डाक बंगला

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डाक बंगला कवर चित्र

डाक बंगला कमलेश्वर का एक लघु उपन्यास है।

प्रकाशक: राजपाल एंड सन्स

प्रकाशित वर्ष:2005

आईएसबीएन : 9788170286400

पृष्ठ : 103

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आज भी जब मैं इरा के बारे में सोचता हूं, तो उसकी सूरत-शक्ल से ज्यादा मुझे मेजर सोलंकी, बतरा, डॉक्टर और विमल याद आते हैं। मेरे कानों में कभी दौड़ते हुए घोड़ों की टापों की आवाज़ गूंजने लगती है, कभी बतरा की कद परछाई याद आती है, कभी डॉक्टर का वह जुमला- अब जैसा तुम चाहो ! और कभी विमल का ध्यान आता है, जिसके शरीर में पशीने के कांटे उगते थे। और मेरे सामने काश्मीर के वे दृश्य आज भी घूम जाते हैं जहां इरा ने मुझे यह बताया था।

कई बार मैंने कोशिश की इस बात को, जो रह-रहकर मेरे दिल में घुमड़ उठती है, कहानी के रूप में लिख डालूं, पर पिछले तीन साल से कोशिश करते रहने के बावजूद मैं नहीं लिख पाया। आज इसे लिखने बैठा हूं तब भी इस बात का यकीन नहीं है कि इसे पूरा कर ही पाऊंगा, क्योंकि बहुत सोचने के बाद भी मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका, न मैं इरा को ही पहचान सका। बस, इतना लगता है कि उसके लिए मैं सब कुछ कर सकता था। काश्मीर, इरा, सोलंकी और मैं और धुंधली-भी तीन परछाइयां-सब एक साथ गुंथे हुए हैं। जब भी लिखने बैठा, तब काश्मीर के दृश्यों को उतारते-उतारते थक गया और इरा न जाने कहा खो गई। और काश्मीर को लेकर कहानी लिखने में एक बेईमानी का बोध भी होता है। यही घटना कहीं भी घटित हो सकती थी, हिन्दुस्तान के किसी भी हिस्से में, लेकिन सौन्दर्य-मात्र के प्रति इरा का दीवानापन मुझे मजबूर करता है कि मैं कम से कम उसके प्रति अन्याय न करूँ। और जब मैं इस प्रेरणा से अभीभूत होकर लिखना शुरू करता हूं तो काश्मीर का अनन्त सौन्दर्य मेरे ऊपर हावी हो जाता है। ....मेरे कानों में घोड़े की टापों की आवाज़ गूंजने लगती है और धीरे-धीरे हिलती हुई चीड़ की झूमरें मुझे स्पष्ट दिखाई देखने लगती हैं।

पहलगाम से आड़ू का रास्ता ! बाएं लिद्दर बह रही है और दाएं पहला पठार घास-फूलों से ढका है। उसी की कमर पर से पतला रास्ता जा रहा है। जगह-जगह घनी कंटीली झाड़ियां हैं। पत्थरों की उभरी हुई रेखा उस पतले रास्ते की दिशा बता रही है। नदी का शोर घोड़े की टापों के साथ जैसे पार्श्व संगीत का काम कर रहा है। .... दूर छूटे हुए पहलगाम की चहल-पहल ऐसे खो गई, जैसे किसी ने दरवाजा बन्द करके किसी फैक्टरी के बाहर निकाल दिया हो। लिद्दर की धार में लकड़ी के लट्ठे बहते हुए चले आ रहे हैं।....मंडराते, चकराते और सीधी धार में पड़ते ही शीशे की सतह पर फिसलते-से। पर रास्ता इतना ऊपर चढ़ गया है कि उसका कोलाहल ऊपर तक नहीं आता। नीचे गति है, दृश्य है और चट्टानों से टकराती धार है।...उड़ते हुए जल-पक्षियों की पंक्ति है।...मौन खड़े वन हैं...या चट्टानों की आड़ में रुककर दम लेते हुए लकड़ी के लट्ठे हैं। जल-फेन के तैरते हुए सफेद फूलों के गुच्छे हैं। अवरोध से टकराकर छिटके हुए जल-बीज हैं। पर सब निःस्वन, आवाज़हीन।...जैसे एकाएक सिनेमा में आवाज़ बन्द हो गई हो।

कि एकाएक वही-घोड़े की टापों की आवाज़ !

