गौरवशाली क्रांति

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गौरवपूर्ण क्रान्ति (Glorious Revolution; ग्लोरियस रेवोल्यूशन) या सन १६८८ की क्रान्ति, इंग्लैंड राज्य में हुई एक धार्मिक-राजनैतिक क्रांति थी। गौरवपूर्ण क्रांति को रक्तहीन क्रांति के नाम से जाना जाता है क्योंकि यह शांतिपूर्वक संपन्न हुई थी। इंग्लैंड का राजा बदला ,इंग्लैंड की शासन व्यवस्था बदली, पर कहीं खून का एक कतरा भी न गिराइंग्लैंड के जेम्स द्वितीय द्वारा संसदीय संप्रभुता को चुनौती देने के फलस्वरुप ही इंग्लैंड राज्य में 1688 ईस्वी में क्रांति हुई थी। राजा जेम्स द्वितीय को अपनी पत्नी ऐनी समेत अपने निरकुंश शासन संसद की अवहेलना करने तथा प्रोटेस्टैंट धर्म विरोधी नीति के कारण गद्दी छोड़नी पड़ी थी। इस क्रांति के बाद विलियम तृतीय और मैरी द्वितीय को इंग्लैंड के सह-शासक के रूप में राजा और रानी बनाया गया।[१][२]

गौरवशाली क्रांति के फलस्वरूप इंग्लैंड में स्वछंद राजतंत्र का काल पूर्णतः समाप्त हो गया था। संसदीय शासन पद्धति की स्थापना हो जाने से जनसाधारण के अधिकार सुरक्षित हो गए थे। राजनीतिक एवं धार्मिक अत्याचार के भय से मुक्ति पा कर लोग आर्थिक विकास की ओर अग्रसर होने लगे थे।

परिचय

1685 ई. में चार्ल्स द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका लघुभ्राता इंग्लैण्ड के राजसिंहासन पर जेम्स द्वितीय के नाम से आसीन हुआ। जेम्स द्वितीय ने राजा बनने के बाद कैथोलिक धर्म का प्रचार व प्रसार किया। इसमें उनकी पत्नी ऐनी हाईड की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी जो स्वयं कैथोलिक थीं। उसने अपनी नीति को सफल बनाने के लिए सेना और लुई चौदहवें से प्राप्त धन को आधार बनाया। जब 1685 ई. से ही फ्रांस मेंं आतंक का वातावरण प्रारंभ हो गया था। तत्पश्चात फ्रांस में असंतोष शारणार्थी आतंक के दमन से बचने के लिए इग्लैण्ड आने लगे। इससे इग्लैण्ड में असंतोष फैला। जेम्स ने विश्वविद्यालय और सरकारी नौकरियों में भी कैथोलिक मताबलम्बियों को रखा। जेम्स के अन्य अनुचित और अवैध कार्यों से इंग्लैण्ड में तीव्र रोष और विरोध फैल गया। अंत में जेम्स द्वितीय को इंग्लैण्ड छोड़ना पड़ा और संसद ने उसकी पुत्री मेरी और उसके पति विलियम को इंग्लैण्ड में आमंत्रित किया और मेरी को इंग्लैण्ड की शासिका बनाया। इस घटना को इंग्लैण्ड में महान क्रांति या वैभवपूर्ण क्रांति कहते हैं। इस क्रांति में रक्त की एक बूंद भी नहीं बही और परिवर्तन हो गये। इससे इस क्रांति को गौरवशाली क्रांति भी कहते हैं।

पृष्ठभूमि व कारण

इंग्लैण्ड का राजा जेम्स द्वितीय

राजनीतिक कारण

जेम्स द्वितीय निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासक था। उसने अपनी सेना में वृद्धि की, जिससे कि वह जनता को आतंकित कर सके। निरंकुश शासन और शासन का कटु अनुभव जनता को पहले ही था। फलतः जनता द्वारा जेम्स का विरोध होना स्वाभाविक था। संसद अपने विशष्ट अधिकारों का उपयोग चाहती थी। वह राजा के अधिकारों को सीमित और नियंत्रित करना चाहती थी। फलतः राजा और संसद के मध्य संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस संघर्ष का अंत शानदार क्रांति के रूप में हुआ और अंत में संसद ने राजा पर विजय प्राप्त की।[३]

