क्रोशिया
क्रोशिया एक प्रकार की हुकदार लगभग छह इंच लंबी सलाई का नाम है जिससे ‘लेस’ या ‘जाली’ हाथों से बुनी जाती है। इससे बुने काम को क्रोशिए का काम कहते हैं। अंग्रेजी में क्रोशिया क्रोशे (crochet) कहलाता है। ‘लेस’ तीन प्रकार से बनाई जाती है, बॉबिन से, क्रोशिया से और सलाइयों से। इस तरह क्रोशिया ‘लेस’ बनाने के तीन प्रकारों में से एक है।
लेस बनाने में दो सलाइयों द्वारा केवल एक धागे को बुना जाता है, पर चाहे तो अन्य रंग भी ले सकते हैं। ‘बॉबिन’ वाले काम में कई रंगों का प्रयोग एक साथ हो सकता है, जितने रंग होंगे उतनी ‘बॉबिन’ इस्तेमाल की जाएँगी लेकिन क्रोशिया में केवल एक धागा और क्रोशिए का एक हुक प्रयोग किया जाता है। वैसे तो किसी भी रंग के धागे से लेस या क्रोशिए का काम बुना जाता है पर सर्वप्रिय तथा कलात्मक सफेद रंग ही रहा है। इस काम में धागे को सलाइयों या हुक पर लपेटते और मरोड़ी (गाँठे) बनाते चलते हैं। ‘क्रोशिए’ के हुक से लंबी लेस या झालर, गोल मेजपोश तथा चौकोर पर्दे आदि वस्तुएँ बनाई जा सकती हैं। प्रयुक्त धागे के अनुसार काम भी मोटा या महीन होगा। क्रोशिए का काम रेशमी, सूती और ऊनी तीनों प्रकार के धागों से किया जाता है पर अधिकतर सूती धागा ही बरता जाता हैं।
डिजाइनों में ज्यामितिक आकार, फूल पत्ती, पशु पक्षी और मनुष्याकृतियाँ बनाई जाती हैं। डिजाइन को घना बुना जाता है और आसपास के स्थान को जाली डालकर। इस प्रकार आकृतियाँ बहुत स्पष्ट और उभरी दीखती हैं।
क्रोशिए का काम वैसे तो बड़ा कष्टसाध्य है। अच्छा काम बनाने में काफी समय लग जाता है। यही कारण है कि आजकल समय के अभाव में और बदलते फैशन के कारण इसका चलन बहुत कम हो गया है।
‘क्रोशिए’ या ‘लेस’ का काम वास्तव में यूरोपीय है जहाँ इसका प्रारंभ १५वीं सदी में हुआ। वेनिस ‘लेस’ बनाने की कला में अग्रणी था। वैसे बाद में फ्रांस और आयरलैंड में भी इस कला की काफी प्रगति हुई। ‘ब्रसेल्स’ १६वीं सदी के अंत से बॉबिन से बनी लेसों के लिये विख्यात था। रूस में भी इसका विकास १६वीं सदी से शुरू हुआ।
भारत में यह कला यूरोपीय मिशनरियों द्वारा शुरू हुई। सर्वप्रथम दक्षिण भारत में क्विलन (Quilon) में इसे डच और पुर्तगालियों ने प्रारंभ कराया तथा दक्षिण तिरु वांकुर में यह काम श्रीमती माल्ट द्वारा १८१८ ई. में शुरू कराया गया और वहाँसे यह तिनेवेली और मबुराई तक फैल गया। इसके अलावा आं्ध्रा में हैदराबाद, पालकोल्लु और नरसापुर; उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर तथा दिल्ली में भी इसका निर्माण बड़े पैमाने पर होता रहा है। उत्तर भारत में आज से लगभग २० वर्ष तक प्राय: सभी घरों में लड़कियाँ क्रोशिए का काम करती थीं। राजस्थान और गुजरात में वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी परिवार मंदिरों में सजाने के लिये कृष्णलीला की दीर्घाकार पिछवाइयाँ भी क्रोशिए से बनाते थे।
पहले तो केवल कुछेक परिवारों, कानवेंट और स्कूलों में ही इसे बनाया जाता था पर बाद में यह दक्षिण भारत में एक प्रकार का कुटीर शिल्प ही बन गया। दक्षिण भारत की अनेक ग्रामीण महिलाएँ इसे बनाकर उत्तर भारत तथा विदेशों में इसे भेजती थीं। सस्ती होने के कारण विदेशों में यह बिकती भी खूब थीं; पर दूसरे महायुद्ध के बाद से इसका निर्यात धीरे धीरे कम होता जा रहा है।
क्रोशिए का काम चाहे कितनी भी दक्षता और सुघड़ाई से क्यों न किया जाय, यह लखनऊ की चिकन का मुकाबिला नहीं कर सकता, इसमें न तो चिकन जैसी कमनीयता तथा कलात्मकता है और न भारतीयता। इतने दीर्घकाल के प्रचलन के बाद भी इसकी ‘तरहें’ (डिजाइन) विदेशी ही रहीं, भले ही उनमें कहीं कहीं मोर, हंस, हाथी, हिरन और घोड़े आदि पशुपक्षियों का प्रयोग क्यों न हुआ हो।
बाहरी कड़ियाँ
- How to Crochet Basic tutorials to get started crocheting
- Yarn Weight Yarn weight to crochet hook size guide
- The Antique Pattern Library
- Virtual Museum of Textile Arts Ancient Crochet Lace
- साँचा:dmoz
- Crochet Work