आयुर्विज्ञान शिक्षा
आयुर्विज्ञान शिक्षा (मेडिकल एजूकेशन) से तात्पर्य उस किसी भी शिक्षा से है जो चिकित्सा कार्य करने वालों के लिए आवश्यक है। इसमें आरम्भिक शिक्षा और उसके बाद ली जाने वाली अतिरिक्त शिक्षा और प्रशिक्षण भी सम्मिलित है।
ऐब्रैहम फ्लेक्सनर का कथन है कि प्राचीन काल से आयुर्विज्ञान में अंधविश्वास, प्रयोग तथा उस प्रकार के निरीक्षण का, जिसके अंत में विज्ञान का निर्माण होता है, विचित्र मिश्रण रहा है। ये तीनों सिद्धांत आज भी कार्य कर रहे हैं, यद्यपि उनका अनुपात अब बदल गया है।
भारत
उत्तर-वैदिक-काल (६०० ई.पू. से सन् २०० ई. तक) के भारत के लिखित इतिहास से पता चलता है कि आयुर्विज्ञान की शिक्षा तक्षशिला तथा नालंदा के महाविद्यालयों में दी जाती थी। बाद में ये महाविद्यालय नष्ट हो गए और राजनीतिक अवस्था में परिवर्तन होने के साथ यूनानी तथा पश्चिमी (यूरोपीय) आयुर्वैज्ञानिक रीतियों का इस देश में प्रवेश हुआ।
ब्रिटिश भारत में सर्वप्रथम आयुर्वैज्ञानिक विद्यालय सन् १८२२ में स्थापित हुआ। इसके पश्चात् सन् १८३५ में दो आयुर्वैज्ञानिक विद्यालय, एक कलकत्ता में तथा दूसरा मद्रास में, स्थापित हुए। इंग्लैंड के रॉयल कॉलेज ऑव सर्जन्स ने सन् १८४५ में इन्हें पहले पहल मान्यता दी। इस समय से लेकर सन् १९३३ तक आयुर्विज्ञान की शिक्षा का विकास जनरल मेडिकल काउंसिल ऑव यूनाइटेड किंग्डम की देखरेख में होता रहा।
सन् १९३३ में भारतीय संसद् ने इंडियन मेडिकल काउंसिल ऐक्ट स्वीकार किया। इसके अनुसार भारत के सब प्रांतों के लिए आयुर्विज्ञान में उच्च योग्यता के एक समान, अल्पतम मानक स्थिर करने के विशिष्ट उद्देश्य से मेडिकल काउंसिल ऑव इंडिया का संगठन हुआ।
सन् १९३५ के सुझावों के अनुसार जीवविज्ञान (बाइऑलोजी) के साथ इंटरमीडिएट परीक्षा में उत्तीर्ण होने के अनंतर आयुर्वैज्ञानिक विद्यालय में पाँच वर्ष तक अध्ययन का समय नियत किया गया। इसके अंतिम तीन वर्षों को रुग्णालयों में जाकर रोगियों की परीक्षा आदि में व्यतीत करने का निर्देश था। सन् १९५२ के प्रस्तावों ने जीवविज्ञान के साथ इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् विद्यालय में अध्ययन करने के कुल समय को बढ़ाकर साढ़े पाँच वर्ष कर दिया है। इसमें से डेढ़ वर्ष तो रुग्णालयों के कार्यक्रम के परिचय के साथ-साथ आधारभूत वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन के लिए है तथा तीन वर्ष रुग्णालयों में क्रियात्मक कार्य के लिए। अंतिम परीक्षा के पश्चात् १२ मास के लिए परीक्षोत्तर शिक्षा की विशेष व्यवस्था की कई है। इस अवधि में विद्यार्थी को विश्वविद्यालय अथवा मेडिकल काउंसिल से मान्यताप्राप्त मेडिकल अधिकारी या डाक्टर की अधीनता में कार्य करना पड़ता है। इस एक वर्ष के काल में तीन मास लोकस्वास्थ्य (पब्लिक हेल्थ) के कार्यों में, अधिकतर देहात में, बिताना पड़ता है।
