जैन धर्म की शाखाएं

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जैन धर्म का चिह्न

जैन धर्म की दो मुख्य शाखाएँ है - दिगम्बर और श्वेतांबर। दिगम्बर संघ में साधु नग्न (दिगम्बर) रहते है और श्वेतांबर संघ के साधु श्वेत वस्त्र धारण करते है। इन्हीं मुख्य भिन्नताओं के कारण यह दो संघ बने।

सात निह्नव

प्राचीन जैन सूत्रों में सात निह्नवों का उल्लेख मिलता है, इनमें से दो निह्नव तो महावीर के जीवन-काल में ही उत्पन्न हो गए थे। बहुरत नाम के पहले निह्नव के संस्थापक क्षत्रियकुंड ग्राम के निवासी स्वयं भगवान महावीर के दामाद जमालि थे; महावीर को केवलज्ञान होने के १४ वर्ष पश्चात् श्रावस्ती में इनकी उत्पत्ति हुई मानी जाती है। जमालि की मान्यता थी कि किसी कार्य को पूर्ण होने में बहुत समय लगता है, एक समय में वह पूर्ण नहीं होता, अतएव क्रियमाण को कृत नहीं किया जा सकता। महावीर की पुत्री प्रियदर्शना ने पहले तो अपने पति के पक्ष का समर्थन किया लेकिन बाद में वह महावीर की शिष्या बन गई। इसके दो वर्ष पश्चात् आचार्य बसु के शिष्य तिष्यगुप्त ने राजगृह में आत्मा संबंधी विवाद खड़ा किया। महावीर के मतानुसार आत्मा शरीर के समस्त परमाणुओं में व्याप्त है, लेकिन तिष्यगुप्त का कहना था कि जीव का कोई एक या दो प्रदेश जीव नहीं कहा जा सकता, किसी अंतिम प्रदेश को ही जीव कहना चाहिए। यह जीव प्रदेश नाम का दूसरा निह्नव है। फिर महावीर-निर्वाण के २१४ वर्ष पश्चात् अव्यक्तवादी आषाढ़भूति आचार्य हुए जिन्होंने सेतव्यानगरी में समस्त जगत् को अव्यक्त प्रतिपादन करते हुए साधु या देवयोनि में कोई भेद स्वीकार करने से इनकार कर दिया। यह अव्यक्तवाद नाम का तीसरा निह्नव कहलाया। इसके ६ वर्ष पश्चात् समुच्छेदवादी महागिरि के प्रशिष्य और कौंडिन्य के शिष्य अश्वमित्र ने मिथिला में प्रतिपादन किया कि जीव तो प्रति समय नष्ट होता रहता है, फिर पुण्य-पाप का भोग कौन करेगा? इसी को लेकर चौथे निह्नव की स्थापना हुई। इसे ८ वर्ष बाद महागिरि के प्रशिष्य और धनगुप्त के शिष्य गंगाचार्य ने उल्लुकातीर में द्वैक्रियवाद नामक पाँचवाँ निह्नव स्थापित किया। इस सिद्धांत के अनुसार शीत और उष्ण आदि परस्पर विरोधी भावों का संवेदन संभव है। तत्पश्चात् महावीर-निर्वाण के ५४४ वर्ष बाद श्रीगुप्त के शिष्य रोहगुप्त (अथवा वैशेषिक मत के प्रवर्तक षडुलुक) ने अंतरंजिया में त्रिराशिवाद का प्रतिपादन करते हुए जीव-राशि को पृथक् स्वीकार किया। कुछ लोग मंखलि गोशाल को इस मत का अनुयायी स्वीकार करते हैं, और कुछ वैशेषिक दर्शन को त्रिराशिवाद का अंग मानते हैं। यह छठा निह्नव है। महावीर-निर्वाण के ५८४ वर्ष बाद अबद्धवादी गोष्ठामहिल हुए जिनके मतानुसार आत्मा का कर्म के साथ बंध नहीं होता, केवल स्पर्श भर होता है। यह सातवाँ निह्नव है जिसकी उत्पत्ति दशपुर में हुई।

दिगंबर-श्वेतांबर मतभेद

महावीर भगवान के पश्चात् जैन स्थविरों की पंरपरा से पता लगता है कि आचार्य भद्रबाहु के समय तक दिगंबर और श्वेतांबर परंपरा में विशेष मतभेद नहीं था। ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी के आसपास ये दोनो परंपराएँ जुदी पड़ गई (देखिए, दिगंबर)। दोनों संप्रदायों में निम्नलिखित मुख्य भेद हैं--

(क) दिगंबर संप्रदाय में मोक्ष के लिये नग्नत्व को मुख्य बताया गया हैं, जब कि श्वेतांबर मोक्ष पाने के लिये नग्नत्व को आवश्यक नहीं मानते।

(ख) दिगंबर स्त्री-मुक्ति का निषेध करते हैं, श्वेतांबर परंपरा में १९ वें तीर्थकर मल्लिनाथ को मल्लिकुमारी के रूप में स्वीकार किया गया है।

