कथानक रूढ़ि

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कथानक रूढ़ि वास्तविकता, कल्पना अथवा संभावना पर आधारित किसी छोटी घटना, निश्चित साँचे में ढले हुए कार्यव्यापार या उस विचार (आइडिया) को कहते हैं जो समान स्थिति में कथानक को आरंभ करने, गति देने, कोई नवीन मोड़ या घुमाव देने, कथा को चामत्कारिक ढंग से समाप्त करने अथवा अपने में ही संपूर्ण कथा का संघटन कर लेने के लिए बार-बार प्रयुक्त होता है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कथानक रूढ़ि के बारे में (हिंदी साहित्य का आदिकाल, पटना, १९४७ ई. पू. ८०) कहा है

"सभावनाओं पर बल देने का परिणाम यह हुआ है कि हमारे देश के साहित्य में कथानक को गति और घुमाव देने के लिए कुछ ऐसे अभिप्राय बहुत दीर्घकाल से व्यवहृत होते आए हैं जो बहुत थोड़ी दूर तक यथार्थ होते हैं और जो आगे चलकर कथानक रूढ़ि में बदल गए हैं।

अभिप्राय (motif / मोटिफ़) की परिभाषा देते हुए शिप्ले (डिक्शनरी ऑव वर्ल्ड लिटरेचर) ने बताया है,

"एक शब्द या निश्चित साँचे में ढले हुए विचार जो समान स्थिति का बोध कराने या समान भाव जगाने के लिए किसी एक ही कृति अथवा एक ही जाति की विभिन्न कृतियों में बार-बार प्रयुक्त हों, अभिप्राय कहलाते हैं।

अभ्रिपाय की यह सामान्य परिभाषा है, क्योंकि विभिन्न कलारूपों में इसका विभिन्न अर्थो में प्रयोग होता है और प्रत्येक कलारूप के अपने अलग-अलग अभिप्राय होते हैं। अत: यहाँ अभिप्राय के बारे में विचार कर लेना समीचीन रहेगा।

अभिप्राय

अनेक परंपरागत कृत्य अथवा नियम निरंतर जनविश्वास का संबल पाते रहने के कारण चलन या रूढ़ि मान लिए जाते हैं। इनके वास्तविक अर्थ या मूल तात्पर्य का पता किसी को नहीं होता, तो भी विशेष अवसरों पर लोग इनका पालन करते ही हैं। इनमें से बहुतों का पालन न करने से जहाँ केवल सामाजिक अप्रतिष्ठा की आशंका रहती हैं, वहां कुछ ऐसे भी चलन होते हैं जिन्हें पूरा न करने पर दैवी विपत्तियों अथवा विभिन्न प्रकार की हानियों का भय रहता है। कुछ रूढ़ियाँ इस प्रकार की भी होती हैं जिन्हें छोड़ देने पर न तो प्रतिष्ठा को किसी प्रकार का धक्का लगता है और न ही जिनका पालन न करने से किसी दैवी विपत्ति की आशंका रहती है। तो भी अवसर उपस्थित होने पर लोग उनका पालन यंत्रवत्‌ पीढ़ी-दर-पीढ़ी करते चलते हैं। जन्म, मरण, विवाह, पुत्रोत्पत्ति तथा अन्यान्य पुण्य अवसरों एवं विधि संस्कारों के समय किए जानेवाले विभिन्न कृत्यों को इनके अंतर्गत गिना जा सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विधुर का विवाह कन्या से पहले अर्कवृक्ष के साथ कर दिया जाता है ताकि उक्त व्यक्ति की दूसरी पत्नी के मरने का भी यदि विधिविधान हो तो उसके स्थान पर अर्कवृक्ष ही नष्ट हो, नई वधू नहीं। विवाह के अवसर पर वरयात्रा के समय वर की माता कुएँ में पैर लटकाकर बैठ जाती है और वहाँ से वह तभी हिलती है जब उसका पुत्र उसके दूध का मूल्य चुका देता है। कदाचित्‌ इस चलन के पीछे युद्ध जीतने के बाद ही कन्या को प्राप्त कर सकने की मध्यकालीन उस सामंती प्रथा का अवशेष काम कर रहा होता है जिसके अनुसार माता विवाह के पहले पुत्र से वचन लेती थी कि वह वधू को साथ लेकर ही लौटेगा, खाली हाथ नहीं। इन सभी रूढ़ियों या चलनों को "सामाजिक परंपरा' (सोशल कॉन्वेंशन) की संज्ञा दी जा सकती है। इस सामाजिक परंपरा की तरह संगीत, कला तथा साहित्य अथवा काव्य आदि के क्षेत्रों में भी समय-समय पर कुछ अभिप्राय प्रयोग किए जाते हैं। प्रयोग धीरे-धीरे चलन का रूप धारण करके रूढ़िगत हो जाते हैं, तो भी इनका अभिप्रायपक्ष मुखर रहता है और इन्हें रूढ़ि से कुछ विशिष्ट परंपरागत अभिप्रायों (मोटिफ़्स) के रूप में ही स्वीकार किया जाता है।