सोलंकी घोड़ा दौड़ाता हुआ सरपट आड़ू के डाक बंगले की ओर भागा जा रहा है।..उसे इस बात का भी खयाल नहीं कि रात बारिश हो चुकी है और घोड़ा फिसल सकता है। घोड़े के खुर जमीन पर पड़ते नज़र ही नहीं आते, जैसे उसकी पिछली टांगे हंस की तरह हवा चीरती जा रही रही हैं और सोलंकी लगाम कसे उसकी गर्दन पर दोहरा हुआ जा रहा है।

यह तश्वीर का एक रूख है।

अकस्मात् इरा मिल गई थी।...मैं सोलंकी को जानता भी नहीं था। उस समय हम पहलगाम में थे। और तश्वीर का दूसरा रूख यह है-

रात आए तूफान में बिजली का तार टूट गया था। मोमबत्ती की मद्धिम रोशनी में सब चीजें धुंधुली-धुंधली लग रही थीं, जैसे तम्बू में कोहरा भर गया हो। मैं भाप की भट्टी में बंद था, जिसमें मोमबत्ती की लौ एक शोले की तरह चमक रही थी। हर चीज़ पर मोमजामा पड़ा हुआ था। बाहर हवा अभी भी सांय-सांय कर रही थी। तम्बू की ऊपरी परत नीचे झुकती तो लटके हुए कपड़े आकुल जीवों की तरह कांपते और उनकी परछाइयां बड़ी देर तक पेंडुलम की भांति एक सीमा में हिलती रहतीं। रात के बादल अभी आकाश में ठहरे हुए थे। पहलगाम की बस्ती नींद में डूब-उतरा रही थी। दूर दक्षिण वाले पठार पर लगे हुए तम्बुओं की रोशनियां मशालों की तरह तमक रही थीं। चीड़बन से गुज़रती हवा का स्वर किसी नज़दीक की सड़क से लगातार जाती हुई कारों की तरह आ रहा था। भीगी हुई घासों की महक चारों ओर भरी हुई थी।

आखिर चादर लपेटकर मैं उठा। तम्बू का सामनेवाला भरी परदा हटाकर मैंने बाहर झांका। ‘एलपाइन होटल’ छाए हुए बादलों के घेरे में नुकीले काले पहाड़ की तरह लग रहा था। इरा के कमरे में रोशनी नहीं थी। एकाएक रोशनी टिमटिमाई और उसका फैलाव बढ़ गया। कोई देवदूत घाटी में दीपक लिए मेरी ओर आ रहा था। उस उजाले का आभास ही बहुत था। अँधेरे में जैसे किसी रौशन सुरंग का गोल दरवाजा खुल गया हो।

उसी स्वप्निल रोशनी में, खिड़की के शीशों पर, नींद के समुद्र से एक अंगड़ाई हुई छाया धीरे-धीरे उभरी। मैं परदा उठाकर बाहर आ गया। इर्द-गिर्द खड़ी पहाड़ियों की चोटियां कुछ-कुछ साफ हो रही थीं। अँधेरा स्पिरिट की तरह अनजाने में उड़ता जा रहा था। इरा के कमरे की रोशनी और साफ हो गई थी। शाम को इरा कह रही थी, ‘तुम नहीं जाग पाओगे !’ उसे जताने के लिए और इसलिए भी कि इतनी देर हम दोनों एक-दूसरे की जाग्रत अनुभूति से दूर रहे, मैं भी भीतर गया था और टार्च उठा लाया था। टार्च की रोशनी से मैंने अपने जागने का सिगनल दिया था। तभी खिड़की खुली और कमरे में मोमबत्ती की भरी हुई रोशनी के परदे पर इरा छाया-चित्र की तरह दिखाई दी, मैंने उसके ओठों को पहचाना...और वह बन-घास की भीनी-भीनी महक, जो हमेशा उसके चिकने नम शरीर से उठा करती थी... और उसकी अलग आँखों की कोर में सोए उन्माद की लहरियों को जगाता हुआ महसूस किया। तभी इरा ने कोई इशारा किया था, पर मैं अपने में बेसुध खड़ा था...यह भी नहीं जान पाया कि कब इरा ने खिड़की की कार्निस पर मोमबत्ती रख दी, जिसकी लौ, में उसके बाल गोटे के झीने तारों की तरह चमक उठे थे। और इरा कुछ क्षण बाद तैयार होने चली गई थी। अंधेरी घाटी में चमकता हुआ एक आकाशदीप !

