वाराणसी के प्रमुख मंदिर
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काशी धर्म एवं विद्या की पवित्र तथा प्राचीनतम् नगरी मे विख्यात है। यहाँ वैदिक साहित्य की संहिताओं ब्राह्मण ग्रन्थों एवं उपनिष्दों में काशी का उल्लेख है। साथ ही पाणिनि, पंतञ्जलि आदि ग्रन्थों में भी काशी की चर्चा है। पुराणों मे स्पष्ट है कि काशी क्षेत्र में पग-पग पर तीर्थ है। स्कन्दपुराण काशी-खण्ड के केवल दशवें अध्याय में चौसठ शिवलिङ्गो का उल्लेख है। हेन सांग ने उल्लेख किया है- कि उसके समय में वाराणसी में लगभग १००(सौ) मंदिर थे। उनमें से एक भी सौ फीट से कम ऊँचा नहीं था।
विश्वनाथ की नगरी में तीर्थ स्थानों की कमी नहीं हैं, किन्तु मत्स्यपुराण के अनुसार पाँच तीर्थ प्रमुख (१) दशाखमेध, (२) लोलार्क कुण्ड, (३) केशव (आदि केशव), (४) बिन्दु माधव, (५) मणिकर्णिका। सन् ११९४ ई. में कुतुबद्दीन एबक ने काशी के एक सहस्र मंदिरों को तोड़-फोड़कर नष्ट कर दिया।
अलाउद्दीन खिलजी ने भी लगभग एक हजार मंदिरों को नष्ट कर धराशायी कर दिया। इस तोड़ फोड़ में विश्वनाथजी का मंदिर भी था, किन्तु सन् १५८५ ई. में सम्राट अकबर के राजस्व मन्त्री की सहायता से श्री नारायण भ ने विश्वनाथ जी के मंदिर को पुनः बनवाया सम्राट औरंगजेब ने काशी काशी के प्राचीन मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनवायी जो आज भी है। यही नहीं उसने हजारों मंदिरों को नष्ट कर दिया, जिसके कारण उस काल में बीस मंदिरों को भी गिन पाना कठिन हो गया था।
- पुनर्निर्माण
इस काल के पश्चात् मराठा राजाओं तथा सरदारों ने अनेक मंदिर बनवाए। अंग्रेजों के शासन काल में बहुत से मंदिरों का निर्माण हुआ। सन् १८२८ ई. में प्रिन्सेप ने गणना करायी थी जिससे पता चला था कि काशी में एक हजार मंदिर विद्यमान थे। शेकिंरग ने लिखा है कि उसके समय में चौदह सौ पंचावन मंदिर थे। हैवेल का कथन है कि उसकी गणना के अनुसार उस समय लगभग ३५०० मंदिर थे।
वाराणसी के देवता विश्वनाथ के जिस मंदिर को औरंगजेब ने नष्ट किया था समीप ही १८वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में महारानी अहल्या बाई होलकर ने वर्तमान विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था। त्रिस्थली सेतु के अनुसार पापी मनुष्य भी विश्वेश्वर के लिंग का स्पर्श कर पूजा कर सकता था। आधुनिक काल में प्रमुख तीर्थ स्थल है- (१) अस्सि और गंगा का संगम, (२) दशाश्वमेघ घाट, (३) मणिकर्णिका, (४) पंचगंगाघाट, (५) वरुणा तथा गंगा का संगम, (६) लोलार्क तीर्थ।
दशाश्वमेघ शताब्दियों से विख्यात है। भार शिव राजाओं ने दस अश्वमेघ यज्ञों के अनुष्ठान कर यहाँ अभिषेक किया था। मणिकर्णिका को मुक्ति क्षेत्र भी कहा जाता है। पंचगंगा में पाँच नदियों के धाराओं के मिलने की कल्पना की गई है। नारदीय पुराण तथा काशी-खण्ड में कहा गया है कि जो मनुष्य पंचगंगा में स्नान करता है वह पंच तत्वों में स्थित इस शरीर को पुनः धारण नही करता, मुक्त हो जाता है। वरुणा-गंगा का संगम तीर्थ आदि केशव घाट बहुत ही प्राचीन है। कन्नौज के गहड़वाल राजाओं ने जो विष्णु के भक्त थे, जब काशी को अपनी राजधानी बनायी तो इस भाग को और अधिक महत्व प्राप्त हुआ।
वाराणसी में बहुत से उपतीर्थ हैं। काशी खण्ड में ज्ञानवापी का उल्लेख मिलता है जो स्वयं में एक पवित्र स्थल है। विश्वनाथ मंदिर से दो मील की दूरी पर भैरोनाथ का मंदिर है, उन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है। उनके हाथ में बड़ी एवं मोटे पत्थर की लाठी होने के कारण इन्हें दण्डपाणि भी कहा जाता है। इसका वाहन कुत्ता है। काशी खण्ड में छप्पन विनायक (गणेश) मंदिर वर्णित है। ढुण्ढि़राज गणेश एवं बड़ गणेश में ही है। काशी के चोदह महालिंग प्रसिद्ध है। पुराणों में काशी के तीर्थों एवं उपतीर्थों का वर्णन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। लगभग एक सौ पच्चीस तीर्थों का वर्णन काशी खण्ड में मिलता है।
काशी की पंचक्रोशी का विस्तार पचास मील में है। इस मार्ग पर सैकड़ों तीर्थ है। तात्पर्य यह है कि काशी में तीर्थों की संख्या अगणित है। काशी केवल हिन्दू-धर्म के आस्थावानों का ही तीर्थस्थल नहीं है। जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ जी ने ७७७ ई. पूर्व में चैत्र कृष्ण-चतुर्थी को यहीं के मुहल्ला भेलूपुर में जन्म ग्रहण किया था। जैन धर्म के ही ग्वारहवें तीर्थकर श्रेयांसनाथ ने भी सारनाथ में जन्म ग्रहण किया था और अपने अहिंसा-धर्म का चतुर्दिक प्रसार किया था। अत जैन तीर्थस्थान के रूप में भी काशी का बहुत अधिक महत्व है। बौद्ध धर्म के तीर्थ स्थान के रूप में सारनाथ विश्वविख्यात है। भगवान गौतम बुद्ध ने गया में सम्बोधि प्राप्त करने के पश्चात् सारनाथ में आकर धर्मचक्र प्रवर्तन किया था। आर्यो की संस्कृति के कार्य-कलापों का मुख्य केन्द्र काशी सदैव से वि स्तर का आकर्षण स्थल रहा है। महाप्रभु गुरुनानक देव, कबीर जैसे लोगों के पावन-स्पर्श से काशी का कण-कण तीर्थ स्थल बन चुका है। भगवान शिव को वाराणसी नगरी अत्यन्त प्रिय है। यह उन्हें आनन्द देती है। अतः यह आनन्दकानन या आनन्दवन है।