(ग) दिगंबर श्वेतांबर संप्रदाय द्वारा मान्य आगम-ग्रंथों को प्रामाणिक नहीं मानते।

(घ) दिगंबर संप्रदाय में सर्वज्ञ भगवान् केवलज्ञानी हो जाने पर कवलाहार नहीं करते।

जैन स्थविरावलि

भद्रबाहु ने अपने कल्पसूत्र में जैन आचार्यों की स्थविरावलि दी है। इनके अनेक गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख यहाँ मिलता है। इनके नाम मथुरा के कंकाली टीले के शिलालेखों में उत्कीर्ण हैं।

दिगम्बर

दिगंबरों के संघ

मूलसंघ -- दिगंबर मत के अनुसार विक्रम संवत् २६ में मूलसंघ के प्रख्यात आचार्य अर्हद्बलि ने (इन्हें गुप्तिगुप्त या विशाख भी कहा जाता है) अपने संघ को चार शाखाओं में विभक्त किया -- नंदीसंघ, सेनसंघ, सिंहसंघ, और देवसंघ। नंदीसंघ के अनुयायी नंदी वृक्ष के नीचे चातुर्मास करते थे। इस संघ के नेता माघनंदी थे। सेनसंघ के अनुयायी झाड़ियों के नीचे चातुर्मास करते थे, इनके नेता जिनसेन थे। सिंहसंघ के अनुयायी सिंह की गुफाओं में चातुर्मास करते थे, इनके नेता सिंह थे। देवसंघ के अनुयायी देवदत्ता नाम की गणिका के घर में चातुर्मास करते थे, इनके नेता देव थे। इन शाखाओं के और भी उपभेद हैं जो शाखाओं के नेता साधुओं के नाम पर रखे गए हैं। मूलसंघ का सबसे पहला उल्लेख विo संo ४८२ के नोणमंगल के एक दानपत्र में मिलता है।

अन्य संघ

देवसेन (विo संo ९९०) ने अपने दर्शनसार में यापनीय आदि संघों का उल्लेख किया है। द्राविड़, काष्ठा और माथुरसंघ को उन्होंने जैनाभास कहा है।

बीस पंथ

जैसे श्वेताबंरों में चैत्यवासी या मठवासी 'जती' या 'श्रीपूज्य' नाम से और वनवासी 'संवेगी' नाम से कहे जाते हैं (देखिए जिनेश्वर सूरि), वैसे ही दिगंबरों के भट्टारकों को मठवासी और नग्न मुनियों को वनवासी शाखा के अवशेष समझना चाहिए, यद्यपि ध्यान रखने की बात है कि श्वेतांबर संप्रदाय की भाँति दिगंबर संप्रदाय में चैत्यवासी नाम के किसी पृथक् संगठन का उल्लेख नहीं मिलता।

मालूम होता है, चैत्यवासी या मठवासी हो जाने पर भी दिगंबर साधु प्राय: नग्न ही रहते थे, लेकिन आगे चलकर उनमें वस्त्र धारण कने की प्रवृत्ति चल पड़ी। विक्रम की १६वीं शताब्दी के विद्वान् श्रुतसागर ने लिखा है कि कलिकाल में म्लेच्छ आदि यतियों को नग्न अवस्था में देखकर उपद्रव करते हैं इसलिये मंडपदुर्ग (मांडू) में श्रीवसंतकीर्ति स्वामी ने उपदेश दिया कि मुनियों को चर्या आदि के समय चटाई, टाट आदि से शरीर को ढक लेना चाहिए और चर्या के बाद चटाई आदि को उतार देना चाहिए। ये वसंतकीर्ति चित्तौड़ की गद्दी के भट्टारक थे और विदृ संदृ १२६४ के लगभग विद्यमान थे। इन्हीं वसंतकीर्ति भट्टारक के अनुयायी बीसपंथी कहे गए। बीसपंथ के अनुयायी भट्टारकों को अपना परम गुरु मानते हैं। इनके मंदिरों में क्षेत्रपाल और भैरव आदि देवों की प्रतिमाएँ रहती हैं। इन प्रतिमाओं की केशर से पूजा होती है, पुष्पों से शृंगार किया जाता है और इनपर नैवेद्य चढ़ाया जाता है। ये भट्टारक गाँवों और बाग-बगीचों के मालिक होते, मंदिरों का जीर्णोद्धार कराते, दूसरे मुनियों को आहार देते, दानशालाएँ निर्माण कराते, गद्दे तकियों पर बैठते, पालकी में चलते और इनके ऊपर छत्र चँवर डुलाए जाते हैं। कारकल मठ के महाधिपति ललितकीर्ति इसी प्रकार के भट्टारक थे जो १९०७ में विद्यमान थे।

तेरह पंथ

चैत्यवासियों का विरोध करने के लिये जो काम विधिमार्ग के विद्वानों ने श्वेतांबर संप्रदाय में किया, वही काम चैत्यवासी भट्टारकों का विरोध करने के लिये दिगंबर संप्रदाय तेरह पंथ ने किया। इस पंथ के अनुयायी प्राचीन काल से चले आते हुए कठोर नियमों के पालने में धर्म मानते हैं और वन में वास करनेवाले मुनियों को सच्चा मुनि स्वीकार करते हैं। सन् १६२६ में पंडित बनारसीदास ने आगरा में जिस शुद्ध आम्नाय का प्रचार किया वही आगे चलकर तेरह पंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तेरह पंथ नाम जब प्रचलित हो गया तब भट्टारकों का मार्ग बीस पंथ कहा जाने लगा। स्थानकवासियों के तेरापंथ से इसे भिन्न समझना चाहिए।

