ज्वाला प्रसाद मिश्र
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पण्डित ज्वाला प्रसाद मिश्र (१८६२ -- १९१६) नाटककार, कवि, व्याख्याता, अनुवादक, संशोधक, धर्मोपदेशक तथा इतिहासकार थे। उन्होने श्री वेंकटेश्वर स्टीम प्रेस के माध्यम से सैकड़ों पुस्तकों का प्रकाशन किया।
विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता पं. ज्वाला प्रसाद मिश्र ने न केवल अनेक संस्कृत ग्रंथों की भाषा टीका करके उन्हें सरल और बोधगम्य बनाया अपितु अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना कर हिंदी साहित्य में अतुलनीय योगदान दिया। तुलसीकृत रामायण के अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण, शिव पुराण, विष्णु पुराण, शुक्ल यजुर्वेद, श्रीमद्भागवत, निर्णय सिंधु, लघु कौमुदी, भाषा कौमुदी, मनुस्मृति, बिहारी सतसई समेत शताधिक ग्रंथों की भाषा टीकाएं लिखकर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने सीता वनवास नाटक भी लिखा, जिसमें भवभूति के उत्तर रामचरित की कुछ झलक देखने को मिलती है। 81 पृष्ठों तथा पांच अंकों में संपूर्ण यह नाटक खेमराज श्री कृष्णदास ने अपने वैंकटेश्वर यंत्रालय मुंबई ने प्रकाशित किया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने महाकवि कालिदास के प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम' और भट्ट नारायण के संस्कृत नाटक वेणीसंहार का अनुवाद किया। अनुदित कृतियों में उन्होंने दोहा, कवित्त, सोरठा, कुंडलिया आदि छंदों, राग-रागनियों और लावनियों का प्रयोग किया।
पं. ज्वाला प्रसाद मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में आषाढ़ कृष्ण द्वितीया संवत 1919 (सन 1862) को हुआ था। पिता का नाम पंडित सुखानंद मिश्र था।
ज्वाला प्रसाद मिश्र सनातन धर्म के प्रबल समर्थक थे। लगभग बीस वर्ष की आयु से ही आर्य समाज के मत का खण्डन और सनातन धर्म के मंडन विषय पर लेख लिखा करते थे। उन्हें विशेष ख्याति उस समय मिली जब उन्होंने महर्षि दयानन्द सरस्वती रचित ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश का खंडन करते हुए 'दयानन्द तिमिर भास्कर' की रचना की। लगभग 425 पृष्ठ का यह ग्रंथ सन् 1890 में लिखा गया था। उन दिनों आर्यसमाज और सनातन धर्म के बीच वैचारिक संघर्ष के दिन चल रहे थे। उन्होंने अपने यजुर्वेद भाष्य में महर्षि दयानंद के भाष्य का भी खंडन किया था।
ज्वाला प्रसाद मिश्र ने यहाँ सनातन धर्म सभा की भी स्थापना की थी। धर्मोपदेश के लिए पूरे देश में जाते थे। सन् 1901 में उन्हें टिहरी नरेश ने बुलाकर सम्मानित किया था। भारत धर्म महामंडल ने उन्हें विद्यावारिधि और महोपदेशक उपाधियों से सम्मानित किया था। विभिन्न रियासतों के राजाओं द्वारा उन्हें स्वर्ण पदक से भी सम्मानित किया गया था।
सन् 1882 में यहा बल्लभ मुहल्ले में स्थापित संस्कृत पाठशाला में वह भाषा और व्याकरण के अध्यापक थे। इस पाठशाला के बन्द होने के बाद सन् 1888 में उन्होंने किसरौल मुहल्ले में स्थित कामेश्वर मंदिर में कामेश्वर पाठशाला स्थापित की और अंत तक उसके प्रधानाध्यापक बने रहे।
सन् 1916 में उनका देहावसान हो गया।