उल्का

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आकाश के एक भाग में उल्का गिरने का दृश्य; यह दृश्य एक्स्ोजर समय को बढ़ाकर लिया गया है

आकाश में कभी-कभी एक ओर से दूसरी ओर अत्यंत वेग से जाते हुए अथवा पृथ्वी पर गिरते हुए जो पिंड दिखाई देते हैं उन्हें उल्का (meteor) और साधारण बोलचाल में 'टूटते हुए तारे' अथवा 'लूका' कहते हैं।[१] उल्काओं का जो अंश वायुमंडल में जलने से बचकर पृथ्वी तक पहुँचता है उसे उल्कापिंड (meteorite) कहते हैं। प्रायः प्रत्येक रात्रि को उल्काएँ अनगिनत संख्याओं में देखी जा सकती हैं, किंतु इनमें से पृथ्वी पर गिरनेवाले पिंडों की संख्या अत्यंत अल्प होती है। वैज्ञानिक दृष्टि से इनका महत्त्व बहुत अधिक है क्योंकि एक तो ये अति दुर्लभ होते हैं, दूसरे आकाश में विचरते हुए विभिन्न ग्रहों इत्यादि के संगठन और संरचना (स्ट्रक्चर) के ज्ञान के प्रत्यक्ष स्रोत केवल ये पिंड ही हैं। इनके अध्ययन से हमें यह भी बोध होता है कि भूमंडलीय वातावरण में आकाश से आए हुए पदार्थ पर क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ होती हैं। इस प्रकार ये पिंड ब्रह्माण्डविद्या और भूविज्ञान के बीच संपर्क स्थापित करते हैं।

संक्षिप्त इतिहास

यद्यपि मनुष्य इन टूटते हुए तारों से अत्यंत प्राचीन समय से परिचित था, तथापि आधुनिक विज्ञान के विकासयुग में मनुष्य को यह विश्वास करने में बहुत समय लगा कि भूतल पर पाए गए ये पिंड पृथ्वी पर आकाश से आए हैं। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में डी. ट्रौयली नामक दार्शनिक ने इटली में अल्बारेतो स्थान पर गिरे हुए उल्कापिंड का वर्णन करते हुए यह विचार प्रकट किया कि वह खमंडल से टूटते हुए तारे के रूप में आया होगा, किंतु किसी ने भी इसपर ध्यान नहीं दिया। सन् 1768 ई. में फादर बासिले ने फ्रांस में लूस नामक स्थान पर एक उल्कापिंड को पृथ्वी पर आते हुए स्वत: देखा। अगले वर्ष उसने पेरिस की विज्ञान की रायल अकैडमी के अधिवेशन में इस वृत्तांत पर एक लेख पढ़ा। अकैडमी ने वृत्तांत पर विश्वास न करते हुए घटना की जाँच करने के लिए एक आयोग नियुक्त किया जिसके प्रतिवेदन में फादर बासिले के वृत्तांत को भ्रमात्मक बताते हुए यह मंतव्य प्रकट किया गया कि बिजली गिर जाने से पिंड का पृष्ठ कुछ इस प्रकार काँच सदृश हो गया था जिससे बासिले को यह भ्रम हुआ कि यह पिंड पृथ्वी का अंश नहीं हैं। तदनंतर जर्मन दार्शनिक क्लाडनी ने सन् 1794 ई. में साइबीरिया से प्राप्त एक उल्कापिंड का अध्ययन करते हुए यह सिद्धांत प्रस्तावित किया कि ये पिंड खमंडल के प्रतिनिधि होते हैं। यद्यपि इस बार भी यह विचार तुरंत स्वीकार नहीं किया गया, फिर भी क्लाडनी को इस प्रसंग पर ध्यान आकर्षित करने का श्रेय मिला और तब से वैज्ञानिक इस विषय पर अधिक मनोयोग देने लगे। सन् 1803 ई. में फ्रांस में ला ऐगिल स्थान पर उल्कापिंडों की एक बहुत बड़ी वृष्टि हुई जिसमें अनगिनत छोटे-बड़े पत्थर गिरे और उनमें से प्राय: दो-तीन हजार इकट्ठे भी किए जा सके। विज्ञान की फ्रांसीसी अकैडमी ने उस वृष्टि की पूरी छानबीन की और अंत में किसी को भी यह संदेह नहीं रहा कि उल्कापिंड वस्तुत: खमंडल से ही पृथ्वी पर आते हैं।

