डीएनए की मरम्मत
इस पृथ्वी पर जितने भी जीव- जन्तू हैं , उन्का निर्माण एक ही दिशा से होता आ रहा है। चाहे वे बैक्टीरीया हो, फफूंद हो , पेड़-पौधे , निचले भाग के जीव , या फिर हम जैसे विकसित जीव, हम सब एक ही कड़ी से जुड़े हैं। यह है शरीर के सबसे छोटे अंश , जिनको हम सेल्स या फिर जीवकोशिकाएं कहते हैं। पूरा शरीर जीवकोशिकाओं से भरा है। हमारी इन कोशिकओं का वर्तमान रूप हमारे विकास क हि एक हिस्सा है। हर कोशिका के अंतरगत एक ऐसा रासायनिक है जो हमारे शरीर की सारे कर्यों को संभालता है। वह है डीआक्सी राईबो न्यूक्लिक ऐसिड। ये हमैस् जैसे जन्तुओं में दो लड़ियों का बना है। डी एन ए ही वह रासायनिक है जो की हमें दूसरे जंतूओं से अलग करता है।
इंसान का डी एन ए करीब ३ अरब आधार जोड़ियों (बेस पेयर) से बना है , जिनके आधार एडनायिन, गुआनायिन, थायामयिन और सयिटोसिन है। यह रासायनिक बंध से जुड़े रहते हैं , जिसे हम हाइड्रोजन ब़ध कहते हैं। इसी से डी एन ए की स्थिरता बनी रहती है। अगर किसी वजह से इन आधार जोड़ियों में कुछ बदलाव आते हैं , तोह उसे हम म्यूटेशन कहते है।
म्यूटेशन के प्रकार :
हम डीएनए के कुछ बदलावों को फिलहाल ६ वर्गों में भाग कर सकते हैं। यह है :
> न्यूक्लियोटाइड संयोजन
अगर दो न्यूक्लियोटाइड अधार जोड़ियों के बीच में , एक नयी आधार जोड़ी आ जाये, तो उसे हम न्यूक्लियोटाइड संयोजन कहते है। यह तब होता है, जब डी एन ए के प्रतिकृति के दौरान, डी एन ए पौलीमरेस ठीक से काम नही करता है, और एक नया बेस, दोनो के बीच में ले आता है। स्ंयोजन के समय। उस दूसरे न्यूक्लियोटायिड के साथ एक अनय बेस जुड़ जाता है। इससे पूरे डी एन ए का रीडिंग फ्रेम बदल जाता है, और नये प्रोभूजिन का विकास शुरु हो जाता है, जिससे की जिवित शरीर में खलबाली सी मच जाती है।
> न्यूक्लियोटाइड विलोपिन
अगर दो न्यूक्लियोटाइड अधार जोड़ियों के बीच में से मिट जये, एक आधार जोड़ी किसी वजह , तो उसे हम न्यूक्लियोटाइड विलोपन कहते है। यह तब होता है, जब डी एन ए के प्रतिकृति के दौरान, डी एन ए पौलीमरेस ठीक से काम नही करता है, और एक नया बेस, दोनो के बीच में से चला जाता। इससे भी शरीर के काफी सारे प्रोटीन्स नश्ट हो जाते हैँ क्योंकि रीडिंग फ्रेम बदल जाता है।
> न्यूक्लियोटाइड प्रतिस्थापन
यहा पर एक न्यूक्लियोटायिड आधार जोड़ी दूसरे में बदल जाती है। जैसे ए-टी बॉंड जी-सी बॉंड बन जाता है या इसका उलटा भी हो सकता है। इससे रीडिंग फ्रेम मेकोई परिवर्तन नही होता। सिर्फ एक अमिनो एसिड का परिवर्तन होता है।
> न्यूक्लियोटाइड ट्रान्सिशन
इसमे एक प्यूरीन ग्रुप ( एडेनाइन और गुआनाइन ) एक दूसरे में आपस में बदल जाते हैं, जिससे के एक अस्थिर बंध बनता है, जिसको ठीक करना मुश्किल हो जाता है।
> न्यूक्लियोटाइड ट्रान्स्वर्शन
