात है तथापि वे ‘ईशानशिव’ की एक पद्धति को उद्धृत करते हैं[53] जो कि पद्धति के मूल भाव को प्रस्तुत करती है तथा जो देव्यायामल ग्रन्थ में वर्णित हैं। यह ईशानशिव निश्चितरूप से गुरूदेव पद्धति अथवा तंत्र पद्धति के रचयिता अपने समनाम ईशानशिव से भिन्न हैं। जो निश्चित रूप से 1073 ई0 के बाद हुए थे। डाॅ0 रामचन्द्र द्विवेदी के अनुसार ‘कर्मकाण्डावली’ ग्रन्थ के लेखक सोमशम्भु ‘ईशानशिव’ के परमगुरू थे। क्षेमराज के अनुसार आ0 अभिनव के एक गुरू धर्म शिव ने अप्रत्यक्ष से इस परम्परा में पद्धति लेखन का प्रारम्भ करते हुए एक पद्धति लिखी जिसे अभिनव ने उद्धृत किया है किन्तु उसका नाम नहीं बताया है। यह सम्भव है कि विभिन्न पद्धतियों तथा उनमें से एक का भी उनकी परम्परा को प्रस्तुत न करना आ0 अभिनव के दुःख का कारण थी। ‘नाथ-सम्प्रदाय’ का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सिद्धसिद्धान्तपद्धति’ जो कि बहुत परपर्ती है जो कि ‘प्रत्यभिज्ञा’ सम्प्रदाय के उद्धरणों से परिपूर्ण है और सामान्य रूप में पद्धति परम्परा के ग्रन्थों की ओर संकेत करता है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत है कि तंत्रालोक प्रक्रिया अथवा पद्धति ग्रन्थ है और ‘त्रिक’ जीवनदर्शन का सर्वांगपूर्ण नियामक ग्रन्थ है।

शास्त्र ग्रन्थ

अभिनव का तृतीय उद्देश्य तंत्रालोक को एक परिपूर्णशास्त्र अथवा शासन के रूप में प्रस्तुत करना था। [54] जैसा कि परवर्ती समय में यह असंदिग्ध रूप से प्रक्रिया शास्त्र के रूप को उपलब्ध हो गया था। [55] अतः जयरथ आ0 अभिनवगुप्त को बारम्बार शास्त्रकार के रूप में स्मरण करते हैं। [56] जयरथ अपने अधिवाक्य तथा विवेक टीका के प्रारंभ में तंत्रालोक के शास्त्रीय स्वरूप को निम्नवत् प्रस्तुत करते हैं। चूँकि किसी भी शास्त्र का अनुबन्ध चतुष्ट्य होता है अतः जयरथ भी अनुबन्ध चतुष्ट्य की स्थापना करते हैं जो इस प्रकार - 1. विषय (अभिधेय), 2. प्रयोजन, 3. अधिकारी, 4. सम्बन्ध।

इनका क्रमिक विवरण इस प्रकार है-

	प्रतिपाद्य विषयवस्तु			श्लोक सं0

1.	विषय (अभिधेय)

	त्रिकार्थ					तं0आ01.1-1.5

	विषय						श्लोक सं0

2.	प्रयोजन-
	(क) सामान्य - त्रिकार्थसातिशयत्व - तं0आ0 1.16 - 1.20

	(ख) मुख्य - प्रत्यभिज्ञा द्वारा जीवनमुक्ति की उपलब्धि - वही

3.	अधिकारी -

	गुरू परम्परोपातत्त्व तथा पारेश्वरशक्तिपात - 1.7-1.13

	विचित्रित्व अथवा वैचिन्न्ययुक्त है - वही

4.	सम्बन्ध -

	(क) वाच्यवाचक भाव - वही 1.14-1.15

	(ख) साध्य-साधनभाव साध्य-अनुत्तरत्रिक ज्ञप्ति साधन-तंत्रालोकोक्त उपायचुतुष्टय - वही 1.14-1.15

इसके अतिरिक्त प्रत्येक शास्त्र के प्रारम्भ विघ्न निरसनार्थ करणीय मंगलाचरण रूप स्तुतिवत यहाँ भी (तं0आ0 1.6 में) गणेश (प्राण) तथा बटुक (अपान) की स्तुति की गयी है।

