सौन्दर्य प्रसाधन

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कुछ सौन्दर्य प्रसाधन और लगाने के औजार
स्त्री की रागालंकृत आँख का पास से लिया गया फोटो

अंगराग या सौन्दर्य प्रसाधन या कॉस्मेटिक्स (Cosmetics) ऐसे पदार्थों को कहते हैं जो मानव शरीर के सौन्दर्य को बढ़ाने या सुगन्धित करने के काम आते हैं। शरीर के विभिन्न अंगों का सौंदर्य अथवा मोहकता बढ़ाने के लिए या उनको स्वच्छ रखने के लिए शरीर पर लगाई जाने वाली वस्तुओं को अंगराग (कॉस्मेटिक) कहते हैं, परंतु साबुन की गणना अंगरागों में नहीं की जाती।

अंगराग प्राकृतिक या कृत्रिम दोनो प्रकार के होते हैं। वे विशेषतः त्वचा, केश, नाखून को सुन्दर और स्वस्थ बनाने के काम आते हैं। ये व्यक्ति के शरीर के गंध और सौन्दर्य की वृद्धि करने के लिये लगाये जाते है।

शरीर के किसी अंग पर सौन्दर्य प्रसाध लगाने को 'मेक-अप' कहते हैं। इसे शरीर के सौन्दर्य निखारने के लिये लगाया जाता है। 'मेक-अप' की संस्कृति पश्चिमी देशों से आरम्भ होकर भारत सहित पूरे विश्व में फैल गयी है।

'मेक-अप' कई प्रक्रियाओं की एक शृंखला है जो चेहरे या सम्पूर्ण देह की छबि को बदलने का प्रयत्न करती है। यह किसी प्रकार की कमी को ढकने या छिपाने के साथ-साथ सुन्दरता को उभारने का काम भी करती है।

इतिहास

प्राचीन मिस्र में अंगराग (अन्तारियो का शाही संग्रहालय)

सभ्यता के प्रादुर्भाव से ही मनुष्य स्वभावत: अपने शरीर के अंगों को शुद्ध, स्वस्थ, सुडौल और सुंदर तथा त्वचा को सुकोमल, मृदु, दीप्तिमान और कांतियुक्त रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि शारीरिक स्वास्थ्य और सौंदर्य प्राय: मनुष्य के आंतरिक स्वास्थ्य और मानसिक शुद्धि पर निर्भर है। तथापि, यह सत्य है कि किसी के व्यक्तित्व को आकर्षक और सर्वप्रिय बनाने में अंगराग और सुगंध विशेष रूप से सहायक होते हैं। संसार के विभिन्न देशों के साहित्य और सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि भिन्न-भिन्न अवसरों पर प्रगतिशील नागरिकों द्वारा अंगराग और गंध शास्त्र संबंधी कलाओं का उपयोग शारीरिक स्वास्थ्य और त्वचा की सौंदर्य वृद्धि के लिए किया जाता रहा है।

भारत के परिप्रेक्ष्य में अंगराग, सुगंध आदि की रचना व उपयोग को मनुष्य की तामसिक वासनाओं का उत्तेजक न मानकर समाज कल्याण और धर्म प्रेरणा का साधन समझा जाता रहा है। आर्य संस्कृति में अंगराग और गंध शास्त्र का महत्व प्रत्येक सद्गृहस्थ के दैनिक जीवन में उतना ही आवश्यक रहा है जितना पंच महायज्ञ और वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा का पालन। वैदिक साहित्य, महाभारत, बृहत्संहिता, निघंटु, सुश्रुत, अग्निपुराण, मार्कण्डेयपुराण, शुक्रनीति, कौटिल्य अर्थशास्त्र, शारंगधर पद्धति, वात्स्यायन कामसूत्र, ललित विस्तर, भरत नाट्यशास्त्र, अमरकोश इत्यादि में नानाविध अंगरागों और गंध-द्रव्यों का रचनात्मक और प्रयोगात्मक वर्णन पाया जाता है। सद्गोपाल और पी.के. गोडे के अनुसंघानों के अनुसार इन ग्रंथों में शरीर के विविध प्रसाधनों में से विशेषतया दर्पण की निर्माण कला, अनेक प्रकार के उद्वर्तन, विलेप, धूलन, चूर्ण, पराग, तैल, दीपवर्ति, धूपवर्ति, गंधोदक, स्नानीय चूर्णवास, मुखवास इत्यादि का विस्तृत विधान किया गया है।