इसमे एक प्यूरीन ग्रुप ( एडेनाइन और गुआनाइन ) एक दूसरे ग्रुप पीरीडिन (गुआनाइन और साईटोसिन) के आपस में बदल जाते हैं, जिससे के फिर से एक अस्थिर बंध बनता है, जिसको ठीक करना डी एन ए पॉलिमरेस के लिए मुश्किल हो जाता है।
> टॉटोमेरिक रूप
अगर चारों न्यूक्लियोटाइडों में से कोई अपने सामान्य कीटो रूप से ईनॉल रूप में तब्दील हो जाता है, तो उससे यह परेशानी हो जाती है कि कोई भी न्यूक्लियोटाइड एक दूसरे के साथ बंध बना सकता है और इससे प्रोटीन के बनने में गड़बड़ी हो सकती है।
> थाईमीन डाईमर
अगर कोशिकाओं पर पैराबैंगनी किरणे (अलट्रावायलेट किरणे) पड़ती हैं, तो, डी एन ए में मौजूद दो थाईमीन नयूक्लियोटीइड्स के बीच में एक साईक्लोब्युटेन रिंग बन जाती है। इसकी वजह से डी एन ए पॉलिमरेस काम नही कर पाता , और डी एन ए को अस्थिर बनाता है।
डी एन ए के मरम्म्त तंत्र :
ज़्यादातर डी एन ए की खराबियों को , गलत न्यूक्लियोटाइड्स को निकाल कर सही वाले लगाकर किया जाता है। पर फिर भी, कभी कभी ऐसा करना संभव नही होता। डी एन एन मरम्म्त के कुल तीन प्र्कार है :
डाईरेक्ट बदलाव :
यह तरीका कुछ परेशानियों में बड़ा ही कुशल साबित होता है। यह सिर्फ उन्हीं जगहों पर काम आता है, जहॉं हर समय कोई न कोई बदलाव होते रहते हैं। इन्हे साधातर प्रत्यक्ष बदालाव या डाईरेक्ट रिपेयर से ठीक किया जाता है। इस प्रक्रिया को फोटोरिएक्टिवेशन कहते हैं। इसे ऐसा इसलिए कहते है, क्योंकि प्रकाश की ऊर्जा , साईक्लोब्यूटेन रिंग्स को तोड़ने के लिए काफी होती है। यह क्षमता काफी प्राणियों में उपलब्ध है, जैसे कि पेड़-पौधे, अमीबा, यीस्ट और बैक्टेरिया में यह उपलब्ध है। इस प्रक्रिया में जो एन्ज़ाईम इस्तमाल होता है, वह है फोटोलायेस।
एक्सीशन बदलाव :
यह डी एन ए रिपेयर का एक बहुत ही सामान्य माध्यम है। इसमे क्षतिग्रस्त डीएनए की पहचान कर उसे हटा दिया जाता है , चाहे वह न्यूक्लियोटाईड हो या फिर बेसेस के रूप में हो। इसका एक उदाहरण है , डी एन ए में से यूरासिल का निकाला जाना , जिसका बनना एक म्यूटाजेनिक घटना है। डी एन ए ग्लाईकोसिलेस वह एंजाईम है , जो यह कार्य करने में सहायता करता है। इसके चलते एक खाली यूरासिल बच जाता है। डी एन ए ग्लैइकोसिलेस दूसरे असामान्य बेसेस को भी निकालता है। इसे न्यूक्लिओटाईड एक्सीशन रिपेयर भी कहते हैं।
मिसमैच बदलाव :
यह बदलाव तब काम आता है, जब ए--टी या जी---सी बंध बनने के बजाए , कोई और बंध बन जाते हैं। इसमे ३ प्रोटीन्स इस्तमाल होते हैं। यह हैं - म्यूट एस, म्यूट एल और म्यूट एच। इस प्रक्रिया में म्यूट एस , डी एन ए में असंतुलन ढुंढता है। असंतुलन की जगह पर म्यूट एल आकर छांद जाता है और डी एन ए को बाहर निकाल देता है। म्यूट एच के पास एन्डोन्यूक्लियेस शक्त्ति है, जिससे वह गलत मिसमैचेस को काट देता है।