कथानक रूढ़ि संबंधी हजारीप्रसाद द्विवेदी की उपयुक्ति परिभाषा में तीन बातें कही गई हैं। प्रथम यह कि संभावनाओं पर बल देने के कारण कथाभिप्रायों (कथानक रूढ़ियों) का जन्म होता है। इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि कथानक रूढ़ियों का प्रयोग प्राय: रोमांच, चमत्कार तथा पुराकलीन बिंबों एवं वातावरण को उपस्थित करने के लिए किया जाता है। अत: उनमें असंभव, असाधारण, अस्वाभाविक और कभी-कभी अलौकिक तत्वों का समावेश भी कर दिया जाता है। पर, इन कथानक रूढ़ियों के मूल में संभावनाश्रित कल्पना ही अधिक काम कर रही होती है। उदाहरणार्थ, "किसी राक्षस या यक्ष द्वारा नायक या नायिका को लेकर उड़ जाना' में अतिप्राकृत शक्ति के प्रति विश्वास की झलक सबल है। पक्षी किसी छोटे-मोटे जानवर को चोंच में लेकर उड़ सकता है तो पराशक्तिधारी यक्ष या राक्षस नायक अथवा नायिका को उठाकर क्यों नहीं उड़ सकता? कम से कम इसकी संभावना तो है ही, फिर रोमांच और चमत्कारोत्पादन के लिए क्यों न इसका उपयोग कर लिया जाए। कथानक रूढ़ियों में से अधिकांश के मूल स्रोत उन मिथकों, लोककथाओं, निजंधरी आख्यानों तथा गाथाओं में मिल जाते हैं जिनका निर्माण आदिम विश्वासों, प्रचलनों, अनुष्ठानों, विधिनिषेधों तथा टॉटमों को आधार बनाकर हुआ था। परवर्ती काल में यद्यपि सांस्कृतिक परिष्कार हो जाने पर कुछ कथानक अभिप्राय प्रचलन से पिछड़ गए अथवा उनके रूपों में अत्यधिक परिवर्तन हो गया तथापि, जैसा नृतत्वशास्त्रीय शोधों से सिद्ध हो चुका है कि मानव उन्नत सांस्कृतिक अवस्था में पहुँच जाने पर भी अपनी सबल धारणात्मक शक्ति के कारण, आदिम अवशेषों को त्यागने में असमर्थ रहता है–ये कथानक रूढ़ियाँ, मिथकों, लोककथाओं, निजंधरी आख्यानों तथा गाथाओं में पूर्ववत्‌ बनी रहीं और वहीं से शिष्ट साहित्य में गृहीत होती रहीं। सांस्कृतिक उत्थान और परिष्कार के साथ नई कथानक रूढ़ियों का निर्माण भी हुआ। युग-युग में जैसे-जैसे नए-नए रीति-रिवाज, मान्यताएँ, विश्वास आदि स्थापित हुए, धर्म, आयुर्वेद, ज्योतिष, शकुन, तंत्रमंत्र, काम आदि से संबंधित शास्त्रों का निर्माण हुआ, वैसे-वैसे नई-नई कथानक रूढ़ियों ने भी जन्म लिया और लोकसाहित्य से लेकर शिष्ट साहित्य तक में उनका जमकर उपयोग होने लगा, लगातार होता रहा।

