ईहामृग
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ईहामृग रूपक का एक भेद है।
परिचय
संस्कृत नाटक दो प्रकार के होते हैं: रूपक तथा उपरूपक। रूपक के दस भेद हैं जिसमें से ईहामृग एक है। ईहामृग में दर्शकों का मनोरंजन इसके मस्तिष्क को झकझोर देने वाले कथानक से होता है।
धनंजय के अनुसार ईहामृग का कथानक मिश्रित (कुछ ऐतिहासिक और कुछ उत्पाद्य) होता है। इसमें चार अंक, मुख, प्रतिमुख तथा निर्वहण नामक तीन संधियाँ एवं इतिहास प्रसिद्ध मनुष्य अथवा दिव्यपुरुष नायक होता है। इसका प्रतिनायक धीरोद्धत होता है और विपरीत ज्ञानजनित अनुचित कार्य किया करता है। अत्यंत आवेश अथवा उत्तेजना के कारण युद्ध की स्थिति समुपस्थित हो जाने पर भी किसी न किसी बहाने संघर्ष का टल जाना और किसी महात्मा के वध की पूरी तैयारी हो जाने पर भी उसे बचा लिया जाना प्राय: इस रूपक में दिखाया जाता है। बीच बीच में किसी दिव्यनारी के बलात् अपहरण की इच्छा रखनेवाले नायक या प्रतिनायक की श्रृंगारजन्य चेष्टाएँ भी दिखाई जाती हैं।
भरत मुनि के अनुसार इस रूपक में किसी दैवी स्त्री के लिए युद्ध का प्रसंग उपस्थित किया जाता है, पर युद्ध होता नहीं, प्राय: टल जाता है। शारदातनय ने "कुसुमशेखर" नामक ईहामृग का उदाहरण देते हुए बताया है कि इस विधा में चार अंक होते हैं, नायकों की संख्या चार, पाँच और कभी कभी छह तक पहुँच जाती है, भयानक और बीभत्स के अतिरिक्त शेष सभी रस पाए जाते हैं। कैशिकी के अलावा शेष तीन वृत्तियाँ होती हैं, पर कहीं कहीं कैशिकी वृत्ति भी मिल जाती है। नाट्यदर्पणकार रामचंद्र के मत से ईहामृग में नायकों की संख्या १२ होती है ओर चार अंकों के स्थान पर अंक भी हो सकता है। विश्वनाथ ने भी इसमें एक अंक का होना विहित माना है और विभिन्न आचार्यो के आधार पर नायक के संबंध में दो मत दिए हैं:
- (१) एक देवता ही नायक होता है तथा
- (२) छह नायक होते हैं।
अभिनवगुप्त ने एक अंक और १२ नायक बताए हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनुसार ईहामृग में चार अंक, नायक ईश्वर का अवतार और नायिका युद्धादि कार्य संपादित करती है। बाबू गुलाबराय की मान्यता है कि चार अंकों के इस नाटक में एक धीरोदात्त नायक तथा एक प्रतिनायक होता है। नायक किसी कुमारी अथवा सुंदरी को पाना चाहता है, पर वह मृग की भाँति दुष्प्राप्य हो जाती है। प्रतिनायक नायक से नायिका को छुड़ाना चाहता है। नायक नायिका का मिलन नहीं होता पर किसी की मृत्यु भी नहीं दिखलाई जाती। हिंदी में ईहामृग का उदाहरण नहीं मिलता।
ईहामृग के नामकरण के संबंध में अभिनवगुप्त और रामचंद्र का मत है कि नायक अथवा प्रतिनायक इसमें मृग के समान अलभ्य सुंदरी की कामना करता है। विश्वनाथ और धनंजय ने "ईहामृग' नाम का औचित्य बताते हुए लिखा है कि इसमें किसी अनासक्त दिव्य ललना को अपहरण आदि के द्वारा पाने की घटना रहती है।