स्तुति ग्रन्थ

अभिनव अपने चतुर्थ अंतिम प्रयास के अन्तर्गत ‘तंत्रालोक’ को पूर्णतः स्तुति ग्रन्थ के रूप में केन्द्रित करते हैं। वे अपने उपक्रम वाक्य तथा प्रारम्भिक प्रस्तावना श्लोकों के अन्त में[57] और इसी प्रकार उपसंहार के श्लोकों में[58] किसी भी प्रकार का संदेहावकाश नहीं छोड़ते हैं। उन्हें जब भी अवसर प्राप्त होता है वे तंत्रालोक भक्ति तथा समर्पण भावों को व्यक्त करते हैं। उनके नेत्रों में तंत्रालोक तब समग्र स्वरूप सहित अर्थ प्राप्त करता है जब वे शक्तिपातोम्भिषित शैवी भावोपलब्धि हेतु उन्मुख होते हैं। तंत्रालोक इस अलौलिक भावोपलब्धि के मार्ग तथा प्रक्रिया दोनों का वर्णन अति स्पष्ट सहजता के करता है। ठीक उतनी सहजता के साथ, जितनी किसी मानव की दिनचर्या की शैली स्वयंमेव, सहजता से सम्पन्न होती रहती है। वे सहजावस्था के चरम शिखर पर आरूढ़ होकर, अज्ञानध्वान्त रहित अपने अनुभूतियों को वाक्प्रसून के माध्यम से बैखरी धरातल पर विकीर्णित करते हुए कहते हैं-‘‘जब कोई इस शैवी भाव से युक्त हो जाता है तब उसके हृदय के सन्देहों के मेघ स्वयंमेव छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और हृदयाकाश में परमशिवरूप ज्ञान का सूर्य उदित अथवा प्रकाशमान हो जाता है। [59] तंत्रालोककार का यह अत्यंत भावपूर्ण कथन उन नवसाधकों के हृदय में विश्वास का संचार कर उन्हें पूर्णाहंभावोपलब्धि हेतु अग्रसर (उन्मुख) कर देता है जो सृष्टिमीमांसा से ऊपर उठकर तत्त्व-मीमांसा में रत हैं। मात्र इसी गहनभक्तिपूर्ण भावना द्वारा ही तंत्रालोक के प्रक्रियात्मक स्वरूप की विवेचना की जा सकती है। सम्भवतः इसी दृष्टिकोण को तंत्रालोक के उपक्रम तथा उपसंहार में महिमान्वित किया गया है।

तंत्रालोक की रचना का उद्देश्य

भैरवीय भावोपलब्धि

तंत्रालोक के सूक्ष्म अध्ययन से हमें इस रचना के पीछे आ0 अभिनवगुप्त के उद्देश्य का स्पष्टतः बोध होता है। आ0 अभिनव सर्वप्रधान उद्देश्य भैरवीय भावोपलब्धि अथवा भैरव तादात्मयता की सम्प्राप्ति है। आ0 अभिनव यह सगर्व उद्घोषणा करते हैं कि तंत्रालोक के 37 आह्निकों में वणर््िात विषय का निरन्तर अभ्यास करनेवाला साक्षात् भैरव स्वरूप हो जायेगा[60] आ0 अभिनव समस्त तंत्रालोक में इस उद्देश्य से रंच-मात्र भी स्खलित नहीं होते हैं आ0 अभिनव अणुस्वरूप जीव के चैतन्य के विकास का पथ निर्दिष्ट करते हुए उसके अणुत्व के विलय पूर्वक स्वात्मप्रत्यभिज्ञान द्वारा ब्रह्माण्डस्वरूपता की प्राप्ति के मध्य आनेवाले समस्त सोपानों का क्रमिक विश्लेषण करते हैं।

मुक्ति के कारणभूत ज्ञानचतुपक की प्रस्तुति

आ0 अभिनव अपनी प्राथमिकताओं को बारम्बार कहते हुए थकते नहीं हैं। वे कहते हैं कि तंत्रालोक में उनकी वास्तविक प्रतिबद्धता अनुत्तरज्ञप्ति की प्रस्तुति के साथ है। [61] ज्ञानचतुष्क जो कि मुक्ति के कारण हैं उनकी रूपरेखा समस्त विश्वात्मबोध और पूर्णाहंभाव के उदय हेतु बनायी गयी है। [62] आ0 अभिनव ध्वन्यालोक की लोचनटीका में यह उद्धृत करते हैं कि तंत्रालोक का केन्द्रीय भाव उस अद्वय पारमेश्वर भाव की सिद्धि है। [63] आ0 अभिनव के अनुसार एक मात्र शक्तिपात ही मुमुक्ष का संचालक बल है। वे बन्धन से मुक्ति की समस्या के समाधान के प्रति सर्वाधिक सचेत हैं। यथा आ0 अभिनव यह स्पष्ट करते हुए आगे बढ़ते हैं कि तंत्रालोक मूलतः स्वात्मप्रत्यभिज्ञान रूप प्रातिभसंवित्ति ज्ञापक है। [64] इस प्रातिभ संवेदन के अभ्यास के समनन्तर सम्पूर्ण बोध होने के कारण व्यक्ति ‘प्रातिभ गुरू’ हो जाता है जिसके ‘कृपा-कटाक्ष’ मात्र से समस्त जगत भैरव तादात्मयता को प्राप्त हो सकता है। [65] आ0 अभिनव और तंत्रालोक के टीकाकार जयरथ दोनों इसे अपनी कृति की प्रशंसा करना नहीं मानते हैं वरन् कहते हैं कि उक्त कथन यथार्थ है। [66]