वर्गीकरण

उल्कापिंडों का मुख्य वर्गीकरण उनके संगठन के आधार पर किया जाता है। कुछ पिंड अधिकांशत: लोहे, निकल या मिश्रधातुओं से बने होते हैं और कुछ सिलिकेट खनिजों से बने पत्थर सदृश होते हैं। पहले वर्गवालों को धात्विक और दूसरे वर्गवालों को आश्मिक उल्कापिंड कहते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ पिंडों में धात्विक और आश्मिक पदार्थ प्राय: समान मात्रा में पाए जाते हैं, उन्हें धात्वाश्मिक उल्कापिंड कहते हैं। वस्तुत: पूर्णतया धात्विक और पूर्णतया आश्मिक उल्कपिंडों के बीच सभी प्रकार की अंत:स्थ जातियों के उल्कापिंड पाए जाते हैं जिससे पिंडों के वर्ग का निर्णय करना बहुत ही कठिन हो जाता है।

संरचना के आधार पर तीनों वर्गो में उपभेद किए जाते हैं। आश्मिक पिंडों में दो मुख्य उपभेद हैं जिनमें से एक को कौंड्राइट और दूसरे को अकौंड्राइट कहते हैं। पहले उपवर्ग के पिंड़ों का मुख्य लक्षण यह है कि उनमें कुछ विशिष्ट वृत्ताकार दाने, जिन्हें कौंड्रयूल कहते हैं, उपस्थित रहते हैं। जिन पिंड़ों में कौंड्रयूल उपस्थित नहीं रहते उन्हें अकौंड्राइट कहते हैं।

धात्विक उल्कापिंड़ों में भी दो मुख्य उपभेद हैं जिन्हें क्रमश: अष्टानीक (आक्टाहीड्राइट) और षष्ठानीक (हेक्साहीड्राइट) कहते हैं। ये नाम पिंडों की अंतररचना व्यक्त करते हैं और जैसा इन नामों से व्यक्त होता है, पहले विभेद के पिंडों में धात्विक पदार्थ के बंध (प्लेट) अष्टानीक आकार में और दूसरे में षष्ठीनीक आकार में विन्यस्त होते हैं। इस प्रकार की रचना को विडामनस्टेटर कहते हैं एवं यह पिंड़ों के मार्जित पृष्ठ पर बड़ी सुगमता से पहचानी जा सकती है।

धात्वाश्मिक उल्कापिंडों में भी दो मुख्य उपवर्ग हैं जिन्हें क्रमानुसार पैलेसाइट और अर्धधात्विक (मीज़ोसिडराइट) कहते हैं। इनमें से पहले उपवर्ग के पिंडों का आश्मिक अंग मुख्यत: औलीवीन खनिज से बना होता है जिसके स्फट प्राय: वृत्ताकार होते हैं और जो लौह-निकल धातुओं के एक तंत्र में समावृत्त रहते हैं। अर्धधात्विक उल्कापिंडों में मुख्यत: पाइरौक्सीन और अल्प मात्रा में एनौर्थाइट फ़ेल्सपार विद्यमान होते हैं।

संरचना

पूर्व प्रकरण में यह उल्लेख किया जा चुका है कि धात्विक और आश्मिक अंगों की प्रधानता के आधार पर उल्कापिंड वर्गीकृत किए जाते हैं। किंतु इन पिंडों में रासायनिक तत्वों और खनिजों के वितरण के संबंध में कोई सुनिश्चित आधार प्रतीत नहीं होता। उल्कापिंडों के तीन मुख्य वर्गों के अतिरिक्त अनेकानेक उपवर्ग हैं जिनमें से प्रत्येक का अपना पृथक् विशेष खनिज समुदाय है। अभी तक प्राय: 25 नए वर्गों का पता लगा है और प्राय: प्रति दो वर्ष एक नए उपवर्ग का पता लगता रहा है। कठिनाई इस बात की है कि अध्ययन के लिए उपलब्ध पदार्थ अत्यंत अल्प मात्रा में होते हैं।

अभी तक उल्कापिंडों में केवल 52 रासायनिक तत्वों की उपस्थिति प्रमाणित हुई है जिनके नाम निम्नलिखित हैं:

। ऑक्सीजन। गंधक। प्लैटिनम। लोहा

। आर्गन गैलियम। फ़ास्फ़ोरस वंग (राँगा)