रुग्णालय विषयक अध्ययनकाल में, अर्थात् तीसरे, चौथे तथा पाँचवें वर्षों में, प्रत्येक विद्यार्थी को कम से कम रोगियों के कुल ब्योरों का लेखा तैयार करने अथवा शल्यचिकित्सा के उपरांत पट्टी बाँधने के कार्य का संपूर्ण उत्तरदायित्व उठाना पड़ता है।
जैसा उचित है, काउंसिल ने शिक्षणकाल में उपदेशात्मक व्याख्यानों की तुलना में क्रियात्मक (व्यावहारिक) शिक्षा पर अधिक बल दिया है। सन् १९५६ के इंडियन मेडिकल काउंसिल अधिनियम ने काउंसिल को स्नातकोत्तर आयुर्वैज्ञानिक शिक्षा के संबंध में अधिक वैधानिक शक्ति प्रदान की है तथा स्नातकोत्तर आयुर्वैज्ञानिक शिक्षासमिति (पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन कमिटी) की स्थापना का निर्देश भी किया है।
इन संस्थाओं के अतिरिक्त इसका भी प्रयत्न किया गया है कि आयुर्विज्ञान की प्राचीन भारतीय प्रणाली की उन्नति की जाय। प्राचीन भारतीय पद्धति की प्रथम पाठशाला सन् १९१४ में मद्रास में स्थापित की गई। [काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने एम.बी.बी.एस. का एक नवीन पाठ्यक्रम निर्धारित किया है जो जीवविज्ञान लेकर इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद छह वर्षों तक चलता है। इस प्रणाली में आयुर्वेद (प्राचीन भारतीय पद्धति) का भी कुछ आवश्यक परिचय दिया जाता है। इस नवीन पाठ्यक्रम का प्रभाव देश की आयुर्वैज्ञानिक शिक्षा पर बहुत बड़ी मात्रा में संभावित है। इसका उद्देश्य यह है कि आयुर्विज्ञान की भारतीय और पाश्चात्य दोनों प्रणालियों का फलप्रद एकीकरण हो।
यूनाइटेड किंगडम (इंग्लैंड, स्कॉटलैंड आदि)
ग्रेट ब्रिटेन की जेनरल मेडिकल काउंसिल (व्यापक आयुर्वैज्ञानिक परिषद्) १८५८ ई. के आयुर्वैज्ञानिक विनियम (ऐक्ट) के अनुसार स्थापित की गई थी। उस समय चिकित्सकों के मन में यह भ्रांति थी कि आयुर्वैज्ञानिक शिक्षा का ध्येय 'अहानिकर, सामान्य चिकित्सक' उत्पन्न करना था। २०वीं शताब्दी में ग्रेट ब्रिटेन में आयुर्वैज्ञानिक शिक्षा का ध्येय धीरे-धीरे बदलकर ऐसा मौलिक (बेसिक) चिकित्सक उत्पन्न करना हो गया, जिसमें यह योग्यता हो कि वह इच्छानुसार आयुर्विज्ञान की किसी भी शाखा में विशेषज्ञ बन सके। यूनाइटेड किंगडम में मौलिक उपाधि एम.बी.बी.एस. की है, जिसका अर्थ है मेडिसिन (भेषजविज्ञान) का स्नातक और सर्जरी (शल्यचिकित्सा) का स्नातक। इसके बदले एल.आर.सी.पी. और एम.आर.सी.एस. की भी वैकल्पिक उपाधियाँ हैं। इन अक्षरों का अर्थ है कि चिकित्सकों अथवा शल्यशास्त्रियों के रॉयल कॉलेज (राजविद्यालय) का उपाधिप्राप्त (लाइसेंशियेट) अथवा सदस्य (मेंबर)। यूनाइटेड किंगडम में स्नातकोत्तर उपाधियाँ एम.डी (चिकित्सापंडित) अथवा एम.एस. (शल्य-चिकित्सा-पंडित) और एफ़.आर.सी.एस. (शल्यचिकित्सकों के रॉयल कॉलेज का सदस्य) अथवा एम.आर.सी.पी. (चिकित्सकों के रॉयल कॉलेज का सदस्य) हैं।
अमेरिका