अंतिम अधिकृत ग्रन्थ की प्रस्तुति

तंत्रालोक की प्रस्तुति अंतिम अधिकृत ग्रन्थरूप अन्य उद्देश्य को सामने लाता है। आत्मसाक्षात्कार समस्त आध्यात्मिक सम्प्रदायों का चरम लक्ष्य है और इसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण आत्मविमर्श है। इस सर्वोच्च वैयक्तिक उपलब्धि में तंत्रालोक से भिन्न की अन्य ग्रन्थ की कारणता सक्षम नहीं है। आ0 अभिनव की स्वात्मसंवित्ति, हेयोपादेय निर्णय में अमोघ कारणरूप सर्तक, समस्त शैवशास्त्र पर पूर्ण अधिकार और त्रिक-परम्परा का गहन ज्ञान, यह सभी उसी अनुत्तर तत्त्व की दिशा में उन्मुख हैं[67] और सभी परस्पर संयुक्त होकर आ0 अभिनव के प्रतिपादन को गहन गाम्भीर्य और अत्यन्त विस्तार प्रदान करते हैं। कोई भी ज्ञान अनुभूति स्तर को प्राप्त करने तक तीन स्तर को प्राप्त होता है।

  • 1. यह किसी शास्त्र से अनुमोदित हो।
  • 2. किसी आप्तपुरूष द्वारा अनुभूत और प्रतिपादित हो।
  • 3. यह स्वतः अनुभूत अथवा आत्मप्रत्ययित हो। [68]

जयरथ एक अप्रत्यक्ष संकेत देते हैं कि आ0 अभिनव का बौद्धिक तथा आध्यात्मिक वैभव, उनके शास्त्रमुखागम-निजानुभवसिद्ध स्वात्मसंवित्ति रूप पूर्ण ज्ञान से युक्त विश्वात्म व्यक्तित्व को प्रकट करता है। [69] कतिपय परिस्थितियों वश नहीं, वरन् यथार्थतः तंत्रालोक एक आदर्शपूर्ण तथा प्रमाणिक ग्रन्थ है जो कि त्रिक-परम्परा का प्रस्तोता है।

तांत्रिक विधियों का सरल प्रतिपादन

आ0 अभिनव तंत्रालोक द्वारा तांत्रिक विधियों और ज्ञान की सरल प्रस्तुति को तृतीय उद्देश्य मानते हैं। [70] इस बिन्दु को ध्यान में रखते हुए उन्होने उन्हीं विषयों और अवधारणाओं को अपनी विवेचना का विषय बनाया। जिससे सब लोग लाभान्वित हो सकें। इन्होने विवादित विषयों को प्रस्तुत करते हुए उसकी सरल व्याख्या की। [71]