आर्सेनिक जरमेनियम बेरियम वैनेडियम

इंडियम ज़िरकोनियम बेरीलियम। सिलिकन

। इरीडियम। टाइटेनियम। मैंगनीज़ सीज़ियम

। ऐंटिमनी टेलूरियम मैगनीशियम सीरियम

। ऐल्युमिनियम। ताम्र मौलिबडेनम सीस (सीसा)

। कार्बन थूलियम यशद (जस्ता)। सोडियम

कैडमियम। नाइट्रोजन रजत (चाँदी) स्कैंडियम

। कैल्सियम। निकल। रुथेनियम स्वर्ण (सोना)

। कोबल्ट पारद रुबीडियम स्ट्रौंशियम

। क्रोमियम। पैलेडियम। रेडियम। हाइड्रोजन

। क्लोरीन। पोटैसियम लीथियम। हीलियम

इन 52 तत्वों में से केवल आठ प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जिनमें हालों सबसे प्रमुख है। अन्य सात में क्रमानुसार ऑक्सिजन, सिलिकन, मैंगनीशियम, गंधक, ऐल्युमिनियम, निकल और कैल्सियम हैं। इनके अतिरिक्त 20 अन्य तत्व पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं तथा उनकी उपस्थिति का पता साधारण रासायनिक विश्लेषण द्वारा 1926 से पूर्व ही लग चुका था। शेष 24 तत्व अत्यंत अल्प मात्रा में विद्यमान हैं एवं उनकी उपस्थिति वर्णक्रमदर्शकी (स्पेक्ट्रोग्रैफिक) विश्लेषण से सिद्ध की गई है।

खनिज संरचना की दृष्टि से उल्कापिंडों और पृथ्वी में पाई गई शैल राशियों के लक्षणों में कई अंतर होते हैं। साधारणतया भूमंडलीय शैल राशियों में स्वतंत्र धातु रूप में लोहा तथा निकल अत्यंत दुर्लभ होते हैं, किंतु उल्कापिंड़ों में धातुएँ शुद्ध रूप में बहुत प्रचुरता से तथा प्राय: अनिवार्यत: पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त कई ऐसे खनिज हैं जो भूमडलीय शैलों में नहीं पाए जाते, पर उल्कापिंडों में मिलते हैं। इनमें से प्रमुख ओल्डेमाइट (कैल्सियम का सल्फाइड) और श्राइबेरसाइट (लोहे और निकल का फ़ॉसफ़ाइड) हैं। ये दोनों खनिज नमी और औक्सीजन की बहुलता में स्थायी नहीं होते और इसी कारण भूमंडलीय शैलों में नहीं मिलते। इनकी उपस्थिति से यह बोध होता है कि उल्कापिंडों की उत्पत्ति ऐसे वातावरण में हुई जहाँ भूमंडल की अपेक्षा आक्साइडीकरण की परिस्थितियाँ न्यून रही होंगी।

आश्मिक उल्कापिंड़ों में साधारणतया पाइरोक्सीन और औलीविन की प्रचुरता एवं फ़ेल्सपार का अभाव होता है, जिससे उनका संगठन भूमंडल की अतिभास्मिक (अल्ट्राबेसिक) शैलों के सदृश होता है।

उत्पत्ति

उल्कापिंडों की उत्पत्ति का विषय बहुत ही विवादास्पद है। इस विषय पर अनेक मत समय समय पर प्रस्तावित हुए हैं, जिनमें से कुछ में इन्हें पृथ्वी, चंद्रमा, सूर्य और धूमकेतु आदि का अंश माना गया है। एक अति मान्य मत के अनुसार इनकी उत्पत्ति एक ऐसे ग्रह से हुई जो अब पूर्णतया विनष्ट हो गया है। इस विचार में यह कल्पना की जाती है कि आदि में प्राय: मंगल के आकार का एक ग्रह रहा होगा जो किसी दूसरे बड़े ग्रह के अत्यंत समीप आ जाने पर, अथवा किसी दूसरे ग्रह से टकराकर, विनष्ट हो गया, जिससे अरबों की संख्या में छोटे बड़े खंड बने जो उल्का रूप में खमंडल में विचर रहे हैं। इस मत के अनुसार धात्विक उल्का उस कल्पित ग्रह का केंद्रीय भाग तथा आश्मिक उल्का ऊपरी पृष्ठ निरूपित करते हैं। यद्यपि इस उपकल्पना से उल्कापिंडों के अनेक लक्षणों की व्याख्या हो जाती है, फिर भी अनेक बातें अनबूझी पहेली रह जाती हैं। उदाहरणार्थ कुछ धात्विक उल्कापिंडों में अष्टानीक रचना होती है जो साधारणतया 800 डिग्री सेंटीग्रेड ताप पर नष्ट हो जाती है। ऐसा विश्वास है कि उस कल्पित ग्रह के विखंडन के समय अवश्य ही उसमें अधिक ताप उत्पन्न हुआ होगा। फिर भी यह समझ में नहीं आता कि यह अष्टानीक रचना विनष्ट होने से कैसे बची। इसी प्रकार यह शंका भी बनी रहती है कि अकौंड्राइट आश्मिक उल्का में लोहा कहाँ से आया और कौंड्राइट आश्मिक उल्का में कौंडूयूल कैसे बने।