पठार के नीचे किसी मोड़ से ऊपर आते हुए घोड़ेवालों की आहट हुई। सुनकर मैं तैयार होने के लिए राउटी में घुस गया, कुछ देर बाद घोड़े वाले ने ऊपर पहुँचकर आवाज़ दी, ‘साब, साहब !’

मैंने निकलकर उसका नाम याद करते हुए पूछा, ‘ममदू, ये बादल देख रहे हो ! ऐसे में कितना ठीक होगा ?’ पूछने को तो मैं पूछ गया पर लगा कि कहीं ममदू ने मौसम खराब घोषित कर दिया तो ? मैं चाह रहा था कि ममदू कहे, साहब इससे कोई फरक नहीं पड़ता।’

मज़दूर में दूसरे की आंतरिक इच्छा जान सकने की अदभुत् शक्ति होती है। एक क्षण के लिए उसने अपने साथी घोड़ेवालों की ओर देखा, उसकी मिचमिचाती आँखों की खामोशी में जिस भावना का बोध था, उसे उसने पहचाना और मतलब समझकर नाक मलते हुए बोला, ‘नई साब, इससे कोई फरक नहीं पड़ता।’ मैंने अपने मन का उतावलापन छिपाते हुए उसी पर अहसान लादा, ‘तुम कहते हो तो ठीक है चलो !’

‘हल्की बारिश में मौज रहेगा साब ! आपको आराम मिलेगा।’ ममदू मेरे अहसान को उतारता हुआ बिस्तर लपेटने के लिए भीतर घुस गया। तभी इरा के होटल का बॉस चाय लेकर आ गया, उसके पीछे-पीछे एक मज़दूर पीठ पर इरा का बिस्तर लादे हुए भालू की तरह झूमता हुआ घोड़ों को पास पहुंच रहा था।

मैंने जब तक चाय पी तब तक सामान ढोनेवाला खच्चर तैयार हो गया था। मैं कैमरा लटकाकर और अपने तम्बू के चौकीदार को हिदायतें देकर एलपाइन होटल की ओर चल दिया। घोड़ेवाले से नीचे सड़क पर मिलने की बात कह दी थी। उजाला अच्छी तरह फैल चुका था। इरा होटल के छोटे-से फाटक का सहारा लिए खड़ी थी, कुचली हुई घास में उसके पैर छिपे थे।

तुम यहां खड़ी हो, मैं वहां इन्तजार कर रहा था। पास पहुंचते हुए मैंने कहा, और वह मेरे कंधे से सट गई थी। उसके सुडौल रेशमी कंधों पर हाथ रखते ही उंगलियां चारों ओर से अपने-आप सिमटने लगती थीं। और कंधे से कुछ नीचे पीठ पर वे स्वतः सड़सी की तरह बंद हो जाती थीं। इरा का शरीर लहर की तरह सिहरता और व्यर्थ मुक्ति की सार-हीन चेष्टा आंखों में आकर पूछती, क्या ? और उनमें झांकते हुए प्रश्न और उत्तर एक ही बिंदु पर आकर मिल जाते। प्रश्न और उत्तर से परे एक सहज चेष्टा और उससे उत्पन्न एक मोहक प्रक्रिया-भरी स्वीकृति।

घोड़ेवाले कोल्हाई के रास्ते पर खड़े हमारा इन्तज़ार कर रहे थे। एक-पाइन होटल से उतरते हुए पहलगाम की छोटी-सी बस्ती रेलवेयार्ड की तरह लगती। खास सड़क के किनारे लकड़ी के मकानों की कतार रेलगाड़ी का तरह खड़ी थी। रात-भर बुझी बत्तियां जल गई थीं और लिद्दर नदी का शोर बढ़ गया था।

खालसा होटल के कुछ लोग साथ चलनेवाले थे, उनका क्या हुआ ? इरा ने पूछा। मैं उनका साथ चाहता भी था, आसानी से समझा दिया, वे आते रहेंगे, हम जल्दी चल रहे हैं। डाक बंगले में आराम की जगह मिल जाएगी।...मैंने एक रात आड़ू के डाक बंगले में रुकने का प्रोग्राम बनाया है और एक रात लिद्दरवट के डाक बंगले में, उसके बाद कोल्हाई ! ठीक है न ?