दूसरा सूत्र है– "कथानक को गति और घुमाव देने के लिए इन अभिप्रायों का प्रयोग होता है।' कथानक में समय की गति घटनावली को खोलती चलती है और इसके साथ ही उसका घटना संयोजन, विश्व के युक्तियुक्त संघटन के अनुरूप तर्कसंगत कार्य-कारण-अंत-संबंधों पर आधारित रहता है। कथांतर्गत इस घटनावली को खोलने का अर्थ कथा को गति देना ही है और इसमें कथानक अभिप्रायों का प्रमुख हाथ रहता है। उदाहरण के लिए, "उपश्रुति' नामक अभिप्राय को लिया जा सकता है। प्रिया की खोज में निकला हुआ नायक जब जंगल में भटक जाता है तो कथा को आगे बढ़ाने का मार्ग भी अवरुद्ध हो जाता है। ऐसे अवसर पर "उपश्रुति' नामक या किसी ऐसी ही अन्य कथानक रूढ़ि का प्रयोग करके कथा को गति दी जाती है। किसी वृक्ष के नीचे अथवा कोटर में लेटा हुआ निराश प्रेमी वृक्ष के ऊपर बैठे पक्षीयुगल की बातचीत अथवा पक्षी-समूह को किसी एक पक्षी द्वारा किसी कथा के सुनाए जाने के बीच कोई ऐसी सूचना पा जाता है कि उसे अपने प्रिया से मिलने का तरीका मालूम हो जाता है या यह विश्वास हो जाता है कि वह अपनी प्रिया को अवश्य ही प्राप्त कर सकेगा। कभी-कभी तो वक्ता पक्षी अगली सुबह स्वयं उसी जगह जानेवाला होता है जहाँ नायक को पहुँचना रहता है और फिर नायक बड़े कौशल से पक्षी की पूँछ में छिपकर अभीष्ट स्थल पर पहुँच जाता है। कथानक को घुमाव या नया मोड़ देने के सन्दर्भ में "स्त्री की दोहद कामना' को लिया जा सकता है। "दोहद' शब्द का निर्माण "द्विहृद' से हुआ है। आपन्नसत्वा नारी की दोहदकामना स्त्री के जीवन की अति सामान्य एवं परिचित घटना है। इस स्थिति में औरत कभी खट्टा मीठा खाने की इच्छा व्यक्त करती है तो कभी उसका मन चूल्हे की जली हुई मिट्टी खाने के लिए आतुर हो उठता है। पति गर्भवती पत्नी की प्रत्येक इच्छा पूरी करने के लिए तत्पर रहता है और उसकी दोहदकामना को पूर्ण करना अपना परम कर्तव्य समझता है। कथाकारों ने इस दोहदकामना को अभिप्राय के रूप में ग्रहण करके विभिन्न अवसरों पर विविध प्रकार से इसके चामत्कारिक तथा अद्भूत प्रयोग किए हैं और जैन कथाकारों ने तो इसे अपना सर्वाधिक प्रिय अभिप्राय बना लिया था। हर अर्हत अथवा चक्रवर्तिन्‌ की उत्पत्ति के पूर्व उसकी माता कोई पवित्र और श्रेष्ठ कार्य करने की दोहदकामना करती दिखाई पड़ती है। "समरादित्य संक्षेप' और इसके आधार पर प्राकृत भाषा में रचित "समराइच्च कहा' में प्रमुख संभ्रांत व्यक्तियों के पुनर्जन्मों के अवसरों पर लगभग सभी गर्भिणी स्त्रियाँ दोहदकामना व्यक्त करती हैं। अन्य अनेक कथाओं में भी कथा को नया मोड़ देने के लिए नायिकाएँ चंद्रपान करने, की, पति के रक्त में स्नान करने की अथवा किसी रक्तवापी में स्नान करने की इच्छा व्यक्त करती देखी जाती हैं। नायक कृत्रिम रक्तवापी बनवाकर प्रिया को उसमें स्नान करवाता है। वापी से बाहर निकलने पर ऊपर से नीचे तक रक्तस्नात स्त्री को आकाश में मँडराता कोई भरुंड, गरुड़, अथवा गिद्ध मांसपिंड समझकर चोंच में दबाकर उड़ा ले जाता है। तत्पश्चात्‌ नायक को उसे पाने के लिए अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं। कहीं राक्षसों से मुठभेड़ होती है तो कहीं किसी मंत्रविद् से निपटना पड़ता है और अंत में वह पत्नी को पा लेता है। इस प्रकार कथानक एक नई दिशा प्राप्त करके ही सामने नहीं आता, उसमें अनेक रोमांचक एवं अद्भुत घटनाओं का सन्निवेश भी हो जाता है। केवल यहीं नहीं कथा आरंभ करने एवं उसको चामत्कारिक ढंग से समाप्त करने में भी इन कथानक अभिप्रायों से पर्याप्त सहायता ली जाती है। कोई हंस अथवा शुक नायक के हाथ लग जाता है और किसी सुंदरी का रूपगुण वर्णन करके उसे प्रेमातुर बना देता है। प्रेमिका को पाने के लिए नायक योगीवेश में निकल पड़ता है। इस प्रकार कथा का सुप्रारंभ होता है जो उत्तरोत्तर कौतूहलपूर्ण एवं जिज्ञासापूर्ण बनता जाता है। कथा का चामत्कारिक अंत करने के लिए बहुत बार नायक की अनुपस्थिति में किसी मनचले अथवा विषयी राजा या राजकुमार की ओर से कोई कुट्टनी नायिका के पास भेज दी जाती है। किंतु नायिका सत्‌ से नहीं डिगती। नायक के लौट आने पर वह उक्त घटना उसे सुनाती है जिससे आगबूबला होकर नायक प्रतिद्वंद्वी से युद्ध ठान देता है और समरांगण में शत्रु को मारने में इतना घायल हो जाता है कि उसके स्वयं के प्राण भी नहीं बचते और नायिका उसके शव के साथ सती हो जाती है। पर-काय-प्रवेश आदि कुछ अभिप्रायों में संपूर्ण कथा का संघटन करने की क्षमता भी रहती है।