गंगाधरकृत गंधसार नामक ग्रंथ के अनुसार तत्कालीन भारत में अंगरागों के निर्माण में मुख्यतया निम्नलिखित छह प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता था।

1. भावन क्रिया - चूर्ण किए हुए पदार्थों को तरल द्रव्यों से अनुबिद्ध करना।

2. पाचन क्रिया - क्वथन द्वारा विविध पदार्थों को पकाकर संयुक्त करना।

3. बोध क्रिया - गुणवर्धक पदार्थों के संयोग से पुनरुत्तेजित करना।

4. वेध क्रिया - स्वास्थ्यवर्धक और त्वचोपकारक पदार्थों के संयोग से अंगरागों को चिरोपयोगी बनाना।

5. धूपन क्रिया - सौगंधिक द्रव्यों के धुओं से सुवासित करना।

6. वासन क्रिया - सौगंधिक तैलों और तत्सदृश अन्य द्रव्यों के संयोग से सुवासित करना।

रघुवंश, ऋतुसंहार, मालतीमाधव, कुमार संभव, कादम्बरी, हर्षचरित और पालि ग्रंथों में वर्णित विविध अंगरागों में निम्नलिखित द्रव्यों का विस्तृत विधान पाया जाता है।

मुख प्रसाधन के लिए विलेपन और अनुलेपन, उद्वर्तन, रंजकनकिका, दीपवति इत्यादि; सिर के बालों के लिए विविध प्रकार के तैल, धूप और केशपटवास इत्यादि; आँखों के लिए काजल, सुरमा और प्रसाधन शलाकाएँ इत्यादि; ओष्ठों के लिए रंजकशलाकाएँ; हाथ और पाँव के लिए मेंहदी और आलता; शरीर के लिए चंदन, देवदारु और अगरु इत्यादि के विविध लेप, स्थानीय चूर्णवास और फेनक इत्यादि तथा मुखवास, कक्षवास और गृहवास इत्यादि। इन अंगरागों और सुगंधों की रचना के लिए अनुभवी शास्त्रों तथा प्रयोगादि के लिए प्रसाधकों तथा प्रसाधिकाओं को विशेष रूप से शिक्षित और अभ्यस्त करना आवश्यक समझा जाता था।

अंगरागशास्त्र की वैज्ञानिक कला द्वारा उन सभी प्रसाधन द्रव्यों का रचनात्मक और प्रयोगात्मक विधान किया जाता है जिनके उपयोग से मनुष्य शरीर के विविध अंगोपांगों और त्वचा को स्वस्थ, निर्दोष, निर्विकार, कांतिमान और सुंदर रखकर लोक कल्याण सिद्ध किया जा सके। भारत में पुरातन काल से अंगराग संबंधी विविध प्रसाधन द्रव्यों का निर्माण प्राकृतिक और मुख्यतया वानस्पतिक संसाधनों द्वारा होता रहा है। किंतु वर्तमान युग में आधुनिक विज्ञान की उन्नति से अंगरागों की रचना और प्रयोग में आने वाले संसाधनों की संख्या का विस्तार इतना बढ़ गया है कि अन्य वैज्ञानिक विषयों की तरह इस विषय का ज्ञानार्जन भी विशेष प्रयत्न द्वारा ही संभव है।

आधुनिक काल में अंगराग

आधुनिक काल में विशेष प्रकार के साबुनों तथा अंगरागों का विस्तार और प्रचार शारीरिक सौंदर्यवृद्धि के लिए ही नहीं अपितु शारीरिक दोषोपचार के लिए भी बढ़ रहा है। अत: अंगराग के ऐसे औपचारिक प्रसाधनों को औषधियों से अलग रखने की दृष्टि से अमरीका तथा अन्य विदेशों में इन पदार्थों की रचना और बिक्री पर सरकारी कानूनों द्वारा कड़ा नियंत्रण किया जा रहा है। आजकल के सर्वसंगत सिद्धांत के अनुसार निम्नलिखित पदार्थ ही अंगराग के अंतर्गत रखे जा सकते हैं[१]:

  • (१) वे पदार्थ जिनका उपयोग शरीर की सौंदर्यवृद्धि के लिए हो, न कि इन प्रसाधनों के उपकरण। इस दृष्टि से कंघी, उस्तरा, दाँतों और बालों के बुरुश इत्यादि अंगराग नहीं कहे जा सकते।
  • (२) अंगराग के प्रसाधनों में बाल धोने के तरल फेनक (शैंपू), दाढ़ी बनाने का साबुन, विलेपन (क्रीम) और लोशन इत्यादि तो रखे जा सकते हैं, किंतु नहाने के साबुन नहीं।
  • (३) अंगराग के प्रसाधनों में ऐसे औपचारिक पदार्थों को भी रखा जाता है जो औषध के समान गुणकारक होते हुए भी मुख्यत: शरीर शुद्धि के लिए ही प्रयुक्त होते हैं, जैसे पसीना कम करने वाली प्रसाधन आदि।
  • (४) वे पदार्थ जो अनिवार्य रूप से मनुष्य के शरीर पर ही प्रयुक्त होते हैं, बालगृह और आमोद-प्रमोद के स्थानों इत्यादि को सुगंधित रखने के लिए नहीं।

वर्गीकरण

ऊपर लिखे आधुनिक सिद्धांत के अनुसार मनुष्य शरीर के अंगोपांग पर प्रयोग की दृष्टि से विविध प्रसाधनों का शास्त्रीय वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से करना चाहिए:

1. त्वचा संबंधी प्रसाधन - चूर्ण (पाउडर); विलेपन (क्रीम); सांद्र और तरल लोशन; गंधहर (डिओडोरैंड); स्नानीय प्रसाधन (बाथ प्रिपेरेशंस); श्रृंगार प्रसाधन (मेक-अप) - जैसे आकुंकुप (रूपह); काजल, ओष्ठरंजक शलाका (लिपस्टिक) तथा सूर्य संस्कारक प्रसाधन (सन-टैन प्रिपेरेशंस) इत्यादि।

2. बालों के प्रसाधन शैंपू; केशवल्य (हेयर टॉनिक); केश संभारक (हेयर ड्रेसिंग्स) और शूभ्रक (ब्रिलियंटाइन); क्षीर प्रसाधन (शेविंग प्रिपेरेशंस); विलोमक (डिपिलेटरी) इत्यादि।

3. नख प्रसाधन- नखप्रमार्जक (नेल पॉलिश) और प्रमार्ज अपनयन (पॉलिश रिमूवर); नख रंजक प्रसाधन (मैनिक्योर प्रिपेरेशंस) इत्यादि।

4. मुख प्रसाधन- मुखधावक (माउथ वाश); दंतशाण (डेंटिफिस); दंतलेपी (टूथपेस्ट) इत्यादि।

5. सुवासित प्रसाधन- सुगंध; गंधोदक (टॉयलेट वाटर और कोलोन वाटर); गंधशलाका (कोलोन स्टिक) इत्यादि।

6. विविध प्रसाधन- हाथ और पाँव के लिए मेंहदी और आलता इत्यादि; कीट प्रत्यपसारी (इन्सेक्ट रिपेलेंट) इत्यादि।

अंगरागों के निर्माण के लिए कुटीर उद्योग और बड़े-बड़े कारखानों, दोनों रूपों में निर्माणशाला संगठित की जा सकती है। इस शास्त्र को विविध विरचनाओं को लोकप्रियता और सफलता के लिए निर्माणकर्त्ता को न केवल रसायन का पंडित होना चाहिए बल्कि शरीरविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, कीट और कृषि विज्ञान इत्यादि विषयों का भी गहरा अव्ययन होना आवश्यक है।