पहले कहीं पहुंचे भी ! इरा ने कहा तो मेरे मन की बात फूट पड़ी, तुमने बिस्तर बेकार लिया।...मेरे पास सब चीज़ें एक्सट्रा हैं। इस बात में मेरा कुछ आशय था। लेकिन इरा के चेहरे पर कहीं भी संकोच नहीं था। न जाने क्यों, सामान्य स्त्रियों की भाँति ऐसी बातों पर उसमें कोई हलचल नज़र नहीं आती थी, जैसे कुछ भी अनुचित न हो। वह स्त्री-पुरुष की इन तमाम छोटी-छोटी सामाजिक और नैतिक धारणाओंको बड़ी सरलता से नकार देती थी, जिन्हें मैं महत्वपूर्ण समझता था। इससे मुझे बल मिलता, मैं और खुलता, इरा और उन्मुक्त हो जाती। मैंने अपनी पेंट की जेब से लेमनड्राप्स निकालकर उसकी ओर बढ़ाए। एक मुंह में डालकर दो-तीन बार चूसकर उसने फेंकते हुए कहा, कहां से उठा लाए।... सौंफ और दनियावाले, मुंह का ज़ायका बिगाड़ दिया।

टाफी दूं ? कहते हुए मैंने जान-बूझकर आधी टाफी दांत से कुतर ली और आधी उसकी ओर बढ़ता हुआ बोला मैं जानता था, इसलिए लेता आया। और उसके उत्तर में इरा ने सहज भाव से मुंह खोलकर इलाइची दिखा दी, मैं इलाइची खा रही हूं, आप ही खाइए इसे ।...सुनकर मुझे अपनी गलती का पता चला और संकोच से गड़ गया। और इरा की ऊपरी सहजता से जितना बढ़ावा मिलता था, वह क्षण-भर में उसकी भीतरी सहजता से व्यर्थ हो जाता था। वह ऊपर से जितनी निःसंकोच, मुक्त, निर्बन्ध दीखती थी, शायद अन्दर से उतनी ही संकोचशील, परम्परानुरागी और भीरु भी थी।

रात बड़े बादल थे, लगता था चलना नहीं हो पाएगा। मैंने इरा की मनःस्थिति की थाह पाने को बात बदल दी थी, वह रहस्मय-सी लगती थी ऐसे अवसरों पर। मछली की तरह बार-बार फिसल जाती।.... क्षण दो क्षण हाथों में टिकती और सरक जाती, दिन–रात सपनों की बातें करती...।

श्रीनगर में डल पर सैर करते हुए कल्पनाशील दार्शनिक की तरह आधी आँखें मूंदते हुए उसने कहा था-प्रकृति में जो यह जंगलीपन है, तिलक, यह भी कितना खूबसूरत है।...मैं वहशियों की तरह जीना चाहती हूं।...प्रकृति के इस जंगलीपन की तरह ! कभी-कभी सोचती हूं।...आसाम की जंगली जातियों में ही मेरा जन्म होता। बनपाखियों के पंखमुकुट लगाकर घूमती !...कहते-कहते उसने पूरी आँखें खोलकर एक पल की खामोशी के बाद कहा था, देवदार देखे हैं ? मन करता है नंगी चट्टानों के बीच देवदारों की तरह उग सकूं। बस, यही रहूं। तूफानी हवाए मुझे झिंझोड़ जाएं, बारिश में सिहर-सिहरकर भीगूं और नंगी बाहे पसारकर बरफ का स्वागत करूं।...

बात सुनकर मैं बड़े व्यावहारिक ढंग से मुस्कारा दिया था। अपने प्रति उपेक्षा का भाव सहन न कर पाई थी। बोली-नासमझों की तरह हंसते क्या हो ? मुर्दे नहीं सोच सकते यह सब। उसकी आवाज़ में तेज़ी थी और वह कहती जा रही थी-डल के तीन ओर खड़ी ये पहाड़ियां तुम्हें नहीं पुकारतीं ! इस चिकनी चट्टानों पर चढ़कर इन्हें रौंद डालने की इच्छा नहीं होती, कैसे आदमी हो तिलक ? शिकारे में बैठे-बैठे डल के जल को बच्चों की तरह उछलते हुए वह बोलती जा रही थी, इसके तल तक पहुंचकर पानी उलीचने को मन होता है। सिवार के जाल में फंसकर तड़फड़ाने में कितना सुख होगा। या उस कमलवन में घुस पडूं, उसे रौंद डालूं।... कमलनालों को तोड़-मरोड़कर बिखेर दूं, डल के पानी को गंदला कर दूं...