परम्परा का नियंत्रण और सुरक्षा

तंत्रालोक के ध्यानपूर्वक अवलोकन से संकलन के पृष्ठभूमिरूप आ0 अभिनव का एक और उद्देश्य दृष्ट होता है जिसे अति सावधानी पूर्वक स्थापित किया गया है। ‘वह त्रिक तंत्र परम्परा का नियमन और सुरक्षा है।’ उनके तीन उदाहरणों में से तंत्रालोक के प्रारम्भ में प्रथम ‘सम्प्रदायोच्झितैः[72] तथा मघ्य में शेष दो ‘विडम्बिता’[73] तथा भ्रष्टेविधौः[74] उनके इस दृष्टिकोण को पूर्णतः स्पष्ट करते हैं। प्रारम्भ से आ0 अभिनव यह सूचित करते हैं कि कुछ लोग जो शास्त्रों में पण्डित थे परन्तु परम्परारहित होने के कारण त्रिकज्ञानोपलब्ध नही हो सके। द्वितीय उदाहरण का तात्पर्य यह है कि कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होने न तो शास्त्राध्ययन किया और न ही मार्गदर्शक गुरु की प्रतीक्षा अथवा खोज की। इस प्रकार सरलता से दिग्भ्रमित हो गए। तृतीय उद्धरण से यह संकेत मिलता है कि कुछ पारम्परिक ज्ञान केे विशिष्ट तथा आवश्यक अंग या तो लुप्त हो गए थे अथवा इन विकृत हो गए थे कि उनके मूलस्वरूप का अन्वेषण असम्भव हो गया था। प्रथम तथा द्वितीय अवस्था में आ0 अभिनव ने अपने पारम्परिक ज्ञान और मेधा का प्रयोग किया तृतीय अवस्था में उन्होने अन्य विकल्पों के रूप में ‘न्यास-विधि’ का प्रयोग किया जिसे ‘मालिनी’ कहा है। जयरथ तंत्रालोक के परीक्षण पूर्वक यह मत व्यक्त करते है कि आ0 अभिनव जहाँ भी किसी आगम परम्परा और मत को उद्धधृत करते है तब वे उसके प्रति विपरीत और भ्रम-पूर्ण अवधारणा को खण्डित करते है[75] और उसे उसके यथार्य स्वरूप में अपनी अद्वितीय मेधा द्वारा संस्थापित करते हैं। इस प्रकार उक्त स्रोत से संम्बन्धित ज्ञान को और समृद्ध करते है। इस विवेचना के अनन्तर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अभिनव के उद्देश्य में से एक अधोषित उद्देश्य उपलब्ध तथा पारम्परिक तांत्रिक साहित्य और साधना को पुनर्जीवित करते हुए भाविष्य के लिए सुरक्षित करना था। इस सन्दर्भ उनकी शैली और विधियो का परीक्षण करते हुए कुछ और तथ्य कहे जा सकते हैं।

पूर्व वर्णित तथ्यो पर ध्यान देने से हम अभिनव के उद्वेश्य और प्रयोसो को दो वर्गो में बाॅट सकते हैं प्रथम 1. घोषित 2. द्वितीय अघोषित जिसे संक्षेपतः निम्नवत कहा जा सकता है।

कारण

1. घोषित -

1. सारभाग के रूप् में (तंत्रालोक के संकलन के रूप में)

2. प्रक्रिया ग्रन्थ के रूप में

3. स्तुति के रूप में

अधोषित - शास्त्र के रूप में

उद्देश्य - 1. (क) स्वात्म प्रत्यभिज्ञान और दूसरो को भी इसी हेतु उन्मुख करना

घोषित - (ख) मुक्ति की सिद्धि में कारणभूत ज्ञानचतुपक की प्रस्तुति

2. पारम्परिक तंत्रज्ञान का सरल विवेचन

अधोषित- (क) अंतिम अधिकृत ग्रन्थ की प्रस्तुति (ख) तांत्रिक परम्परा के साहित्य और साहित्य का

सन्दर्भ

1. इत्यहं बहुशः सद्भिः शिष्यसव्रह्मचारिभिः। अर्थितो रचये स्पष्टां पूर्णार्था प्रक्रियामिनाम्।। 1/15

2. अदृष्टप्रकटीकुर्मो-गुरूनाथाशयावयम्।। वही 1/15

3. सोझुग्रहीतमथ शाम्भवशक्तिभाजं। स्वं भा्रतरंभखिलशास्त्रविमर्शपूर्णम्।। यावन्मनः प्रणिदघाति मनोरथाख्यं। तावज्जनः कतिपयस्तभु पाससाद।। तं0 आ0 17/64

4. श्रीशौरितनमः किलकर्णनाभा यो यौवने विदिवशाम्भवतत्वसारः। देहं व्यजन्प्रथयति स्म जनस्य सत्यं योगच्मुतं प्रति महामुनि कृष्णवाक्यम्। तद्बालमित्रमथ मन्त्रिसुतः प्रसिद्धः श्रीमन्द्र इत्यखिलसारगुणाभिरामः।। लक्ष्मीसरस्वती समं यमतंचकार सपत्नकं तिरयते सुभग प्रभावः। अन्ये पितृव्यतनमाः शिवशक्तिशुभ्राः क्षेमोत्पलाभिक्व चक्रकपटागुप्ताः।। ये सम्पदं तृणम मसंत शंभुसेवासम्पूरितं स्वहरयं छदि भावयन्तः।। षडर्थशास्त्रेषु समस्तभेव येनाघिलग्मे विधिमण्लादि। स रामगुप्तो गुरुशभ्भुशास्त्रसेवा विधि व्यग्रसमग्रमार्ग। अन्योऽपि कंश्चनजनः शिव शक्तिपात सम्त्रेरणा परवशस्वकंशाक्तिसार्थः।। अभ्यर्थनापिमुखभावमशिक्षितेन तेनाऽप्यनुग्रहपदं कृत एवं वर्गः।। तं0 आ0 37/65-69