त्वचा पर अंगरागों का प्रभाव

मनुष्य की त्वचा से एक विशेष प्रकार का स्निग्ध तरल पदार्थ निकला करता है। दिन रात के 24 घंटों में निकले इस स्निग्ध तरल पदार्थ की मात्रा दो ग्राम के लगभग होती है। इसमें वसा, जल, लवण और नाइट्रोजनयुक्त पदार्थ रहते हैं। इसी वसा के प्रभाव से बाल और त्वचा स्निग्ध, मृदु और कांतिवान रहते हैं। यदि त्वग्‌वसा ग्रंथियों में से पर्याप्त मात्रा में वसा निकलती रहे तो त्वचा स्वस्थ और कोमल प्रतीत होती है। इस वसा के अभाव में त्वचा रूखी-सूखी और प्रचुर मात्रा में निकलने से अति स्निग्ध प्रतीत होती है। साधारणतया शीतप्रधान और समशीतोष्ण स्थलों के निवासियों की त्वचाएँ सूखी तथा अयनवृत्त (ट्रॉपिक्स) स्थित निवासियों की त्वचाएँ स्निग्ध पाई जाती है। शारीरिक त्वचा को स्वच्छ, स्वस्थ, सुंदर, सुकोमल और कांतियुक्त बनाए रखने के लिए शारीरिक व्यायाम और स्वास्थ्य परम सहायक हैं। तथापि इस स्वास्थ्य को स्थिर रखने के विविध अंगरागों का सदुपयोग विशेष रूप से लाभप्रद होता है। शारीरिक त्वचा की स्वच्छता और मृत कोशिकाओं का उत्सर्जन, स्वेद ग्रंथियों को खुला और दुर्गंधरहित करना, धूप, सरदी और गरमी से शरीर का प्रतिरक्षण, त्वचा के स्वास्थ्य के लिए परमावश्यक वसा को पहुँचाना, उसे मुहाँसे, झुर्रियों और काले तिलों जैसे दागों से बचाना, त्वचा को सुकोमल और कांतियुक्त बनाए रखना, उसे बुढ़ापे के आक्रमणों से बचाना और बालों के सौंदर्य को बनाए रखना इत्यादि अंगरागों के प्रभाव से ही संभव है। शास्त्रीय विधि से निर्मित अंगरागों का सदुपयोग मनुष्य जीवन को सुखी बनाने में अत्यंत लाभप्रद सिद्ध हुआ है।

वैनिशिंग क्रीम

अर्वाचीन अंगरागों में से वैनिशिंग क्रीम नामक मुखराग का व्यवहार बहुत लोकप्रिय हो गया है। मुँह की त्वचा पर थोड़ा-सा ही मलने से इस विलेपन (क्रीम) का अंतर्धान होकर लोप हो जाना ही इसके नामकरण का मूल कारण जान पड़ता है (वैनिशिंग-लुप्त होने वाला)। यह वास्तव में स्टीयरिक ऐसिड अथवा किसी उपयुक्त स्टीयरेट और जल द्वारा प्रस्तुत पायस (इमलशन) है। सोडियम हाइड्रॉक्साइड, सोडियम कार्बोनेट और सुहागे के योग से जो विलेपन बनता है, वह कड़ा और फीका सा होता है। इसके विपरीत पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड और पोटैशियम कार्बोनेट के योग से बने विलेपन नरम और दीप्तिमान होते हैं। अमोनिया के योग के कारण विलेपन को विशिष्ट गंध और रंग के बिगड़ने की आशंका रहती है। मोनोग्लिगराइडों और ग्लाइकोल स्टीयरेटों के योग से अच्छे विलेपन बनाए जा सकते हैं। एक भाग सोडियम और नौ भाग पोटैशियम हाइड्रोक्साइड मिश्रित साबुनों की अपेक्षा सोडियम और पोटैशियम हाइड्रॅाक्साइड के सम्मिश्रण में ट्राई-इबेनोलेमाइन के यौगिक भी उपयोगी सिद्ध हुए हैं। कार्बोनेटों के उपयोग के समय अधिक ध्यान देना आवश्यक है क्योंकि कार्बनडॅाइआक्साइड नामक गैस निकलने से योग रचना के लिए दुगुना बड़ा बर्तन रखना और गैस को पूरी तरह निकाल देना परमावश्यक है। वैनिशिंग क्रीम की आधारभूत रचना के विशुद्ध स्टीयरिक ऐसिड, क्षार, जल और ग्लिसरीन का ही मुख्यतया प्रयोग किया जाता है।