उस पर मैंने उसे बहुत गहरी नज़रों से देखा था, बांह में पड़ी चूड़ियां सरकाने का उपक्रम करते हुए उसकी बांह पर पहली बार हाथ रखा था। इरा की त्वचा में खिंचाव था। उसका रोम-रोम भभर आया था, जैसे रेत के कण उसके शरीर पर चिपक गये हों। उसकी आँखों में उमस थी और होंठों पर मादक सूखापन। उसके शरीर का सारा रस निचुड़कर कही भीतर समा गया था। रूखा तन सूखी टहनी की तरह कड़ा था, पर ऐसा कड़ापन जो उंगली के इशारे-मात्र से चटाख से टूट जाए। मैंने उसकी पीठ पर हाथ रख लिया था। इरा वैसे ही चश्माशाही की पहाड़ियां देखती रही। वातावरण बदलने के लिए मैंने बहुत मुलायमियत से कहा, ‘तुम एक झूठी ज़िन्दगी की कल्पना में परेशान हो। तुम एक गलत मोड़ पर मुड़ गईं, इसलिए अब तुम ज़िन्दगी जीना नहीं उसे तोड़-मरोड़ देना चाहती हो...’

इरा ने अपनी काली-कली आँखों से मेरी तरफ देखा, बादामी पुतलियों में जाले की तरह महीन तार चमक रहे थे और केन्द्र काला दृष्टिबिन्दु मोती की तरह झलमला रहा था। उसकी बरौनियों के बाल कंटीले तार की तरह खड़े थे। न जाने क्यों मुझे उन आंखों को देखकर कि जैसे सारी गलती इन्हींकी हो....इरा की सौन्दर्यपूर्ण जीवनी को बियावान में घसीट लाने का दोष इन वहशी आँखों का है। उसी से प्रेरित होकर मैंने कहा, इस तरह तुम टूट जाओगी। आदमी-आदमी के रिश्ते इसी तरह पहाड़ बने खड़े रहेंगे, उसका प्यार पानी की तरह लहराता रहेगा और कमल इसी तरह खिलते रहेंगे।...और मैं अपनी भावुकता की रौ को पहचानते ही चुप हो गया था।

कुछ देर शिकारे पर ही उधर-उधर घूमकर हम नेहरू पार्क में चले आए थे। शाम थी, इसीलिए भीड़ बढ़ रही थी। नव-विवाहित जोड़े रोशनी से इधर-उधर रेलिंगों या झाड़ियों के पास अंधेरे में खड़े थे। मेरा मन हो रहा था कि इरा को लेकर उधर रेलिंग के पास चला जाऊं, जहां अपेक्षाकृत अंधेरा था। इतनी निकटता मैं महसूस करने भी लगा था।

इरा का हाथ पकड़कर मैं उस अंधेरी रेलिंग की ओर चल दिया था। ऐसी जगहें अलगाव दिखाने की होती भी नहीं, क्योंकि इन जगहों पर संस्कार भी ऐसा होता है। रेलिंग पर झुके-झुके डल के पानी में रोशनी के चमकदार सांपों को लहराकर नीचे की ओर जाते हुए देखकर इरा ने पूछा था, तिलक, तुम कब तक रूकोगे यहां ?

काश्मीर में ? मैंने बात साफ करके कहा, जब तक कहो।

इरा ने बात आगे नहीं बढ़ाई। मुझे कुछ बुरा-सा लगा। पिछले पांच दिनों से मैं इसी कशमकश में था। इतनी निकटता के बावजूद हमारे व्यक्तिगत ताड़ के पेड़ों की तरह अलग-अलग खड़े थे; जब भी बात करता तो इरा अपना पुराना किस्सा सुनाने लगती-आसाम की उन बस्तियों में रहना बहुत खतरनाक है।..खिड़की पर खड़े होते डर लगता था। न जाने कब गोली शीशे के पार से छाती में घुस जाए। ...ऐसे ही अचानक उनकी मौत हुई थी। डॉक्टरी का पेशा ही ऐसा है, रात-बिरात भी जाना पड़ता है।