द्विवेदी जी के उपर्युक्त कथन से तीसरा सूत्र यह प्राप्त होता है कि "दीर्घकाल से व्यवहृत होनेवाले ये अभिप्राय थोड़ी दूर तक यथार्थ होते हैं और आगे चलकर कथानक रूढ़ियों में बदल जाते हैं।' प्रस्तुत पंक्तियों को सरसरी तौर पर देखने से ऐसा आभास होता है कि "कथानक अभिप्राय' और "कथानक रूढ़ि' भिन्नार्थक हैं। किंतु जरा गहरे पैठने पर यह भ्रम छिन्न-भिन्न हो जाता है, क्योंकि आरंभ में किसी भी अभिप्राय का प्रयोग किसी विशेष उद्देश्य को लेकर किया जाता है और ऐसा करते समय उक्त अभिप्राय के मूल में वास्तविकता की कोई न कोई मात्रा अवश्य रहती है। पश्चात्‌ कल्पना के संयोजन से उक्त अभिप्राय को उत्तरोत्तर ऐसा रूप मिलता चला जाता है कि उसमें विश्वसीय तत्त्व की मात्रा पर्याप्त विरल हो जाती है परंतु उसका संभावनापक्ष अभी भी पर्याप्त मुखर रहता है और रचयितावर्ग सत्यासत्य अन्वेषण से निरपेक्ष रहकर अपनी अनुकरणप्रवृत्ति के कारण उपर्युक्त अवसरों पर अभीष्ट प्रयोजनार्थ उसका प्रयोग करता ही रहता है। इसी स्तर पर कथानक अभिप्राय कथानक रूढ़ि में बदल जाता है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कथानक रूढ़ि मात्र रूढ़ि होकर रह जाती है। कथानक अभिप्राय के समान ही कथानक रूढ़ि का भी अभिप्रायपक्ष पूर्णरूपेण सक्रिय रहता है, कथा या आख्यान को आगे बढ़ाने, उसे कोई नवीन मोड़ देने या चामत्कारिक ढंग से समाप्त करने की उसकी क्षमता में कोई अंतर नहीं पड़ता। इस दृष्टि से ये दोनों एक दूसरे के पर्याय रहते हैं। "कथानक अभिप्राय' को "कथानक रूढ़ि' नाम देने में तात्पर्य केवल इतना रहता है कि इससे यह भी स्पष्ट हो जाए कि इसका प्रयोग चलन या परंपरा के आधार पर भी किया गया रहता है। उदाहरणार्थ, हंस, कपोत, शुक आदि के पैर या ग्रीवा में पत्र बाँधकर प्रिय अथवा प्रिया के पास संदेश भेजने के अनेक प्रमाण मिलते हैं। अत: आरंभ में कथाकारों ने यथावत्‌ इसे अभिप्राय के रूप में प्रयुक्त किया होगा। पश्चात्‌ शुकादि द्वारा थोड़ा बहुत मानववाणी का अनुकरण कर लेने की क्षमता के आधार पर संभावना का सहारा लेकर बहुत से पक्षियों को मानववाणी में मौलिक संदेशवाह के रूप में दिखाया जाने लगा। इतना ही नहीं, आगे चलकर उन्हें शास्त्रज्ञ, मुखर पंडित और परामर्शदाता के रूप में प्रयुक्त कर लेने में भी हिचकिचाहट न रही। जायसी कृत पद्मावत का "हीरामन' शुक प्रमाण है। निष्कर्षत:, आरंभ में यथार्थ रहने पर भी "संदेशवाह पक्षी' नामक अभिप्राय दीर्घ काल तक व्यवहृत होते रहने के बाद न केवल यथार्थ से दूर ही चला गया अपितु उसका प्रयोग भी हर प्रेमी प्रेमिका के बीच संदेशवाहक, प्रेमसंघटक, मार्गनिर्देशक आदि के रूप में बार-बार किया जाने लगा। यही बात अन्य सभी अभिप्रायों के लिए भी सत्य है। प्रयोग संबंधी इस रूढ़ि का पालन करने के कारण ही "कथानक अभिप्राय' को "कथानक रूढ़ि' कह लेने में कोई अनौचित्य नहीं रह जाता।

