घ्राण तंत्र
नासिका घ्राणतंत्र (Olfactory system) का अंग हैं। उसके भीतर की दोनों गुहाएँ नासासुरंग (nasal cauiities) कहलाती हैं। ये आगे की ओर नासाद्वारों से प्रारंभ होकर पीछे ग्रसनिका (pharynx) तक चली गई हैं। इन दोनों के बीच में एक विभाजक पटल है, जो ऊपर की ओर झर्झरिका (ethmoid) की मध्य प्लेट से ऊपर और नीचे की ओर वोमर (Vomer) या सीरिक अस्थि का बना हुआ है। इस फलक पर रोमक श्लेष्मल कला चढ़ी हुई है, जो नासा के पार्श्वों पर की काल से मिल जाती है। इस कला के फलक पर चढ़ हुए भाग के केवल ऊपरी क्षेत्र में ध्राणतंत्रिका के वे तंतु फैले हुए है जो गंध को ग्रहण करके मस्तिष्क में केंद्र तक पहुँचाते हैं।
नासिका का बाहरी भाग ऊपर की ओर अस्थि का और नीचे का केवल मांसनिर्मित है, जो त्वचा से दबा हुआ है और नासापक्ष (Alanasii) कहलाता है। मध्य विभाजक फलक पर ऊपर नीचे सीप के आकार की मुड़ी हुई पतली पतली तीन अस्थियाँ लगी हुई हैं, जो ऊर्ध्व, मध्य और अधो शुक्तिभाएं (superior, middle and inferior turbinals) कहलाती हैं। ऊर्ध्व शुक्तिभा के ऊपर का स्थान जतूक झर्झरिका दरी (Sphero ethmoidal recess) कहा जाता है। उसके पीछे के भाग में जतूक वायुविवर का मुख खुलता है। ऊर्ध्व और मध्यशुक्तिभा के बीच में ऊर्ध्व कुहर (Superior meatus) हैं, जिसमें झर्झरिका के कुछ वायुकोष खुलते हैं। मध्य और अधोशुक्तिभा के बीच का गहरा और विस्तृत अत:स्थान मध्यकुहर (Middle meatus) हैं, जिसमें ललाटास्थि (Frontal) और अधोहन्वास्थि के वायुविवरों (air sinuses) के छिद्र स्थित हैं। दोनों विवरों में यहीं से वायु पहुंचती हैं। संक्रमण (infection) भी यहीं से पहुँचता है। अधोशुक्तिभा के नीचे का स्थान अधोकुहर कहा जाता है। यहाँ अधोशुक्तिभा के नीचे, उससे ढका हुआ नासानलिका (nasal duct) का छिद्र है। इस कारण वह शुक्तिभा को हटाने या काटने पर ही दिखाई देता है। इस सुरंग की छत संकुचित है, जहाँ नासा की पार्श्वभित्ति मध्यफलक से मिल जाती है। यहाँ से मध्यफलक के ऊपरी भाग में फैले हुए तंत्रिकातंतु झर्झरास्थि के सुषिर पट्ट (Cribriform Plate) में होकर ऊपर को घ्राणकंद (Olfactory bulb) में चले जाते हैं।
नासिका का काम गंध का ज्ञान करना है, जो घ्राणक्रिया द्वारा होता है। गंध का अनुभव करना उपर्युक्त उन तंत्रिकातंतुओं का काम है जो मध्यफलक पर आच्छादित श्लेष्मल कला के ऊर्ध्व भाग में फैले हुए हैं।
जब किसी वस्तु का घ्राण संबंधी ज्ञान प्राप्त करना होता है तब उसके भिन्न-भिन्न शक्ति के विलयन बना लिए जाते हैं और उनको पृथक्-पृथक् परीक्षण नलिकाओं में भरकर, सबसे अधिक शक्ति का विलयन पहले सुँघाया जाता है। फिर कम शक्ति के विलयन सुंघाए जाते हैं। इस प्रकर वह न्यनतम मात्रा मालूम की जाती है, जिसको व्यक्ति सूँघ सकता है। जब व्यक्ति साधारण जल और विलयन की गंध में अंतर नहीं कर पाता तो उससे पहले की मात्रा न्यूनतम होती है।
ऐसे ही प्रयोगों द्वारा मालूम किया गया है कि जाफरान की 1/10,00,00,000 रत्ती को सूँघा जा सकता है।