मैं भला क्या कहता ! उसके पति की मृत्यु के प्रति आंखों से संवेदना ही प्रकट कर सकता था। वैसे इरा की चेतना पर उसके पति की इस आकसमिक मृत्यु का कोई भीषण प्रभाव हुआ हो, मुझे उस वक्त तक नहीं लगा था। इस वक्त जो छोटा-सा सवाल करके इरा खमोश हो गई थी, उससे मुझे उलझन हो रही थी। वह चुपचाप चारों ओर के दृश्यों को देख रही थी। शंकराचार्य की पहाड़ी पर जलता बल्ब मन्दिर जिनकी ठोस परछाइयां पानी को काला कर रही थीं। बाईं ओर हरिपर्वत, और इन सबके बीच फैला हुआ डल का नीला जल। उस पानी में नहाते हुए बेंत के पेड़ और सतह पर बर्छियों की तरह निकले हुए पेत्स के सिरे। तैरते हुए खेत और इस आपार सौन्दर्य-राशि के बीच पास खड़ी हुई इरा। लेकिन सब बेबसी के क्रम में आबद्ध था... सचमुच इस तरह मैं नहीं रह पाऊंगा...यह पानी की आग...यह झुलसन ! या तो इसमें कूदना होगा या इस अग्नि-देश से भागना होगा...इरा की पीठ मेरे सामने थी....पान की शक्ल में तराशी हुई मांस की नरम चट्टान। और तब, नहीं जानता कैसे, उसके जूड़े़ के नीचे गरदन पर मेरे तपते हुए होंठ थे।..धुले हुए केशो की ठण्डक पलकों से आंखो पर उतर गई, स्निग्ध शीतलता, बनघास की भीनी गन्ध....मधुनाभि पर रखे हुए अधरों का असल अस्तित्व...या ओस से भीगे कमल पर रखी हुई चेतन पर मदहोश इन्द्रियां, पंखुड़ियों की नरम शीतलता और पराग की भीनी-भीनी गन्ध.....तभी कमलपांखो-सी रेंगती हुई उसकी उंगलियां मेरे कान पर थरथराई थीं। कान भर आए, जैसे बधिर हो गया था उस पल...उसकी उंगलियों ने मेरे बालों को बुरी तरह खींचा था और कांपकर उसकी पकड़ ढीली हो गयी थी।....और कहीं हवा के साथ प्रतिध्वनित होते शब्दों की मौन झंकार चारों ओर समा गई थी...

बहुतों ने पुकारा था मुझे, पर ऐसा चुम्बकीय पर निरपेक्ष आशय शायद कभी भी किसी का नहीं था। वह कमलनाल की तरह रेलिंग पर झुक गई थी, कुछ देर बाद अपने बालों को झटकारते हुए बोली थी, शिकारेवाले को बुलाओ, अब चलेंगे।

बांध पर आकर हम उतर पड़े थे। जब तक मैं अपना पर्श निकालूं तब तक इरा ने मांझी की हथेली पर दस का नोट थमा दिया था। मैं सकुचाता ही रह गया। मांझी दोपहर से साथ था, जब तक वह हम लोगों के रिश्ते को जानने की कोशिश करे, तब तक इरा ने उसे आश्चर्यपूर्ण स्थिति से उबार लिया, बोली, साहब को पहले पुल तक पहुंचा आओ, इनको उधर जाना है, अपने होटल में...

इरा ऐसे ही असम्बद्ध हो जाती है। मुझे यह अपमान खल गया था, लेकिन इरा यह सब ऐसी सम्मान-भावना से करती थी कि सहज ही अवहेलना करने का साहस नहीं हो पाता था। जब वह इस तरह अपने को काट-छांटकर अलग खड़ा कर लेती तो उसके शरीर के तनाव से तेज की रश्मियां विकसित होतीं, जिनमें अपमान का क्षुद्रता का बोध हो सकना सचमुच असंभव हो जाता। ‘पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश’ सच, बिलकुल ऐसी ही थी, इरा !

