डूंगरगढ़
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— तहसील — | |
विधायक गिरधारीलाल महिया | |
क्षेत्रफल • ऊँचाई (AMSL) |
• २६६ मी (८७३फ़िट) मीटर |
साँचा:collapsible list | |
आधिकारिक जालस्थल: www.sridungargarh.com |
साँचा:coord श्री डूँगरगढ़ राजस्थान के बीकानेर जिले का एक प्रगतिशील क़स्बा हे. प्रकृति द्वारा निर्मित चारो तरफ रेतीले टिल्लो से घिरा अपने आप में एक दर्शनीय स्थल प्रतीत होता है । इसकी बसावट एक प्याले के आकार की है तथा शहर के एक किनारे से दूसरे किनारे के सीधे रास्तों के कारण आर-पार देखा जा सकता है एवं प्रत्येक रास्ता चौराहा बनाता है. बीकानेर - दिल्ली रेलवे मार्ग एवं राष्ट्रीय राजमार्ग -11 पर बीकानेर से 100 किमी. पहले से स्थित है । इसकी वर्तमान आबादी ग्रामीण क्षेत्र 241084 तथा शहरी 53312 जिसमें पुरूषों की १५३५५३ एवं महिलओं की 140842 हैं | जो नगर पालिका मंडल के 30 वार्डो में विभाजित हैं | वर्तमान में नगरपालिका मंडल के अध्वक्ष पद पर श्री मानमल जी शर्मा तथा क्षेत्र के विधायक श्री गिरधारीलाल महिया हैं | श्री डूँगरगढ़ तहसील राजनीतिक परिपेक्ष में 97 ग्राम एवं 30 ग्राम पंचयातें, 30 सरपंच, 15 पंचायत समिती सदस्य, 4 जिला परिषद सदस्य, 1 विधायक, 1 नगरपालिका अध्यक्ष तथा 30 पार्षद हैं | शैक्षणिक क्षेत्र में लगभग 30 हजार छात्र - छात्राओं का अध्ययन श्री डूँगरगढ़ में हो रहा हैं |[१]
इतिहास
श्री डूँगरगढ़ के 132 वर्ष पुराने इतिहास से पहले कई शोधपूर्ण तथ्यों के आधार पर कभी यहाँ सरस्वती नदी बहती थी तथा यह एक उपजाऊ क्षेत्र था | एक बार आये विनाशकारी भूकम्प ने यहाँ की प्राकृतिक एवं भौगोलिक स्थिति को पूर्ण रूप से बदल दिया तथा सरस्वती नदी विलुप्त हो गयी एवं सम्पूर्ण भू- भाग रेगिस्तान में परिवर्तित हो गया और यहाँ रेतीले टीले बन गये |
श्री डूँगरगढ़ का जनपद के रूप में गठन सन 1880 (बिक्रम सम्बत 1937) को प्राचीन सारसू व रूपालसर ग्रामों को मिलाकार किया गया | तत्कालीन बीकानेर के नरेश महाराजा डूँगर सिंह ने इसे बसाया | तेरापंथ इतिहास में सन 1936 में श्री डूँगरसिंह द्वारा नींव रखने का उल्लेख मिलता हैं | वी . सं 1936 में महाराजा श्री डूँगरसिंह ने संतोषचन्द सेठिया को रामसही का रूक्का प्रदान कर 1026 बीघा भूमि (1001 बीघा भूमि खेती के लिये एवं 25 बीघा भूमि श्री डूँगरगढ़ को बसाने के लिए) उपहार स्वरूप प्रदान की | तत्कालीन बेलासर के तहसीलदार ठाकुर छोगसिंह ने पहले एक नारियल में पट्टे का आवंटन किया तथा फिर सवा रूपया पट्टे की कीमत रखी गयी |
सारसू के कलिया राजपूत एवं रूपलासर के राठौड़ (बिका) पट्टयत थे | जैसलमेर (लोद्रवा) से नागौर (अहिच्छ्त्रपुर) होते हुए सारस्वत ब्राह्मण समाज के संत सरसजी सबसे पहले इस क्षेत्र में आकर पट्ट्यात बने | नागौर के तत्कालीन राजा पृथ्वीराज चौहान ने इनको 1444 ग्राम पट्टे में दिये तत्तपश्चात इन्होंने सन 1116 (वि सं 1173) में मोमासर बास को अपनी राजधानी बनाया | शीलालेखों के आधार पर रूपा तथा राजू कलिया इस क्षेत्र के पट्टयत थे | सारसू से उत्तर - पश्चिम के भाग में सन 1498 -1503 (वि सं. 1555 - 60) के बीच राव बीका के रिश्तेदार किशानसिंह ने यहाँ के कलिया सरदार रूपा को लड़ाई में मार कर उसकी अन्तिम इच्छा के अनुसार रूपालसर बास बसाया, जिस पर किशनसिंह बीका के वंशजों का वि सं. 1937 तक पट्ट्यात के रूप में अधिकार रहा | श्री डूँगरगढ़ की स्थापना का पहला पट्टा वि संवत 1937 अर्थात 132 वर्ष पूर्वा "जेनीयों के उपासरे" के नाम से बना ।
श्री डूँगरगढ़ में रूपालसर बास जो उत्तरी-पश्चिम हिस्सा है वो अब कालू बास के साथ एकाकार हो चुका है | जोशी, व्यास, सारस्वत, सारण, गोदारा, बीका आदि आज इस बास में बस रहे हैं | डेलवां चौक भी इसी का हिस्सा हैं | वर्तमान में मुख्य रूप से कालुबास (उत्तरी-पश्चिमी भाग) मोमासार बास (कीतासर बास सहित दक्षिणो पश्चिमी भाग) आडसर बास (उत्तरी-पूर्वी भाग) तथा बिग्गा बास (दक्षिणी-पूर्वी भाग) प्रसिद्ध हैं |
एक समय ऐसा था वित्तीय संसाधनों एवं अन्य सुविधाओं की कमी के कारण श्री डूँगरगढ़ से बाहर आसाम, बंगाल, उड़ीसा, महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों में व्यापार एवं अर्थोपार्जन हेतु जाना एक मजबूरी थी किन्तु अब समय में काफी परिवर्तन आ चुका हैं | जमीनों एवं कृषि उत्पादों की कीमतों में भारी बढोत्तरी के कारण वित्तीय संसाधनों की प्रचुरता हो गयी हैं तथा नयी पीढी की व्यक्तिगत विचारधाराओं में भी परिवर्तन आ गया है | इसी का परिणाम है कि श्री डूँगरगढ़ की जमीनों की कीमतें कोलकाता से भी कहीं ज्यादा हो चुकी है तथा फ्लेट प्रणाली (आँनरसीप) को लोग अपनाने लगे है | इससे आभास होने लगा है कि अब श्री डूँगरगढ़ विकास के रास्ते पर अग्रसर हो रहा है और हमें किसी रूप से पैतृक क्षेत्र से जुड़े रहने की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता है|<ref>साँचा:cite web