अमरीका के संयुक्त राज्य-अमरीकन मेडिकल ऐसासियेशन (अमरीकी आयुर्वैज्ञानिक संघ) सन् १८४७ में स्थापित हुआ था। इसका उद्देश्य आयुर्वैज्ञानिक शिक्षा के स्तर का उत्थान था। विश्व में अमरीका के आयुर्वैज्ञानिक विद्यालयों की बड़ी ख्याति है। चिकित्सकों की शिक्षा में विज्ञान को समुचित महत्व दिया जाता है। विद्यार्थी अपने मन का विषय स्वतंत्रता से चुन सकता है। विद्यालय में भरती होने के पहले उसे विज्ञान का स्नातक होना आवश्यक है। शिक्षा के अंत पर सबको एम.डी (चिकित्सापंडित) की उपाधि मिलती है। स्नातकोत्तर उपाधियाँ एफ़.ए.सी.एस. और एफ़.ए.सी.पी. हैं। ये उपाधियाँ विशेषज्ञों के विद्यालयों द्वारा दी जाती हैं।
रूस
रूस में आयुर्वैज्ञानिक शिक्षा का विकास वस्तुतः सी.पी.एस.यू. (बी) के १७वें अधिवेशन के सम्मुख स्टैलिन के प्रसिद्ध व्याख्यान के बाद हुआ। १९४५ ई. में रूस की आयुर्वैज्ञानिक परिषद् (एकैडेमी) स्थापित हुई। इसके पहले सन् १९३४ में विज्ञानपंडित और विज्ञानजिज्ञासु की उपाधियाँ थीं। आयुर्वैज्ञानिक विद्यालय में भरती होने के लिए मैट्रिकुलेशन का प्रमाणपत्र आवश्यक है। सब विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति मिलती है। दूर से आए विद्यार्थियों के लिए छात्रावास में रहने का भी प्रबंध रहता है। सन् १९४५ तक आयुर्वैज्ञानिक पाठ्यक्रम पाँच वर्षों में समाप्त होता था, परंतु उसके बाद छह वर्ष तक पढ़ाई होने लगी। क्रियात्मक अनुभव पर विशेष ध्यान दिया जाता है। प्रत्येक विद्यार्थी को प्रतिवर्ष एक निश्चित कार्यक्रम दिया जाता है, जिसे अस्पतालों और रुग्णालयों में अनुभवी विशेषज्ञों की देखरेख में उसे पूरा करना पड़ता है। वर्तमान समय में रूस में लगभग दो लाख डाक्टर और कई लाख सहायक हैं जिन्हें 'फ़ेल्डशर' कहा जाता है।
चीन
यहाँ ध्येय यह है कि कम समय में अधिक डाक्टर तैयार हों। आयुर्वैज्ञानिक शिक्षा की अवधि यहाँ पाँच वर्ष है। प्राचीन प्रणाली के इन चिकित्सकों को छूतवाले रोगों से बचने की आधुनिक रीतियों की शिक्षा दे दी गई है। रूस की ही भांति चीन के आयुवैज्ञानिक विद्यालय विश्वविद्यालयों से पूर्णतया भिन्न हैं। आयुर्वैज्ञानिक शिक्षा अत्यंत प्राविधिक शिक्षा हो चली है। चीन का विद्यार्थी आयुर्वैज्ञानिक विद्यालय में १७ वर्ष की आयु में भरती होता है और इसके पहले उसे भौतिकी, रसायन, समाजशास्त्र, चीनी साहित्य और राजनीतिविज्ञान में सरकारी परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ती है। पीकिंग के विद्यालयों में छात्राओं की संख्या कुल की ४४ प्रतिशत बताई जाती है। कहा जाता है, ८० प्रतिशत परीक्षा मौखिक होती है और केवल २० प्रतिशत लिखित।
अंत में इसपर बल देना आवश्यक है कि सारे विश्व में आयुर्वैज्ञानिक शिक्षा में बराबर अनेक परिवर्तन होते रहते हैं और अब यह निंतांत आवश्यक हो गया है कि भारत भी विज्ञान के इस शक्तिशाली क्षेत्र में समुचित कार्य करे।