5. प0 श्री वि0 (उपसंहार श्लोक) पृ0 279-80

6. सच्छिष्यकर्णमन्द्राभ्यामर्थितोहं पुनः पुनः वाक्यार्थ कथये श्रीमन्यलिन्यां यत्कवचित्कतचित्।। मा0 वि0 का0 1/11

7. तस्य स्नुषाकर्णवधूर्विधूतसंसारवृत्तिः सुनमेकमेव। मासूत मोगेश्वरिदत्तसंज्ञं नामानुरुपस्फुरदर्थ तत्वम्।। तं0 आ0 37/76

8. अभ्वाभिधाना वही 37/79

9. यामग्रेवयसि भर्तृवियोगादीनामन्वग्रहीत, त्रिनयनः स्वयमेव भक्त्या। भाविप्रभावरभसेषु जनेबनर्थः सत्यं समाकृषनि सोऽर्थपरम्पराणाम्।। वही 27/77 भक्त्युल्लसत्पुलकतां स्फुटमग्भूषां श्रीशंभुनाथनतिमेव ललाटिकां च। शैवश्रुतिं श्रवण भूषणवाप्यवाप्य सौभाग्यमुद्वहति स्म यान्तः।। 37/78

10. अम्बाभिधाना किल सा गुरूं तंखं भ्रातरं शभुदृशाभ्यपश्मत्। भाविप्रमावोज्जलमव्यबुद्धिः सतोऽवजानाति न बंधबुद्ध्या।।

11. भाता तदीऽभिनवश्चनाम्ना न केवलं सच्चरितैरपि स्वैः। पीतेन विज्ञानरसेन यस्य तत्रैव वृष्णा ववृधे निकामम्।। साडेन्यश्च शांभवमरीचिचयप्रणश्यत्संकोचहार्द नालिनी घटितोज्जवल श्रीः। तं लुम्पकः परिचचार समुद्रयमेषु साधुः समावहति हन्ति करावलम्बम्।। तं0 आ0 37/80-81

12. तत्र हास्याभासो यथास्मत्पित्तण्यस्य वामनगुप्तस्य। अ0 आ0 पृ0 277/अ0 मु0

13. तस्याभवत् किल पितृष्यवघुविधात्रा। तं0 आ0 37/73

14. विक्षिप्तआवमथपरिहार मथो चिकीर्षन भंद्रस्वके पुरवो स्थितिमसाववे्र। आबालगोपमपि अत्र महेश्वस्य दास्यं जनश्चरति पीठनिवासकल्पे।। तं0 आ0 37/72

15. तस्याभवत् किल पितृव्यवधूर्विधात्रा वा निर्ममे गलितसंसृतिचित्रचिन्ता। शीतंाशुभौलिचरणब्जपरागमात्रभूषा विधिर्विहित वत्सलिकोचिताख्या। तं0 आ0 37/37

16. इत्थं गृहेवत्सलिकावितीर्णे स्थितः समाधान मविंबहूनि। .... सतन्निबन्ध विदधे महार्थम्...। 707/82-8

17. मूर्ताक्षमेण करुणेंव गृहीत देहा धारेवविग्रहवती शुभशीलताया। वैराग्यसार परिपाक दशेव पूर्णा तत्वार्थरत्नरूरस्थित रोहणीर्वी।

18. भर्तापि तस्याः शशिशुभ्रमौलैर्भक्त्या परं पावितचित्त वृत्तिः। स शौरिरत्तैश्वरमंत्रिभावस्तत्याज यो भूपतिमंत्रिभावम्।। तं0 आ0 37/75

22. यदुक्तमस्मद्गुरूभिः अशेषागमोपनिषदालोके तंत्रालोके तं0 सा0 पृ0 268

23. तस्मात् वैदिकात् प्रभृति पारमेश्वरसिद्धान्त कुलोच्छुष्मादि शास्त्रोऽपि यो नियमो विधिः वा निषेधो वातथैव च उक्त्ंा श्रीपूर्वादौ वितत्य तंत्रालोकात् अन्वेष्यम्। तं0 सा0 पृ0 32

19. अभिनव भारती (भारत के नाट्य सूत्र की टीका), ईश्वप्रत्यमिज्ञा- विमर्शिनी (ईश्वप्रत्यमिज्ञा-विमर्शिनी) (ईश्वर प्रत्यभिज्ञाकारिका की टीका), ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विवृति विमर्शिनी (ईश्वर प्रत्यभिज्ञाकारिकावृत्ति की टीका) लोचन (ध्वन्यालोक की टीका)