इसके अतिरिक्त श्वेतांबरों की भाँति दिगंबरों में भी मूर्तिपूजक और अमूर्तिपूजक नाम के उपसंप्रदाय पाए जाते हैं। तारणपंथ मूर्तिपूजा के विरोध में उत्तपन है।साँचा:sfn तारणस्वामी (१४४८-१५१५) ने इस पंथ की स्थापना की थी। इस पंथ के अनुयायी तारणस्वामी द्वारा रचित १४ ग्रंथों को वेदी पर स्थापित कर उनकी पूजा करते हैं। जैन दर्शन के प्रखर विद्वान पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री के अनुसार तारणपन्थ और स्थानकवासी जैसे सम्प्रदाये की उत्तपती में मुसलमानों का मूर्तिपूजा विरोध भी एक कारण है।साँचा:sfn

श्वेतांबर

श्वेतांबरों के दो भेद हैं : मूर्तिपूजक और स्थानकवासी।

श्वेतांबर मूर्तिपूजकों के गच्छ

श्वेतांबर मूर्तिपूजकों को पुजेरा, मूर्तिपुजक, देरावासी अथवा मंदिरमार्गी भी कहा जाता है। श्वेताम्बर संप्रदाय द्वारा मान्य गच्छों के नामों में मतभेद देखने में आता है। अनेक पत्रकों में सुप्रसिद्ध गच्छों के नाम भी नहीं पाए जाते। उद्योतन सूरि के समय (ईo ९३७) से इन गच्छों का आरंभ हुआ माना जाता है। कहते हैं, उद्योतन सूरि के ८४ शिष्यों ने ८४ गच्छों की स्थापना की। समय समय पर गच्छों के नामों में संशोधन परिवर्तन होता रहा। समस्त गच्छों के ऊपर एक श्रीपूज्य होता है; साधुओं के चातुर्मास आदि के संबंध में वह अपना निर्णय देता है, और आवश्यकता पड़ने पर किसी साधु को संघ के बाहर कर सकता है। जैन परंपरा में गच्छ में मुनियों या साधु साध्वियों के ऊपर एक आचार्य पद होता है, उसके नीचे उपाध्याय और उपाध्याय पद के नीचे पंन्यास होता है जो यतियों की क्रियाओं का ध्यान रखता है पंन्यास पद के नीचे गणि पद होता है, वह भगवतीसूत्र तक का अभ्यासी होता है। जिन मुनियों का महानिशीथ तक का अभ्यास एवं योगोद्वहन किया हुआ होता है वे ही श्रावकों को व्रत दे सकते हैं।

८४ गच्छों में उपकेश, खरतर, तपा,तपा-त्रिस्तुतिक पायचंद (पार्श्व गच्छ), पूनमिया, अंचल और आगमिक आदि गच्छ मुख्य हैं।

स्थानकवासी संप्रदाय

स्थानकवासियों की समस्त क्रियाएँ स्थानक (उपाश्रय) में होती हैं इसलिये ये स्थानकवासी कहे जाते हैं। इन्हें ढूँढ़िया, बिस्तोला अथवा साधुमार्गी भी कहते हैं। ये भी मूलतः श्वेतांबर ही हैं, लेकिन अविच्छिन्नकाल से आ रही मूर्तिपूजा को नहीं मानते और जैन धर्म के ४५ आगमों में से केवल ३२ आगमों को ही अपनी सुविधानुसार प्रमाण मानते हैं। इसके संस्थापक लोंकाशाह थे जो अहमदाबाद में जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक वर्ग के मुनियों के आदेशानुसार जैन शास्त्रों की नकल या प्रतिलिपियाँ किया करते थे। कुछ जैन मुनियों के साथ इनके द्वारा किये गए प्रतिलिपि कार्य मे दोष के कारण विवाद हुआ और बाद इन्होंने द्वेषपूर्ण तरीक़े से यह प्रचारित करना शुरू किया कि इन्हें आगमों के अध्ययन से पता चला कि इनमें मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं है, तथा सभी आगम प्रमाण नहीं माने जा सकते। आगे चलकर सन् १४६७ में लोंकाशाह साधु बन गए। इन्होंने लोंका अथवा लुंपाक संघ चलाया; भाणजी नामक श्रावक उनका प्रथम शिष्य हुआ।

वीर के पुत्र लवजी ने लोंकामत में सुधार करने का प्रयत्न किया। उन्होंने सन् १६५३ में ढूँढ़िया नामक संप्रदाय चलाया जो बाद में लोंकामत का ही समर्थक हुआ। इस संप्रदाय के गुजरात में अनेक शिष्य बने।

सन्दर्भ सूची

सन्दर्भ ग्रन्थ

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