खजराना

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इंदौर के पूर्वी रिंगरोड और बायपास के बिचौ-बीच बसा [[खजराना]] हिन्दू-मुस्लिम दोनों धर्मों के धार्मिक स्थलों के कारण जग प्रसिद्ध है। हजरत नाहरशाह वली की दरग़ाह , [खजराना गणेश मंदिर ] और कालिका मंदिर यहाँ के पवित्र धर्मस्थल हैं।

खजराना इतिहास

लेखक जावेद शाह खजराना ने जानकारी देते हुए बताया कि परमारकालीन खजराना इंदौर की बसाहट से पहले से आबाद है।

उज्जैयनी और धार में शासन करते थे।

इंदौर से आगे कम्पेल आबाद था। खजराना का इतिहास करीब 1000 वर्ष पुराना है। खजराना स्थित गणेश मंदिर अब विश्व विख्यात हो चुका है इसके ठीक आगे कालिका माता मंदिर भी अपनी सबसे बड़ी प्रतिमा को लेकर विख्यात है । थोड़ा आगे बढ़ने पर प्रसिद्ध मुस्लिम सूफी संत हजरत नाहरशाह वली की दरगाह है।

संदर्भ

इंदौर दिग्दर्शिका' पुस्तक में लेखक नगेन्द्र आज़ाद लिखते है कि नाहरशाह वली की दुआओं से मुगल बादशाह शाह आलम को सिंहासन प्राप्त हुआ था। लेखक जावेद शाह ने बताया कि मुगलों की बदहाली वजीरों की गद्दारी से शुरू हो चुकी थी । 1759 में हद हो गई जब वजीर ने अपने बादशाह आलमगीर को एक फ़क़ीर के हाथों मरवा दिया। बदनसीब आलमगीर की लाश लालकिले की खिड़की से यमुना नदी के किनारे फेंक दी। जहां हिंदुस्तान के शहंशाह की लाश बिल्कुल नंगी पड़ी रही, बाद में उसे अपने बाप-दादा हुमायूं के मकबरे में दफना दिया गया।

उस वक़्त आलमगीर का बेटा अली गौहर बिहार में था। अली गौहर ने "शाह आलम" की उपाधि धारण करके स्वयं को भारत का सम्राट घोषित किया ,लेकिन दिल्ली दूर थी।

दरगाह का इतिहास

खजराना में हजरत नाहरशाह वली के इंतकाल को करीब 60 साल गुजर चुके थे। हुसैन शाह वल्द सखी शाह खादिम थे। अली गौहर बादशाह बहुत दुविधा में फंसा था । अपने बाप की हत्या के बाद 12 साल तक दिल्ली की ओर बढ़ने की हिम्मत ना जुटा सका। पीर-फकीरों के दर पर दुआ की दरख़्वास्त लिए भटकता फिरता।

खजराना में बादशाह की अर्जी पहुंची , हुसैन शाह और उनके साथियों ने बादशाह के लिए नाहरशाह वली के आस्ताने पर दुआ की ।

अली गौहर बादशाह की किस्मत चमकी जनवरी 1772 में वो दिल्ली पहुंचा। जब तक शाह आलम बिहार में रहा अंग्रेजों के प्रभाव में था। यानी सन 1760 से 1772 तक का समय । इसी बीच शाह आलम ने बंगाल को वापस जितने की कोशिश की लेकिन सफल नही हुआ। 1764 में बक्सर की जंग में हारने के बाद मजबूर होकर बंगाल,बिहार और उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को दे दी ,अंग्रेज शाह आलम की बहुत बेइज्जती करते थे फिर भी उसे बादशाह मानते ।

उस समय खजराना में नाहरशाह वली की दरगाह पर सबसे पहले खादिम और नाहरशाह के साथी हजरत सखी शाह के बेटे हुसैन शाह मुजावर थे । ज्यादा समय नही गुज़रा था । शाह आलम ने यहां के बुजुर्गों से भी दुआ करवाई थी ।पीर -फकीरों की दुआ कुबूल हुई । 1772 में शाह आलम दिल्ली पहुंचा । 1779 में उसने अपनी परेशानियों को लेकर फिर पीर-फकीरों को याद किया और सम्मान में खजराना की दरगाह नाहरशाह वली के निवर्तमान खादिम और मुजावर हजरत हुसैन शाह को 50 बीघा जमीन हमेशा-हमेशा के वास्ते सनद लिखकर दी। गवाही में बुजुर्गों को लिया जिनके दस्तखत सनद पर हैं। इस सनद पर खजराना के उस दौर के पीर-फकीरों पर के दस्तखत है।

ये सनद फारसी में है जो मैंने पोस्ट पर दिखाई है। ओरिजनल सनद आज भी खजराना में रखी है जिसे कोर्ट से चुरा लिया गया था।

वर्तमान स्थिति

वर्तमान में हाईकोर्ट में दरगाह का केस लंबित है ।