20. तदुक्तं श्रीत्रिकाशास्त्रे ऋ0 वि0 पृ0 19, तं0 आ0 3/9 4-95। तदुक्तं श्रीत्रिकसारशास्त्रे वही पृ0 138-139, तं0 आ0 5/285-287

21. परमैरवस्फःरमपिरस्मद् गुरूभिरपितंत्रालोके - स्व0 तं0 अ0 ख0 1/पृ0 39-40

24. वितत्य चैतत, निर्णीतं तंत्रालोके। अथवा एतच्च विस्तस्तस्तत्प्रधानेषु तंत्रालोक सारादिषु मया निर्णीतम् तं0 सा0 पृ0 97 इ0 प्र0 बृ0 वि0 -।। पृ0 242

25. अत्र च परस्परं भेदकलनया अवान्त भेदज्ञान कुतूहली तंत्रालोक मेव अवधारमेत्। ज0 म0 वि0,

26. ये अप्यविभक्तं स्फोटंवाक्यं तदर्थ रूपमाहुस्तैरप्य विद्यापदपतितैः सर्वेयमनुसरणीया प्रक्रिया। तदुत्तीर्णत्वे तु सर्वं पारमेश्वरादयं ब्रलेत्यस्मच्छास्त्रानुसारेण विदितं तंत्रालोक ग्रन्थ विचारयेत व्यास्ताम्।

27. मया च वार्तिके सतत् व्याख्यातम् (ई0 प्र0 वि0 वि0।।। पृ0 259

28. अन्वर्थ चात्र दर्शितं श्लोकवार्तिके तंत्रालोके, वही-। पृ0 33

29. यशोक्तं मयैव श्रीषऽर्थश्लोकवार्तिके तंत्रालोके, वही -। पृ0 33

30. उक्तानुक्तदुरूक्तचिन्ताकारितु वार्तिकम्। आप्टे सं0 अं0 कोश, पृ0 503

31. अस्माभिस्तु आगमग्रन्थनिष्ठे वार्तिक भाष्यवृत्ति ग्रन्थे श्रीतंत्रालोकादौ प्रप४चो न्यक्षेण दर्शितम वही।।। पृ0 304

32. तदुक्तं निशष्नायाख्यागमत्यख्याने लंगलो के प्र0 क0 स्0, बडोदा, 1950, पृ0 44

33. तदुक्तं तत्रालोके- त्रिपुरारहस्यदीपिका, ज्ञानखण्ड, पृ0 193

34. इदमभिनवगुप्त प्रोम्भितं शास्त्रसारं। शिव निशमय तावत् सर्वतः श्रोत्रतंत्रः।। तं0 आ0 37/85

35. ग्रन्थकृता निखिलषऽर्हाशास्त्रसारसंग्रहभूतग्रन्थकरणेऽप्यधिकारः कटाक्षीकृतः। तं0 आ0 वि0।। पृ0 14/15

36. अस्यंग्रन्थस्यापि निखिलशास्त्रान्तरसासंग्रहभि प्रायत्वं प्रकाशितम् वहीना, पृ0 29-30

37. अध्युष्ट संततिस्रोतः सारभूतरसाहृतिम्। विधायतंत्रालोकोऽयं स्यन्दते सकलान् रसान्।। तं0 आ0 36/15

38. एतच्चोत्रानतमैव गृहीत्वा संग्रहकारा; प्रवृत्ता; ........ तं0 आ0 वि0 4 पृ0 1369

39. सन्तिपद्धतयश्चित्रा स्रोतो भेदषु भूयसा। अनुत्तरषऽर्धार्थ क्रमे त्वेकापिनेक्ष्यते।। तं0 आ0 1/14

40. अर्थातो रचते स्पष्टां पूर्णार्था प्रक्रियाभिमाम्। वही 1.15

41. ननुसामान्येन त्रिक दर्शन प्रक्रियाकरण प्रतिज्ञाय ...... तं0 आ0 वि-।। पृ. 35

42. न तदस्तीह यन्न श्रीमालिनी विजयोत्तरे - तं0 आ0 1/16

43. एवं च तंत्र प्रक्रियोपासन्नगुर्वभिरवीकरणानन्तरं विश्रान्तिस्थानतया कुल प्रक्रियागुरूमपि उत्कर्षयति - तं0 आ0 वि0 -।। पृ0 31

