गोथिक कला

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ये वास्तुकलात्मक मूर्तियाँ गोथिक काल की आरन्हिक दिनों में बनीं (चार्ल्स कैथेड्रल, ११४५ ई)

गोथिक कला (Gothic art) मध्ययुगीन यूरोपीय वास्तु की एक शैली जो १२वीं शती के मध्य में फ्रांस में जन्मी। यह रोमनेस्क वास्तुकला से उद्भूत हुई। यह सम्पूर्ण पश्चिमी यूरोप में फैली किन्तु ऐल्प्स के दक्षिण में इसका प्रभाव कम रहा। इसने इटली के क्लासिक शैली को अधिक प्रभावित न कर सकी। इस शैली की इमारतें क्लासिकल शैली के सौंदर्य से विरहित थीं। पतले, ऊँचे अनेक शिखरों से मंडित होती थीं। इस शैली का बोलबोला १२वीं से १५वीं तक प्राय: चार सदियों बना रहा और अंत में पुनर्जागरण कला ने इसका स्थान ले लिया।

परिचय

वास्तु की दृष्टि से इस शैली की इमारतों में छरहरे ऊँचे खंभे सुंदर, कोणयुक्त मेहराबों को सिर से धारण करते हैं। बाहर की ओर से इनकी दीवारें पुश्तों से संपुष्ट की होती हैं। यूरोप के सैकड़ों गिरजे इसी शैली में बने हैं और इसी शैली में भारत के भी अधिकतर गिर्जे निर्मित हैं। नीचे स्तंभों की परंपरा से प्रस्तुत और ऊपर शूलशिखरों से व्याप्त गोथिक शैली की इमारतें सुदर्शन हैं। कालांतर में इस शैली में अलंकरण की व्यवस्था बढ़ती गई और इस शैली में निर्मित इमारतों की ज्यामितिक डिजाइनें वृत्ताकार तथा त्रिभुजाकार आवृत्तियाँ धारण करती गई। फूल-पौधों, लतावल्लरियों और पशुपक्षियों की आकृतियों की आकृतिसंपदा बढ़ती गई और मानवेतर रूपों की अभिव्यक्ति विशेष आग्रह से की जाने लगी।

गोथिक शैली की इमारतों, विशेषकर गिरजाघरों के दरवाजों और खिड़कियों में रंगीन काँच के टुकड़ों का उपयोग होने लगा जिनमें रंगों की विविधता विशेष आग्रह से प्रयुक्त हुई और गिरजाघरों का अंतरंग उनके योग से चमत्कृत हो उठा। उन्हीं काँच के टुकड़ों की सहायता से मानव आकृतियाँ भी बनाई जाने लगीं और संतों के चित्र रूपायित होने लगे। इस शैली की इमारतों के बहिरंग पर अनंत मूर्तियों का भी निर्माण होने लगा।

न केवल वास्तु के उपकरणों में बल्कि चित्रणकला में भी इस शैली का उपयोग हुआ और इसी के माध्यम से तत्कालीन ग्रंथ चित्रित किए जाने लगे, भित्तिचित्र लिखे जाने लगे। अधिकतर तेज रंगों का इस्तेमाल हुआ और चित्रों में स्वर्णधूलि अथवा रत्नों तक का उपयोग करने से चित्रकार न चूके। मूर्तिकला में भी पत्थर, लकड़ी, गजदंत आदि के माध्यम से इस शैली का विकास हुआ। तब के धातुओं में ढले अनेक अभिप्राय आज भी यूरोप के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। काष्ठकारिता और धातुकारिता, विशेषकर स्वर्णकारिता में यह शैली गहरे पैठी और आभिजात्य जीवन में अलंकरण का विशेष मान इसने प्रतिष्ठित किया। तत्कालीन आसनों, शैया तल्पों, पर्यकों आदि की हजारों गोथिक शैली में निर्मित साज सज्जा मध्यकाल के प्रासादों में प्रस्तुत हुई। इस शिल्प का एक विशिष्ट केंद्र वेनिस नगर में स्थापित हुआ जहाँ की काँच की वर्णशैली अन्यत्र दुष्प्राप्य थी। वहीं अधिकतर कलाबत्तू आदि में भी इस शैली का उपयोग हुआ और दीवारों के पर्दे तो उस शैली में इतने अभिराम बने कि, यद्यपि वे आज मिट चुके हैं, भित्तिचित्रों में उनके रूप, कलाबत्तू और मखमल के सहज आभास आज भी उत्पन्न कर देते हैं। उस शैली के लेखों की मर्यादा पिछले युगों में फिर कभी नहीं प्राप्त की जा सकी। उस मध्ययुग को साधारणत: यूरोपीय इतिहास में अंधकार युग कहा गया है, पर नि:संदेह कला के क्षेत्र में इस गोथिक वास्तुशैली ने, तक्षण, चित्रण, तंतुवाय संबधी चटख रंगों ने उसे प्रभूत आलोकित किया।