चार्ल्स द्वितीय के अवैध पुत्र मन्मथ (Monmouth) ने सिंहासन प्राप्ति के लिए जेम्स के विरूद्ध विद्रोह कर दिया और स्वयं को चार्ल्स द्वितीय का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। जेम्स द्वितीय ने मन्मथ को युद्ध में परास्त कर बंदी बना लिया और उसे तथा उसके साथियों को न्यायालय द्वारा मृत्यु दण्ड दिया गया। इस न्यायालय को खूनी न्यायालय कहा गया। स्काटलैण्ड में भी अर्ल ऑफ अरगिल ने व्रिदोह किया। इस विद्रोह का भी कठोरता से दमन किया गया। तीन सौ व्यक्तियों को मृत्यु दण्ड दिया गया और 800 व्यक्तियों को दास बनाकर वेस्टइंडीज द्वीपों में भेजकर बेच दिया गया। स्त्रियों और बच्चों को भी क्षमा नहीं किया गया। इस क्रूरता और निर्दयता से जनता उससे रुष्ट हो गयी।

जेम्स द्वितीय फ्रांस के कैथोलिक राजा लुई चतुर्दश से आर्थिक और सैनिक सहायता प्राप्त कर इंग्लैण्ड में अपना निरंकुश स्वेच्छाकारी शासन स्थापित करना चाहता था। वह लुई चौदहवें के धन और सैनिक सहायता के आधार पर राज करना चाहता था। लुई कैथोलिक था और फ्रांस मेंं प्रोटेस्टेंटों पर अत्याचार कर रहा था। इससे ये प्रोटेस्टेंट इंग्लैण्ड में आकर शरण ले रहे थे। ऐसी दश में इंग्लैण्डवासी और संसद सदस्य नहीं चाहते थे कि जेम्स लुई से मित्रता रखे और उससे सहायता प्राप्त करे। अतः वे जेम्स के विरोधी हो गये।

धार्मिक कारण

जेम्स द्वितीय का शाही फ़रमान कैथोलिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करते हुए

राजा जेम्स कैथोलिक मत का अनुयायी था, जबकि इंग्लैण्ड की अधिकांश जनता एंग्लिकन मत की अनुयायी थी। जेम्स कैथोलिकों को अधिकाधिक सुविधाएँ प्रदान करना चाहता था। जेम्स ने पोप को इंग्लैण्ड में आमंत्रित किया और उसका अत्यधिक सम्मान किया। उसने लंदन में कैथोलिक कलीसिया भी स्थापित किया। इससे इंग्लैण्ड के प्युरीटन और प्रोटेस्टेंट उसके विरोधी हो गये।

टेस्ट अधिनियम के अंतर्गत केवल एंग्लिकन कलीसिया के अनुयायी ही सरकारी पद पर रह सकते थे। जेम्स ने इस अधिनियम को स्थगित कर अनेक कैथोलिकों को राजकीय पदों पर प्रतिष्ठित किया। मंत्री, न्यायाधीश, नगर निगम के सदस्य तथा सेना में ऊँचे पदों पर कैथोलिक नियुक्त किए गए। अतः सांसद इससे रुष्ट हो गये। कैथोलिक मतावलंबी होने से जेम्स ने विश्वविद्यालयों में भी ऊँचे पदों पर कैथोलिक नियुक्त कर दिये। क्राइस्ट चर्च कॉलेज में अधिष्ठाता के पद पर और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर एक कैथोलिक को नियुक्त किया। मेकडॉनल्ड विद्यालय के भी शक्षा अधिकारियों को पृथक कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने एक कैथोलिक को सभापित बनाने से इंकार कर दिया था। इससे प्रोटेस्टेंट सम्प्रदाय के लोग जेम्स विरोधी हो गये।[४]