44. अतोडन्त्रान्तर्गत सर्व सम्प्रदायोज्भितैर्बुधैः। अदृष्टं प्रफटी कर्मो गुरू नाथाज्ञया वमम।। अत इति उक्तयुक्तार यैव शास्त्रस्य प्राधान्यात् ‘प्रकटीकुर्म’ इति प्रक्रियाकरणेन- तं0 आ0 वि0।।

45. प्रकरणे सा प्रक्रिया ‘क्रम भित्यपेक्ष्य’ - प्रार्थसारधि मिश्र- वाधस्पत्यम् टप् वाराणसी, पृ0 4438

46. नियतविधि इति शब्दारत्नावली शब्दकल्पद्रुभ -।।। वाराणसी 1967, पृ0 245

47. पन्थास्य निष्कृष्टार्थ बोधके ग्रन्थ भेदेः इति हेमचन्द्रः वाचस्पत्यम् 15 पृ0 4225

48. ‘‘ग्रन्थार्थ बोधकग्रन्थः’’ इति हेमचन्द्रः। शब्दक ल्पद्रुभ- ख- 3, पृ0 40

49. अनुत्तर प्रक्रिया वैतत्येन प्रदार्शितम्।। त0 आ0 9/313

50. तत्राध्वैव निरुप्योऽयं यतस्तत्प्रक्रिया क्रयम्। अनुसंदधेव द्राग योगी भैखतां ब्रजेत्।। तं0 आ0 8.5

51. न हि प्रक्रिया परं ज्ञानं इति स्वच्छन्दशासने। वही 8.11 जयरथ द्वारा संयुक्त किया गया अंश- न प्रक्रिया परं ज्ञानं नास्तियोगोऽस्वलक्षकः।। तं0 आ0 वि0-4, पृ0 1358

52. इह (त्रिशिरोभैखे) च अनन्तस्य श्रीसिद्धतन्त्रोक्तं भुवनमानं न ग्राह्यमेव- ‘‘क्रियादिभेदभेद देन तन्त्रभेदो यतः स्मृतः। तस्माद यत्र यदेवोक्तं तत्कार्य नान्यतन्त्रतः।। इत्याधुक्त्या तत्प्रक्रियाया भिन्नत्वात्। वही, पृ0 1360

53 मोक्षायैव न भोगाय भोगाया प्यभ्युपायतः। इत्युक्वान् स्वपद्धत्यामीशानशिवदेशिकः।। श्री देव्यायामलीयोक्तितत्व सम्यक्प्रवेदकः। तं0 आ0 22.30-32 जयरथ यहाॅ आणवोपाय की व्याख्या करते हुए पद्वति और प्रक्रिया के मध्य भेद के अंतिम अवकाश को भी समाप्त कर देते हैं - अभ्युपायत इति भोगोपायभूतशास्त्र प्रक्रिया द्यनुसारेण इत्यर्थः। वही पृ0 2980

54 इति ज्ञानचतुपकं यत्सिद्धिमुक्ति महोदयम्। तन्मया तन्त्र्यते तन्त्रालोकमाम्न्यत्र शासने।। त0 आ0 1/245

55. ‘अर्थितो स्चये’ (1.15) इति प्रतिज्ञायाः प्रक्रियायाश्च ‘‘तन्मया तन्त्र्यते- तंत्रालोकमाम्न्यत्र शासने (1.245) इत्यादि वक्ष्यमाणोपजीवनेन तंत्रालोक इत्यभि-धानम्।

56. वक्ष्यमाणषऽर्धशास्त्रार्थ गर्भीकरेण शास्त्रकारः परामृशति तं0 आ0 वि0 - 2, पृ0 3

57. अभिनवगुप्त हृदभ्बुजभेतत् विचिनुत महेशपूजनहेतोः।। तं0 आ0 1/21

58. तव किलनुतिरेषा सा हि त्वद्रूपचर्चे- त्यभिनवपरितुष्टो लोकमात्मीकुरूष्व। वही 37/85

59. गुरोर्वाक्याद्युक्तिप्रचयरचनोन्मार्जनवशात् समाश्वासाच्छास्त्रं प्रति समुदिताद्वापि कथितात्। विलीने शंकाभ्रे हृदयगगनोöासिमहसः प्रभोः सूर्यस्येव स्पृशत चरणध्वान्तजथिनः।। तं0 आ0 2/49

60. इति सप्तधिकाॅेमेना त्रिंशतंयः सदा बुधैः आह्निकाना समभ्यसेत्स साक्षात् भैरवो भवेत्।। सपृत्रिंशल्सु सम्पूर्ण बोधो यöैरवो भवेत्। किं चित्रमणयोऽयस्य दृशा भैरवतामियुः।। तं0 आ0 -1/284-86