कोल्ड क्रीम

लोकप्रिय मुखरागों में से कोल्ड क्रीम का उपयोग मुँह की त्वचा को कोमल तथा कांतिमान रखने के लिए किया जाता है। यह वास्तव में ' तेल-में-जल' का पायस होने से त्वचा में वैनिशिंग क्रीम की तरह अंतर्धान नहीं हो पाता। समांग, कांतिमय, न बहुत मुलायम और न बहुत कड़ा होने के अतिरिक्त यह आवश्यक है कि किसी भी ठीक बने कोल्ड क्रीम में से जलीय और तैलीय पदार्थ विलग न हों और क्रीम फटने न पाए, न सिकुड़ने ही पाए। शीतप्रधान और समशीतोष्ण देशों में उपयोग के लिए नरम कोल्ड क्रीम और उष्ण प्रधान देशों में उपयोग के लिए कड़े क्रीम बनाए जाते हैं। दृष्टांत के लिए एक योग रचना निम्नलिखित है:

मधुमक्खी का मोम (विशुद्ध) 15 भाग

बादाम का तैल अथवा 55 भाग

मिनरल ऑयल (65/75)

जल 29 भाग

सुहागा 1 भाग

साधारणतया मोम की मात्रा 15-20 प्रतिशत रहती है। अन्य मोम को उपयोग में लाते समय मधुमक्खी के मोम का अंश उतना ही कम करना आवश्यक है। कड़ा क्रीम बनाने के लिए सिरेसीन और स्पर्मेसटी के मोम बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं। क्रीम बनाते समय सर्वप्रथम तेल में मोम को गरम करके इसे पिघला लिया जाता है। फिर उबलते हुए जल में सुहागे का घोल बनाकर तेल मोम के गरम मिश्रण में धीरे-धीरे हिलाकर मिलाया जाता है। इस समय मिश्रण का ताप लगभग 70 डिग्री सेंटी रहना चाहिए। कुल पदार्थ मिल जाने पर इस पायस को एक दिन तक अलग रख दिया जाता है और फिर लगभग 1/2 प्रतिशत सुगंध मिलाकर श्लेषाभ पेषणी (कोलायड मिल) में दो एक बार पीसकर शीशियों में भर दिया जाता है।

फेस पाउडर का नुस्खा

मुख प्रसाधनों में फेश पाउडर, सर्वाधिक लोकप्रिय और सुविधाजनक होने के कारण, अत्यंत महत्वपूर्ण अंगराग हो गया है। अच्छे फेस पाउडर में मनमोहक रगं, अच्छी संरचना, मुख प्रसाधन के लिए क्षमता, संसागिता (चिपकने की क्षमता), सर्पण (स्लिप), विस्तार (बल्क), अवशोषण, मृदुलक (ब्लूम), त्वग्दोष-पूरक-क्षमता और सुगंध इत्यादि गुणों का होना आवश्यक है। इन गुणों के पूरक मुख्य पदार्थ निम्नलिखित हैं:1

1. अवशोपक तथा त्वग्ढोषपूरक पदार्थ - ज़िंक आक्साइड, टाइटेनियम डाइआक्साइड, मैगनीशियम आक्साइड, मैगनीशियम कार्बोनेट, कोलायडल केओलिन, अवक्षिप्त चॉक और स्टॉर्च इत्यादि।

2. संलागी (चिपकने वाले) - ज़िक, मैगनीशियम और ऐल्युमीनियम के स्टीयरेट।

3. सृप (फिसलने वाले) पदार्थ-टैल्कम।

4. मृदुलक (त्वग्विकासक) पदार्थ- प्रवक्षिप्त चॉक और बढ़िया स्टार्च।

5. रंग- अविलेय पिगमेंट और लेक रंग। ओकर, कास्मेटिक बली, कास्मेटिक ब्राउन और अंबर इत्यादि।

6. सुगंध- इसके लिए साधारणत: एक भाग टैल्कम को कृत्रिम ऐंबग्रिंस के एक भाग के साथ उचित घोलक द्रव्य, जेसे बेंज़िल बैंज़ोएट, के तीन भाग में मिलाना आवश्यक है। घोलक के मिश्रण को गरम करके 70 भाग हलकी अवक्षिप्त (लाइट प्रेसिपिटेटेड) चॉक मिला दी जाए और फिर टैल्कम मिलाकर कल तौल 1000 भाग कर लिया जाए। इस क्रिया को पूर्व संस्कार कहते हैं और इस प्रकार से बनाए टैल्कम को साधारण टैल्कम की तरह ही उपयोग में ला सकते हैं।