और मुंह में इलायची दिखाकर उसने ऐसी ही ठेस पहुंचाई थी, जो मेरे मन की छोटी-सी बात को खंडित करके आत्म-भर्त्सना से भर गई थी। हम दोनों चुपचाप घोड़ेवालों की तरफ बढ़ रहे थे। घोड़ेवाले सफर पर जाने के लिए वहां जमा हो रहे थे, जहां से आड़ू-कोल्हाई और चंदनवाड़ी का रास्ता कटता था। हम अभी पहलगाम के मुहाने पर ही थे।

एक आवाज़ सुनकर हम दोनों ने ही उस ओर देखा, मैं उस आदमी को नहीं पहचान पाया-सूरत साफ दिखाई पड़ रही थी। वह घोड़ा दौड़ाता हुआ आया था। रूखे मोटे-मोटे बाल, पुष्ट भरा हुआ शरीर। मोटे-मोटे साफ तराशे हुए ओठ। कनपटियों पर मांसलता कुछ अधिक थी। वह और पास आया तो मैंने गौर से देखा-दानेदार रेगमाल की तरह खुरदरी मुंह की खाल, कोयले की महीन कनियों-सी बढ़ी हुई दाढ़ी और मूंछें। मैंने इस आदमी को भी कभी नहीं देखा था। तभी इरा बोल पड़ी, अरे सोलंकी, इधर कहां ?

चन्दनवाड़ी से वापस आ रहा हूं, शेषनाग गया था। तुम किधर...? उस सोलंकी ने पूछा, तब तक उसके घोड़े के पास पहुंच गई थी। वह नीचे खड़ी सोलंकी को इस तरह ताक रही थी जैसे कोई विजयी राजपूत वापस आया हो।

उसकी यह बात सुनकर मेरा मन हुआ कि कहूं-अच्छा तो मैं चलता हूं। पर मैं खमोश खड़ा सोलंकी के घोड़े को ताकता रहा जो अभी हांफ रहा था। सोलंकी ने घोड़े से कूदकर रासें छोड़ते हुए दास्ताने उतारे और ओवरकोट की जेब से पाइप निकालकर तम्बाकू भरने लगा। पाइप भरते-भरते वह बोला, हमारा घोड़ेवाला कह रहा था, साहब अभी सरदी है; देर से चलेंगे...फिर घोड़े की ओर देखते हुए बोला, कहता था, अगर आप इस पहाड़ी रास्ते पर घोड़ा दौड़ाएंगे तो टांग साफ टूट जाएगी...यह फौज का नहीं, विज़िटर लोग के वास्ते पॉनी है पॉनी। पॉनी शब्द पर उसने जोर दिया था और हंसा था फिर पाइप जलाते हुए बोला था, टांग क्या खुर तक नहीं टूटा। कहते हुए उसने अपने फौजी बूट से घोड़े के टखने पर जोर से वार किया। घोड़े ने चोट से तिलमिला कर तीन-चार बार ऐसे टांग उठाई जैसे सरकस में सलाम कर रहा हो। पाइप अभी जला नहीं था, उसकी तम्बाकू दबाते हुए सोलंकी फिर बोला था, आना तो कल शाम ही था, एक रात चन्दनवाड़ी में रुक गया। सुबह उठकर मैं भाग आया, खच्चर वाला और इसका मालिक पीछे आ रहा है। कहते हुए रुककर उसने फिर पाइप सुलगाया और नथुनों से धुएं की पतली धार निकालते हुए बोला, हां, हां कहो तो कोल्हाई चलूं ? और तब उसने पहली नज़र मुझ पर डाली थी। इरा को मेरी उपस्थिति का जैसा अकस्मात् ज्ञान हुआ तो एकदम चौंककर बोली, अरे ये मिस्टर तिलक हैं और आप मेजर सोलंकी।

सोलंकी ने लपकर हाथ मिलाया। काफी ज़ोर, उसने मेरा हाथ दबोच लिया था। बड़ी शालीनता से छुड़ाते हुए मैंने कहा था, अभी आप चन्दनवाड़ी से आ रहे हैं, थके होंगे।

इरा की दृष्टि में सहमति और असहमति दोनों ही थीं कि कश लेकर धुआं उगलते हुए सोलंकी ने कहा, नहीं, नहीं, बिलकुल नहीं। और धुआं उसके चारों ओर ऐसे लिपट गया था, जैसे उसने पारदर्शी प्लास्टिक का मोमजामा ओढ़ लिया हो। ईजिप्शियन तम्बाकू की मीठी-मीठी गन्ध उसके ओवरकोट से फूट रही थी। उसके भारी-भारी जूते ओस से भीगे थे।

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