61. तंत्रालोकेऽभिनव विरचितेऽमुत्र.................. यत्तत्रादयं पदमविरतानुत्तरज्ञाप्तिरूपं तन्निर्णेतुम्......।। वही 2/1

62. इति ज्ञानचतुष्कं यत्यिद्धिमुक्तिमहोदयं। तन्मया तन्न्न्यते तन्त्रालोकनाग्न्यत्र शासने।। वही 1/245

63. तदुत्तीर्णत्वे तु सर्व परमेश्वराद्वयं इत्यस्मच्छास्त्रानुसारेण विदितं- तन्त्रालोकग्रन्थं विचारयेत्यास्ताम् (व0 लो0 पृ0 19)

64. इहयद्यपि परमेश्वरशक्तिपातमन्तरेण तच्छास्त्रश्रवणादावन्यत् प्रवृत्ति निमितं नाम्युयेयते..... इति साक्षात्कारेणैव अज्ञाना पगमान्मोक्षावाप्तिः...... तथापि तदेक-नियंत ज्ञानाज्ञानयोः स्वरूपं न ज्ञानम् इति.... तत्परीक्षणस्य............प्रधान्यमपि कटाक्षयितुभुपक्रमः एवं बंधमोक्षपरीक्षामुदृंकयति ग्रन्थकारः। तं0 आ0 वि0-2/पृ0 52-54

65. ततः प्रातिभसंवित्यै शास्त्रमस्यत्कृतं स्विदम्। योऽभ्यसेत्य गुरूर्नैव वस्त्वर्था हि विऽम्बका।। तं0 आ0 13/160

66. ततस्वरतमभावेन प्रातिभोदयाद्हेतोर्यः पुनरिदं श्री तंत्रालोकसंज्ञम् अस्मत्कृतं शास्त्रं प्रातिभत्वं संवेदयितुं अभ्यसेत्स समनन्तरमेव सम्पूर्णबोधत्वात् प्रातिभो गुरूर्भवेत् यद्दृकृपात्रमात्रात्सर्वोप्ययं लोकस्ताद्रूप्यभियात तं0 आ0 वि- 5 पृ0 232

67. ननु महतीयं विडम्बना यत्स्वयमेव स्वकृतिं प्रत्येवं प्रशंसा नाम इत्याशंक्योक्तं नैव वस्त्वर्धा हि बिडम्बका इति। वही, पृ0 2302

68. यतः शास्त्रक्रमात्तज्ज्ञ गुरूप्रज्ञानुशीलनात्। आत्मप्रत्ययितं ज्ञानं पूर्णत्वाöैरवायते।। तं0 आ0 4/77

69. ................. इति कालक्त्वमुदितं शास्त्रमुखागम निजानुभवसिद्ध...... तं0 आ0 वि0 2 (103, पृ0 1231

70 संकलय्योच्यते सर्वमधुना सुखसंविदे। तं0 आ0 11.51

71. नहि सर्वसर्विकया एतदापादपितुं पार्यते इति किमशक्त्यार्थाभिनिवेशेन।..... तं0 आ0 वि0 भा0 6, पृ0 2783

72. अनोऽन्त्रान्तर्गतं सर्वं सम्प्रदायोच्झितैः बुधैः। तं0 आ0 1-19

73. येन प्राहुराख्यान्साद्वश्येन विऽम्बिताः। गुरूपासां विनैवात्त पुरस्तक भीष्टदृष्टयः।। वही पृ0 55

74. तेन भ्रष्टे विधै वीर्य स्वरूपे वानया परम्।। मन्त्रान्यस्ताः पुनन्र्यासात्पूर्यन्ते तत्फलप्रदाः।। वही 15-134-35 जयरथ इसमें यह अंश जोड़ते है- तेन शक्त्यात्मत्वेन हेतुना निजनिजतन्त्रप्रसिद्धविद्याभ्रंशेऽपि तन्त्रान्तरीय मन्त्रा न्यस्ताः..... मालिन्या......... पुनन्र्यासात्...... स्वम्नायाम्नातूफलोन्मुखाः सम्पाद्यन्ते इत्यर्थः। तं0 आ0 वि0 भा0 6, पृ0 251

75. इह-स्वकण्ठेनैप पाठेडयमाशयो....... यदत्र बहुनि शास्त्रन्तरेष्वसमम्जसानि पाठान्तराणि सम्भवान्ति-इति श्रोतृणां मा भूत्संमोहः। तं0 आ0 वि0 भा0 4, पृ0 1356

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