योग रचना के नुसखे और विधि

फेस पाउडर विविध अवसरों और पसंदों के लिए हलके, साधारण और भारी, कई प्रकार के बनाए जाते हैं। अपेक्षित सभी योगिक द्रव्यों को खूब अच्छी प्रकार से मिलाकर इंच में 100 छेद वाली चलनी में से छान लेते हैं और अंत में रंग और सुगंध डालकर, फिर अच्छी तरह मिलाकर डिब्बा बंद कर दिया जाता है।

लिपिस्टिक

किसी सांद्रित और स्निग्ध आधार (पदार्थ) में थोड़े से घुले हुए और मुख्यतया आलंबित (सस्पेंडेड) रंजक द्रव्य की ओष्ठरंजक-शलाका का नाम लिपिस्टिक है। एक बार प्रयोग में लाने से इसके रंग और स्निग्धता का प्रभाव 6 से 8 घंटे तक बना रहता है। रंग का असमान मिश्रण, शलाका का टूटना या पसीजना इत्यादि दोषों से इसका रहित होना अत्यंत आवश्यक है। लगभग 2 ग्राम की एक शलाका 250 से 400 बार प्रयोग में लाई जा सकती है। साधारणत: लिपिस्टिकों की त्वचा में ब्रोमो ऐसिड 2 प्रतिशत और रंगीन लेक 10 प्रतिशत की किसी उपयुक्त आधारक द्रव्य में मिलाया जाता है। घोलकों में से एरंड का तेल और ब्यूटिल स्टीयरेट, संलागियों में से मधुमक्खी का मोम, दीप्ति के लिए 200 श्यानता का खनिज तेल, कड़ा करने के लिए ओजोकेराइट 76 डिग्री/ 80 फुट सेंटी, सिरेसीन मोम और कारनौबा मोम, सांद्रित आधारक द्रव्य के तौर पर ककाओं बटर और उत्तम आकृति के लिए अंडिसाइलिक ऐसिड इत्यादि द्रव्यों का उपयोग किया जाता है।

दो योग (नुसखे) निम्नलिखित हैं:

पहला योग

अवयव -- भाग

ट्रफ़ पेट्रोलेटम—25

सिरेसीन 64 डिग्री -- 25

मिनरल ऑयल 210/220–15

मघुमक्खी का मोम -- 15

लैनोलीन (अजल) -- 5

ब्रोमो ऐसिड -- 2

रंगीन लेक -- 10

कारनौबा मोम -- 3

दूसरा योग

अवयव -- भाग

अवशोषण आधारक द्रव्य -- 28

सिरेसीन 64 डिग्री -- 25

मिनरल ऑयल 210/220–15

कारनौबा मोम -- 5

मधुमक्खी का मोम -- 15

ब्रोमी ऐसिड -- 2

रंगीन लेक -- 10

रचना विधि

सर्वप्रथम ब्रोमो ऐसिड को घोलक द्रव्यों में मिला लिया जाता है और सभी मोमों को भली-भाँति पिघला कर गरम कर लिया जाता है। बाकी वसायुक्त पदार्थों को पतला करके उनमें रंगीन लेक और पिगमेंट मिलाकर श्लेषाम पेषणी (कोलायड मिल) से पीसकर एकरस कर लिया जाता है। तब ब्रोमो ऐसिड के घोल में सभी पदार्थ धीरे-धीरे छोड़कर खूब हिलाया जाता है ताकि वे आपस में ठीक-ठीक मिल जाएँ। जब जमने के ताप से 5° -10° सेंटी ऊँचा ताप रहे तभी इस मिश्रण को मिल में से निकालकर लिपिस्टिक के साँचों में ढाल लिया जाता है। इन साँचों को एकदम ठंडा कर लेना आवश्यक है।

दिन-प्रति-दिन परिवर्धमान वैज्ञानिक आविष्कारों के कारँ अंगरागों की निर्माण पद्धति और यौगिक पदार्थों में परिवर्तन होते रहते हैं।

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