जानकीहरण (महाकाव्य)
जानकीहरण श्रीलंका के महाकवि कुमारदास द्वारा रचित उच्च कोटि का महाकाव्य है।
परिचय
सर्वप्रथम सिंहली भाषा में प्राप्त 'सन्नै' (यथानुक्रम रूपांतर) के आधार पर इसके प्रथम १४ सर्गो तथा १५वें के कुछ अंश का मूल संस्कृत रूप बनाकर प्रकाशित किया गया है, जिसमें अंगद द्वारा रावण की सभा में दैत्य तक की कथा आ जाती है। गवर्नमेंट ओरिएंटल मैनस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, मद्रास में इस महाकाव्य की १० सर्गो की पांडुलिपि संस्कृत में है। किंतु यह लिपि अत्याधिक सदोष है। इसकी प्रामाणिकता के प्रति भी संदेह है तथा यह भी ज्ञात नहीं कि सिंहली 'सन्ने' से इसने कहाँ तक अपना रूप ग्रहण किया है। संभवत: इस महाकाव्य की रचना २५ सर्गो में हुई थी और राम के राज्याभिषेक से कथा की समाप्ति हुई थी - यह अनुमान 'सन्ने' में उधृत सर्वात्य श्लोकों से लगाया जाता है। अत: इसका कथानक बहुत कुछ 'भट्टिकाव्य' ('रावणवध') के जैसा कहा जा सकता है।
सर्गक्रम से इसकी कथा इस प्रकार है :
- प्रथम सर्ग - अयोध्या, राजा दशरथ तथा उनकी रानियों का वर्णन;
- द्वितीय सर्ग - बृहस्पति द्वारा ब्रह्मा से सहायता माँगते समय रावण के चरित्र का वर्णन;
- तृतीय सर्ग - राजा दशरथ की जलक्रीड़ा एवं संध्यावर्णन;
- चतुर्थ-पंचम-सर्ग - रामजन्म से सुबाहुवध तक का वर्णन;
- षष्ठ सर्ग - विश्वामित्र का राम-लक्ष्मण-सहित जनकपुर गमन एवं जनम-मिलन-वर्णन;
- सप्तम-अष्टम-सर्ग - राम-सीता विवाह आदि;
- नवम सर्ग - सबका अयोध्या आगमन;
- दशम सर्ग - दशरथ द्वारा राजनीति विवेचन, राम का यौवराज्याभिषेक, विविध घटनाएँ तथा अंत में जानकीहरण;
- एकादश सर्ग - बालिवध तथा वर्षा-वर्णन;
- द्वादश सर्ग - लक्ष्मण द्वारा सुग्रीव की भर्त्सना;
- त्रयोदश सर्ग - वानर-सेना-एकत्रीकरण;
- चतुर्दश सर्ग - सेतुबंध;
- पंचदश सर्ग - अंगद द्वारा रावणसभा में दौत्य;
- षोडश सर्ग - राक्षस केलि;
- सप्तदश से विंश सर्ग तक - युद्ध तथा रावणपराजय।
शेष सर्गो में अयोध्या आगमन तथा राज्यभिषेक वर्णित रहा होगा।
अंतिम पद्यों के विवेचन से ज्ञात होता है कि इस महाकाव्य के रचयिता का नाम 'कुमारदास' था, जिन्हें कुमारभट्ट या कुमार भी कहा जाता है। ये सिंहलद्वीप के राजा थे। इनके पिता का नाम कुमारमणि था। कुमारदास की ख्याति भारतवर्ष में पर्याप्त थी। जल्हण (१२५० ई.) ने अपनी सूक्तिमुक्तावली में 'जानकीहरण' के अनेक श्लोक उद्धृत किए हैं। राजेश्वर (९२० ई.) ने कुमारदास के 'जानकीहरण' की सुश्लिष्ट उक्ति द्वारा प्रशंसा की है :
- जानकीहरण' कर्तु रघुवंशे स्थिते सति। कवि: कुमारदासश्च रावणश्च यदि क्षमौ।।
कहते हैं जिस दिन पिता कुमारमणि युद्ध में मारे गए उसी दिन बालक कुमारदास का जन्म हुआ था। इनके दो मातुलों - श्री मेघ और अग्रबोधि - ने इनका पालन पोषण किया। कवि ने बड़ी कृतज्ञता के साथ अपने उन मातुलों का स्मरण इस काव्य के अंत में किया है।
ये कुमारदास सिंहलद्वीप के इतिहासंग्रंथ महावंश में वर्णित मौद्गल्यायन के पुत्र कुमार धातुसेन (५१५-५२४ ई.) से भिन्न थे। किंवदंती है कि अपने काव्य 'जानकीहरण' के प्रशंसक महाकवि कालिदास को कुमारदास ने सप्रेम सिंहलद्वीप बुलाया। वहाँ जाकर कालिदास दुर्भाग्यवश एक सुंदरी के प्रेमजाल में फँसकर मार डाले गए। अपने अतिथि एवं मित्र की इस जघन्य हत्या से खिन्न राजा कुमारदास ने भी अपने को उसी चिता पर जला डाल। आज भी लंका के दक्षिण प्रांत में कालिदास का समाधिस्थान विद्यमान है। राजशेखर की पूर्वोल्लिखित उक्ति से यही निष्कर्ष निकलता है कि कुमारदास कालिदास के पश्चात् ही हुए होंगे। उनकी रचना पर रघुवंश और कुमारसंभव का अत्यधिक प्रभाव भी दिखाई पड़ता है।
यमक के प्रति अतिशय आग्रह होते हुए भी वैदर्भी रीति एवं प्रसाद गुण इस काव्य की अपनी विशिष्टताएँ हैं। वामन जयादित्य के व्याकरण ग्रंथ 'काशिका' (६३०-६५० ई.) में उल्लिखित कुछ विशिष्ट शब्दों का उन्हीं अर्थो में 'जानकीहरण' में प्रयोग देखकर कुमारदास का समय वामन और राजशेखर के बीच ईसा की आठवीं शताब्दी के अंत तथा नवीं के प्रारंभ में रखा जा सकता है।
बाहऱी कड़ियाँ
- जानकीहरणसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link] (भारत का आंकिक पुस्तकालय)