एक अन्य मत में यह प्रस्तावित किया गया है कि उल्कापिंडों की उत्पत्ति ग्रहों के साथ साथ हो हुई, अथवा यों कहना चाहिए कि सौरमंडल एवं समस्त खमंडलीय पदार्थो की उत्पत्ति उल्कापिंडों से ही हुई। इस कल्पना के अनुसार आदि विश्व उल्कापिंडों से परिपूर्ण था एव कालांतर में वे पिंड विभिन्न पुंजों में एकत्रित होते गए तथा उनके अधिकाधिक घनीकरण के क्रमानुसार गैसमय नोहारिका, नक्षत्र एवं ग्रह उत्पन्न हुए। इस कल्पना की एक बड़ी त्रुटि यह प्रतीत होती है कि खमंडल में उपस्थित उल्कापिंड इतनी दूर-दूर छितराए हुए हैं तथा उनका पारस्परिक आकर्षण इतना क्षीण है कि उनके एकत्र होकर बड़ी राशि बनने में अत्यधिक समय लगेगा। किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि एक बार पर्याप्त बड़े आकार की राशि बन जाने के बाद वह अपनी सत्ता बनाए रख सकेगा और कालांतर में और अधिक पिंडों को अपने में मिलाकर अपने आकार की वृद्धि भी कर सकेगा। संभव है, उपर्युक्त विधियों में अंशत: संशोधन करने से इनकी उत्पत्ति की वास्तविक विधि निर्धारित हो सके।

भारतीय संग्रह

उल्कापिंडों का एक बृहत् संग्रह कलकत्ते के भारतीय संग्रहालय (अजायबघर) के भूवैज्ञानिक विभाग में प्रदर्शित है। इसकी देखरेख भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण संस्था के निरीक्षण में होती है। प्रचलित नियमों के अनुसार देश में कहीं भी गिरा हुआ उल्कापिंड सरकारी संपत्ति होता है। जिस किसी को ऐसा पिंड मिले उसका कर्तव्य है कि वह उसे स्थानीय जिलाधीश के पास पहुँचा दे जहाँ से वह भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग को भेज दिया जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे यह संग्रह अपने ढंग का अनोखा हो गया है। इसके अतिरिक्त इस संग्रह में विदेशों से भी प्राप्त नमूने रखे गए हैं। एशिया भर में यह संग्रह सबसे बड़ा है और विश्व के अन्य संग्रहों में भी इसका स्थान अत्यंत ऊँचा है, क्योंकि एक तो इसमें अनेक भाँति के नमूने हैं और दूसरे अनेक नमूने अति दुर्लभ जातियों के हैं। सब मिलाकर इसमें 468 विभिन्न उल्कापात निरूपित हैं, जिनमें से 149 धात्विक और 319 आश्मिक वर्ग के हैं।

इस संग्रहालय की सबसे बड़ी भारतीय आश्मिक उल्का इलाहाबाद जिले के मेडुआ स्थान से प्राप्त हुई थी (द्र. चित्रफलक)। वह 30 अगस्त 1920 को प्रात: 11 बजकर 15 मिनट पर गिरी था। उसका भार प्राय: 56,657 ग्राम (4,818तोले) है और दीर्घतम लंबाई 12 इंच है। दूसरा स्थान उस पिंड का है जो मलाबार में कुट्टीपुरम ग्राम में 6 अप्रैल 1914 को प्रात: काल 7 बजे गिरा था। इसका भार 38,437 ग्राम (3,295 तोले) है। इस संग्रह में रखे हुए उल्कापिंडों का विवरण भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के मेमॉयर संख्या 75 में विस्तारपूर्वक दिया हुआ है।

सन्दर्भ

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बाहरी कड़ियाँ