जेम्स द्वितीय ने इंग्लैण्ड को कैथोलिक देश बनाने के लिए 1687 ई. और 1688 ई. में दो बार धार्मिक अनुग्रह की घोषणा की। प्रथम घोषणा से केथालिकों तथा अन्य मताबलम्बियों पर लगे प्रतिबंधों और नियंत्रणों को समाप्त कर दिया गया और द्वितीय घोषणा में वर्ग व धर्म का पक्षपात किये बिना सभी लोगों के लिए राजकीय पदों पर नियुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया साथ ही कैथलिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी गई। इससे संसद में भारी असंतोष व्याप्त हो गया एवं सांसद उसके घोर विरोधी हो गये। जेम्स ने यह आदेश दिया कि प्रत्येक रविवार को उसकी द्वितीय धार्मिक घोषणा पादरियों द्वारा कलीसिया में प्रार्थना के अवसर पर पढ़ी जाए। इसका यह परिणाम होता कि या तो पादरी अपने धर्म व मत के विरूद्ध इस घोषणा को पढ़ें, अथवा राजा की आज्ञा का उल्लंघन करें। इस पर कैंटरबरी के आर्चबिशप सेनक्राफ्ट ने अपने 6 साथियों सहित जेम्स को एक आवेदन पत्र प्रस्तुत किया। जिसमें जेम्स से निवेदन किया था कि वह अपनी आज्ञा को निरस्त कर दे और पुराने नियमों को भंग करने की नीति को त्याग दें। इससे जेम्स ने कुपित होकर इन पादरियों को बंदी बना कर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया, पर न्यायाधीशों ने उनको दोष मुक्त कर दिया। इससे जनता और सेना ने पादरियों की मुक्ति पर हर्ष और जेम्स के प्रति विरोध व्यक्त किया।

1686 ई. में जेम्स ने गिरजाघरों पर राजकीय श्रेष्ठता पूर्ण रूप से स्थापित करने के लिए कोर्ट ऑफ हाई कमीशन को पुनः स्थापित कर लिया। इसमें कैथोलिक धर्म की अवहेलना करने वालों पर मुकदमा चलाकर उनको दण्डित किया जाता था। जेम्स ने कैथोलिक धर्म के अधिक प्रचार और प्रसार के लिए लंदन में एक नवीन कैथोलिक कलीसिया स्थापित किया। जेम्स ने धा र्मिक न्यायालयों की स्थापना करके कानून को भंग किया, गिरजाघरों, विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों पर आक्रमण कर पादरियों और टोरियों को रुष्ट किया। जेम्स के इन अनुचित और अवैध कार्यों से देश में विरोध और क्रांति की भावनाएँ फैल गयीं।

प्रमुख घटनायें

विलियम का देन ब्रील नमक दुकान युद्धपोत में इंग्लैंड के तट पर आगमन
ऑरेंज के राजकुमार विलियम का घुड़सवार के रूप में चित्रण, जैन विक की तस्वीर, 5 नवम्बर 1688

गौरवशाली क्रांति की प्रमुख घटनाओं का कालक्रम इस प्रकार है:

  • जेम्स द्वितीय के पुत्र का जन्म: जेम्स द्वितीय की पहली पत्नी की मेरी नामक पु़त्री हुई थी। वह प्रोटेस्टेंट मतावलंबी थी और हालैण्ड में ऑरेंज के राजकुमार विलियम को ब्याही गयी थी। वह भी प्रोटेस्टेंट था। इंग्लैण्डवासियों को विश्वास था कि वही इंग्लैण्ड की शासिका बनेगी, इसलिए वे जेम्स के अनाचार और अनुचित कार्यों को सहन करते रहे। जेम्स की दूसरी पत्नी कट्टर कैथोलिक थी। जब 10 जून 1688 को उसके पुत्र हुआ तो लोगों की यह धारणा बनी गयी कि उसका लालन-पालन औरिशक्षा कैथोलिक धर्म के अनुसार होगी और जेम्स की मृत्यु के बाद वही कैथोलिक राजा बनेगा। इससे उनमें भय और आतंक छा गया।
  • हालैण्ड के विलियम और मेरी को निमंत्रण: टोरी और व्हिग दल के सदस्यों और पादरियों ने एक जनसभा आयोजित कर यह निर्णय लिया कि जेम्स द्वितीय के दामाद विलियम और पुत्री मेरी को इंग्लैण्ड के राजसिंहासन पर आसीन होने के लिए आमंत्रित किया जाए। फलतः कुछ प्रभावशल लोगों ने दूत भेजकर विलियम और मेरी को इंग्लैण्ड आमंत्रित किया। इस समय विलियम फ्रांस के युद्ध में व्यस्थ था। वह जानता था कि फ्रांस और वहाँ का राजा लुई चौदहवाँ हालैण्ड से कहीं अधिक ॉाक्तिशली है। वह इंग्लैण्ड की समन्वित शक्ति का सामना नहीं कर सकेगा, इसलिए उसने निमंत्रण स्वीकार कर लिया।
  • विलियम का इंग्लैण्ड में आगमन और जेम्स का पलायन - विलियम ऑफ ऑरेंज पंद्रह हजार सैनिकों के साथ 5 नवम्बर 1688 को इंग्लैण्ड के टोरबे बंदरगाह पर उतरा। जेम्स द्वितीय ने अपनी सेना से उसका सामना करने का प्रयास किया, पर उसके सहयोगी व सेनापति जान चर्चिल ने उसका साथ छोड़ दिया और वे तथा उसकी पुत्री एन भी, विलियम से जा मिले। निराश होकर 23 दिसम्बर 1688 को जेम्स राजमुद्रा को टेम्स नदी में फेंक कर फ्रांस पलायन कर गया।
  • विलियम और मैरी इंग्लैण्ड के शासक: 22 जनवरी 1689 ई. को संसद की बैठक हुई, जिसमें बिल ऑफ राइट्स पारित हुआ। इसमें विलियम के सम्मुख कुछ शर्तें रखी गयी थीं, जिनको उसने स्वीकार कर लिया। इसके बाद विलियम तथा मेरी 13 फरवरी 1689 को इंग्लैण्ड के राज सिंहासन पर आसीन हुए। विलियम और मेरी संयुक्त शासक स्वीकार किए गए।

महत्व और परिणाम

ऑरेंज के विलियम और मैरी का इंग्लैंड के राजा और रानी के रूप में राज्याभिषेक, 1689
राजा विलियम तृतीय और रानी मैरी द्वितीय ने ५ वर्ष तक एक साथ शासन किया था

इस क्रांति द्वारा 1688 ई. में इंग्लैण्ड में शासकों का परिवर्तन "बिना रक्त की बूंद बहाए" संपन्न हो गया, इसलिए इस घटना को "वैभवपूर्ण महान शानदार क्रांति" कहते हैं। इस रक्तहीन राज्य क्रांति का महत्त्व उसके गर्जन-तर्जन में नहीं, अपितु उसके उद्देश्यों की विवेकशीलता और उपलब्धियों की दूरगामिता में है। यह एक युग निर्माणकारी घटना है। इससे इंग्लैंड में लोकप्रिय सरकार का युग प्रारंभ हुआ और सत्ता निरंकुश स्वेच्छाचारी राजाओं के हाथ से निकल कर संसद के हाथों में आ गयी।

इस क्रांति से स्टुअर्ट राजाओं और संसद के बीच दीर्घकाल से चले आ रहे संघर्ष का अंत हो गया। इस संघर्ष में संसद की विजय हुई। अब इंग्लैंड में वास्तविक शासक संसद बन गयी। क्रांति के समय संसद ने "बिल ऑफ़ राइट्स" पारित कर उस पर विलियम और मेरी की स्वीकृति ले ली। इससे संसद की सम्प्रभुता स्वीकार कर ली गयी और राजा की निरोक राजसत्ता समाप्त कर दी गई। जनता की सत्ता सर्वोपरि मान ली गयी। राजा सिद्धांत में प्रभुता सम्पन्न रहा पर व्यवहार में संसद सर्वोपरि हो गयी। इस क्रांति ने राजा के दैवी अधिकारों को अमान्य कर दिया। संसद द्वारा पारित किसी भी कानून को निरस्त करने का संप्रभु का अधिकार समाप्त हो गया। राजा, संसद की स्वीकृति के बिना कोई कर नहीं लगा सकता।