कथानक रूढ़ि जहाँ कथानक को गति या घुमाव देने अथवा चामत्कारिक ढंग से समाप्त करने आदि में असमर्थ रहती है वहाँ उसे कथारूढ़ि या मात्र रूढ़ि कहा जाएगा, कथानक रूढ़ि नहीं। उदाहरणस्वरूप नूर मुहम्मद कृत इंद्रावती के पूर्वार्ध में इंद्रावती से विवाह करने के लिए समुद्र से मोती निकाल लाने का अनुबंध "कथानक रूढ़ि' है क्योंकि उसी को पूरा करने जाने के कारण राजकुँवर को दुर्जनराय का बंदी बनना पड़ा और बुद्धसेन तथा इंद्रावती दोनों ने प्रयत्न करके कृपा नामक राजा के द्वारा दुर्जनराय का नाश करवाकर राजकुँवर को कैद से मुक्त करवाया। कथा का विस्तार भी हुआ और उसे एक नया मोड़ भी मिला। लेकिन रसरतन में ऐसी कोई शर्त न रहने से स्वयंवर में रंभा सूरसेन का सीधे वरण कर लेती है। कथा को इससे न कोई गति मिलती है और न ही किसी प्रकार का घुमाव अथवा विस्तार। अत: यहाँ स्वयंवर या विवाह एक कथारूढ़ि या रूढ़ि भर है जिसका आयोजन केवल कथा के कालानुक्रमिक वर्णन को व्यवस्थित रखने के लिए ही किया गया है।

कथानक रूढ़ि या कथानक अभिप्राय का संबंध विशुद्ध रूप से कथा के वस्तुशिल्प (प्लाट कॉन्स्ट्रकशन) या ढाँचे (फ़ार्म) से रहता है। लेकिन काव्य अभिप्राय इससे बिल्कुल भिन्न कथा या काव्य के अभिव्यक्ति पक्ष से संबंधित होते हैं। सादृश्य के आधार पर निर्मित रूढ़ियों का संबंध भी अभिव्यक्ति पक्ष से ही है परंतु इनका कार्य सादृश्य के आधार पर अर्थबोध या भावबोध कराना मात्र है। नगर, उपवन, आश्रम, नखशिख, ऋतुवर्णन, बारहमासा आदि वर्णनात्मक या नियम संबंधी रूढ़ियाँ भी कथा या काव्य के बाह्यकार से संबंध रखती हैं। लेकिन ये कविनियम मात्र हैं या इन्हें वर्णनरूढ़ि भी कह सकते हैं और इनसे उस सधे हुए संकेतों को प्रस्तुत नहीं किया जा सकता जो काव्य अभिप्रायों या कथानक रूढ़ियों के माध्यम से थोड़े में बहुत कुछ द्योतित करने की क्षमता रखते हैं।

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