चोखामेला

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चोखामेला (1300-1400) महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत थे जिन्होने कई अभंगों की रचना की है। इसके कारण उन्हें भारत का दलित-महार जाति पहला महान् कवि कहा गया है। सामाजिक-परिवर्तन के आन्दोलन में चोखामेला पहले संत थे, जिन्होंने भक्ति-काल के दौर में सामाजिक-गैर बराबरी को लोगों के सामने रखा। अपनी रचनाओं में वे दलित समाज के लिए खासे चिंतित दिखाई पड़ते हैं।[१]

परिचय

चोखामेला के जीवन सम्बन्धित बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। चूँकि संत नामदेव (1270-1350) को उनका गुरु कहा जाता है, अत: उनकी कालावधि इसी के आस-पास होना चाहिए। चोखामेला का जन्म महाराष्ट्र के महार जाति में हुआ था। वे मेहुनाराजा नामक गावं में पैदा हुए थे, जो जिला बुल्ढाना की दियोलगावं राजा तहसील में आता है।

चोखामेला बचपन से ही विठोबा के भक्त थे। हिन्दू समाज-व्यवस्था में निम्न कही गई जाति के लोगों को और कोई आसरा तो था नहीं, अतयव गंभीर प्रकृति के लोग भगवान्-भक्ति को ही उद्धारक मानते थे। ये अलग बात है कि तथाकथित भगवान के मन्दिर में उन्हें प्रवेश भी करने नहीं दिया जाता था। एक बार चोखामेला पंढरपुर आये जहाँ संत नामदेव का कीर्तन हो रहा था। वे नामदेव महाराज के कीर्तन से मंत्र-मुग्ध हो गए।

नामदेव विठ्ठल-भक्त थे और तब वे पंढरपुर में ही रह रहे थे। नामदेव के आकर्षण और विठ्ठल-भक्ति ने चोखामेला को पंढरपुर खिंच लाया। वे अपनी पत्नी सोयरा और पुत्र कर्मामेला के साथ पंढरपुर के पास मंगलवेध में आ कर रहने लगे। चोखामेला नित्य विठोबा के दर्शन करने पंढरपुर आते और मन्दिर की साफ-सफाई करते। यद्यपि, महार होने के कारण मन्दिर में प्रवेश की उन्हें इजाजत नहीं थी। चोखामेला की एक बहन निर्मला भी ही जो विठोबा की भक्त थी। चोखामेला के एक शिष्य बंका का भी उल्लेख आता है। बंका, चोखामेला की पत्नी सोयरा का ही भाई था।

चोखामेला वारकरी सम्प्रदाय के थे। वारकरी सम्प्रदाय के अनुयायी जो पूरे महाराष्ट्र में फैले हैं। वारकरी का अर्थ है, यात्री। वारकरी सम्प्रदाय ये लोग प्रत्येक वर्ष पंढरपुर की यात्रा करते हैं। ये अभंग गाते हुए नंगे पैर चलते रहते हैं। अभंग और ओवी महाराष्ट्र के संतों की वाणी है। अभंग, ओवी का ही एक रूप है जो महिलाऐं गाती हैं। चोखामेला के अभंगों की संख्या 300 के करीब बतलाई जाती हैं जिनमें सोयरा, कर्ममेला और बंका के नाम से भी रचित अभंग मिलते हैं। इनमे से कई अभंग चोखामेला पर हुए ब्राह्मण-पंडितों के अत्याचारों का कारुणिक और ह्रदय-स्पर्शी वर्णन करते हैं।

भारत में भक्ति-काल को मोटे तौर पर एक सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन कहा जा सकता है जिसके तहत सदियों की सामाजिक-धार्मिक जड़ता को संत- महात्माओं के द्वारा प्रश्नगत किया गया। भक्ति-आन्दोलन से निश्चित रूप से निम्न कही जाने वाली जातियों को बल मिला। वे दूर से ही सही, ढोल-मंजीरे के साथ उच्च जाति हिन्दुओं के कानों में अपनी आवाज पहुँचाने लगे। वे पूछने लगे कि 'नीच' होने में उनका कसूर क्या हैं? कमोवेश यही स्थिति हिन्दू समाज में नारी की थी। शूद्रों और अति-शूद्रों के साथ हिन्दू नारी भी पूछने लगी कि उसके साथ अछूत-सा बर्ताव क्यों ?नामदेव, जो दर्जी समाज के थे और जिनकी सामाजिक स्थिति शूद्रों में थी, चोखामेला को बहुत चाहते थे। वे चोखामेला की विठ्ठल-भक्ति से अभिभूत थे। हमें ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं, जब नामदेव ने सनातन हिन्दू पंडा-पुजारियों के क्रोध से चोखामेला का बीच-बचाव किया था।

चोखामेला के बाप-दादाओं का कार्य गावं के हिन्दू घरों में मरे हुए जानवरों को उठा गाँव के बाहर ले जा कर ठिकाने लगाना होता था। इसके लिए उन्हें कोई मेहनतनामा नहीं दिया जाता था। तब, महारों के अलग मोहल्ले गावं के बाहर होते थे। हिन्दुओं की जूठन पर महारों का गुजर होता था। महारों को हिन्दू, अपनी वर्ण-व्यवस्था में चौथे वर्ण में भी नहीं गिनते थे। उन्हें वर्ण-बाह्य माना जाता था। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने की मनाही थी। उन्हें सामान्य सुविधाएँ जैसे सार्वजानिक कुँए से पानी भरने की मनाही थी। उनके मन्दिर-प्रवेश पर पाबन्दी थी।

पंढरपुर के विठ्ठल, जो विष्णु का ही रूप है जिन्हें कभी कृष्ण तो कभी शिव के स्वरूप में पूजा जाता हैसंत चोखामेला ने कई अभंग लिखे हैं, जिसके कारण उन्हें भारत का पहला दलित-कवि कहा गया है। सामाजिक-परिवर्तन के आन्दोलन में चोखामेला पहले संत थे, जिन्होंने भक्ति-काल के दौर में सामाजिक-गैर बराबरी को लोगों के सामने रखा। अपनी रचनाओं में वे दलित समाज के लिए खासे चिंतित दिखाई पड़ते हैं।[२]

सन्दर्भ