इस क्रांति ने यह स्पष्ट कर दिया कि नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करना, कानून बनाना और कर लगाना संसद के अधिकारों के अंतर्गत है। राजा संसद के अधिकारों में किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। क्रांति से पूर्व राजा सर्वोपरि था, पर इसके बाद राजा संसद के अधिनियम के अंतर्गत एक सामान्य व्यक्ति रह गया। अब राजा की स्वेच्छाचारिता समाप्त हो गयी। उसके अधिकार संसद द्वारा प्रतिबंधित नियंत्रित और सीमित कर दिए गए। अब इंग्लैण्ड में वैधानिक राजतंत्र का युग प्रारंभ हुआ और संसदीय प्रणाली का शासन प्रारंभ हुआ। अब तक सेना और उसके अधिकार राजा के अधीन थे। अब संसद ने विद्रोह अधिनियम पारित कर सेना पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया। इससे राजा की सैन्य शक्ति समाप्त हो गयी और सेना में व्याप्त अव्यवस्था भी दूर हो गयी।

बिल ऑफ राइट्स में यह तथ्य स्पष्ट कर दिया गया कि कोई कैथोलिक राजा या वह व्यक्ति जिसका विवाह कैथोलिक से हुआ हो इंग्लैण्ड के राज सिंहासन पर आसीन नहीं हो सकेगा। इस प्रकार इंग्लैण्ड सदा के लिए कैथोलिक खतरे से मुक्त हो गया। धार्मिक क्षेत्र में भी यह स्पष्ट कर दिया गया कि एंग्लिकन धर्म इंग्लैण्ड का वास्तविक धर्म है। चर्च पर से राजा के अधिकारों का अंत कर दिया गया। धर्म के मामलों में भी संसद का उत्तरादायित्व हो गया। इससे कालांतर में इंग्लैण्ड में धार्मिक सहष्णुता का वातावरण निर्मित हुआ। अब तक राजा देश की गृह और विदेश नीतियों का स्वयं संचालन करता था। वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से प्रेरित रहता था। देश के हितों की उपेक्षा की जाती थी। इससे अनेक बार राजा द्वारा अपनायी गयी विदेश नीति निष्फल ही रही। किन्तु क्रांति के बाद गृह और विदेश नीति का निर्धारण संसद के परामर्श और स्वीकृति से किया जाने लगा।

इससे इंग्लैण्ड की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और उसके औपनिवेशक साम्राज्य का विस्तार हुआ। इंग्लैण्ड की इस शानदार क्रांति का प्रभाव यूरोप के अन्य देशों पर पड़ा। अब तक यूरोप में निरंकुश स्वेच्छाचारी राजसत्ता ही आदर्श राजसत्ता मानी जाती थी। पर इस क्रांति के प्रभाव और परिणामस्वरूप यूरोप में भी वैज्ञानिक राजतंत्र और लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली के लिए आंदोलन प्रारंभ हुए

विरासत व प्रभाव

1688 ई. में इंग्लैण्ड में हुई इस रक्तहीन क्रांति ने अमेरिका (इंग्लैंड का उपनिवेश) में भी स्वतंत्रता की मांग बुलंद की। अमेरिका में शासन ब्रिटिश संसद द्वारा चलाया जाता था जो अमेरिकावासियों को सहन न था। वे स्वतंत्र रूप से शासन करना चाहते थे। अतः अमेरिकी उपनिवेश ने अपनी स्वतंत्रता के लिए जो संघर्ष किया वही अमेरिकी क्रांति कहलाता है। ये क्रांति 1776 ई. में हुई। उपर्युक्त दो क्रांतियों के परिणाम एवं प्रभाव स्वरूप यूरोप में भी क्रांति का दौर प्रारंभ हुआ। 18वीं सदी में यूरोपीय देशों में फ्रांस की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति अत्यंत जर-जर थी। शासक कुलीन तथा पादरी वर्ग केवल अपनी विलासिता पर ही ध्यान देते थे। जनता एवं जनहित के कार्यो तथा प्रशासन में उनकी कोई रूचि नहीं थी। वे केवल महाटोपा एवं कृषकों का शोषण करते थे। ऐसी परिस्थिति में फ्रांस में बुद्धिजीवी वर्ग का उदय हुआ जिन्होंने जनता को उनके अधिकारों के परिचित कराया। इस प्रकार शासक, कुलीन तथा चर्च के विरूद्ध कृषकों, श्रमिकों तथा बुद्धिजीवियों के द्वारा फ्रांस में जो क्रांति हुई वही 1789 की फ्रांसीसी क्रांति कहलाती है। इसके प्रभाव दूरगामी हुए। यहां तक की भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी इस क्रांति का महत्त्व है।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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