अट्ठारह व्यवहारपद

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मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति तथा नारद स्मृतियों में अपराध तथा दण्डव्यवस्था का विस्तृत वर्णन किया गया है। स्मृतियाँ उन विषयों को, जिनके अन्तर्गत विवाद उत्पन्न हो सकता है, अठारह शीर्षकों में रखती है। इन्हें व्यवहारपद कहते हैं।

व्यवहार के अठारह पदों का तात्पर्य यह है कि सभी प्रकार के विवाद अठारह शीर्षकों में से किसी एक के ही अन्तर्गत रहेंगे। दण्ड की व्यवस्था भी स्मृतियों में इन अठारह प्रकार के पदो के अनुसार ही दी गयी है। प्राचीन भारतीय न्याय पद्धति के आधारस्तम्भ कहे जाने वाले विद्वानों के द्वारा भी इन अट्ठारह पदों में समस्त विवादों को रखना स्वीकार कर लिया गया था। मनु, याज्ञवल्क्य एवं नारद स्मृतियों के अतिरिक्त बृहस्पति, कौटिल्य आदि ने भी व्यवहार के अठारह पदों का वर्णन किया है। मनु तथा नारद अठारह पदों को एक ही स्थान पर संग्रहित करके दण्ड व्यवस्था बताते हैं।

स्मृतियों के अनुसार विवाद के अट्ठारह पद इस प्रकार हैं

  • (१) ऋणदान- इसमें ऋण के लेने-देने से उत्पन्न होने वाले विवाद आते है।
  • (२) निक्षेप- इसके अन्तर्गत अपनी वस्तु को दूसरे के पास धरोहर रखने से उत्पन्न विवाद आते हैं।
  • (३) अस्वामी विक्रय - अधिकार न होते हुये दूसरे की वस्तु बेच देना।
  • (४) संभूय समुत्थान - अनेक जनों का मिलकर साँझे में व्यवसाय करना।
  • (५) दत्तस्य अनपाकर्म - कोई वस्तु देकर फिर कोध आदि लोभ के कारण बदल जाना।
  • (६) वेतन अनपाकर्म (वेतन न देना)- किसी से काम लेकर उसका मेहनताना न देना।
  • (७) संविद का व्यतिक्रम - कोई व्यवस्था किसी के साथ करके उसे पूरा न करना।
  • (८) क्रय-विक्रय का अनुशय - किसी वस्तु के खरीदने या बेचने के बाद में असंतोष होना।
  • (९) स्वामी और पशुपालन का विवाद - चरवाहे की असावधानता से जानवरों की मृत्यु आदि के सम्बन्ध में।
  • (१०) क्षेत्रजविवाद (ग्राम आदि की सीमा का विवाद) - मकान आदि की सीमा विवाद भी इसी में आता है।
  • (११) वाक् पारूष्य - गाली गलौच करना पारूष्य
  • (१२) दण्ड पारूष्य - मारपीट
  • (१३) स्तेय (चोरी) - यह कृत्य स्वामी से छुप कर होता है।
  • (१४) साहस (डकैती) - बल पूर्वक स्वामी की उपस्थिति में धन का हरण।
  • (१५) स्त्री संग्रहण - स्त्रियों के साथ व्यभिचार
  • (१६) स्त्री पुंधर्म - स्त्री और पुरूष (पत्नी–पति) के आपस में विवाद।
  • (१७) विभाग-दाय विभाग - पैतृक सम्पत्ति आदि का विभाजन।
  • (१८) द्यूत और समाह्वय - दोनों जुआँ के अन्तर्गत आते हैं। प्राणी रहित पदार्थों के द्वारा ताश, चौपड़, जुआ, द्यूत कहलाता है; प्राणियों के द्वारा तीतर, बटेर आदि का युद्ध घुड़दौड़ आदि समाह्वय।

व्यवहार के इन अठारह पदों का वर्णन मनुस्मृति में किया गया है। नारद स्मृति में व्यवहार के जिन अठारह पदों का वर्णन किया गया है, वे मनुस्मृति से कुछ भिन्न हैं। मनु स्मृति में क्रय-विक्रय दोनों पदों को एक साथ रखा गया है किन्तु नारदस्मृति में क्रय-विक्रय दोनों को अलग-अलग रखते हुए व्याख्या की गई है। नारद स्मृति में स्वामी और पशुपालन का विवाद, स्तेय, स्त्री संग्रहण का वर्णन अट्ठारह पदों में नहीं किया गया है। परन्तु विवाद के अठारह पदों की पूर्ति अन्य प्रकारों से की है। नारद स्मृति में क्रय-विक्रय को दो अलग अलग पदों में रखा गया है तथा अभ्युयेत्यशुश्रूष तथा प्रकीर्णक को व्यवहार के पदों में स्थान देकर अठारह पदों की पूर्ति की गयी है। इसी प्रकार याज्ञवलक्य स्मृति में जिन व्यवहार के पदों का वर्णन किया गया है, वे मनुस्मृति से कुछ भिन्नता रखते हैं। याज्ञवलक्य के द्वारा भी व्यवहार के अठारह पदों का वर्णन किया गया हैं उनके द्वारा भी नारद स्मृति के समान क्रय-विक्रय को अलग-अलग रखा गया है तथा स्त्री पुंधर्म का उल्लेख नहीं किया गया है। परन्तु नारदस्मृति के ही समान अभ्युयेत्यशुश्रूषा तथा प्रकीर्णक का वर्णन करने से अट्ठारह की संख्या पूर्ण हो जाती है। मनु, याज्ञवलक्य तथा नारद स्मृतियों में थोड़ी-बहुत भिन्नताओं के साथ व्यवहार के विभिन्न पदों का वर्णन किया गया है।

व्यवहार के पदों को जो इस प्रकार विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत रखा गया है, इसका अर्थ यह नहीं था कि इन्हीं शीर्षकों के अन्तर्गत यदि विवाद होगा तो उसी का ही निर्णय किया जायेगा तथा दूसरे विवादों को स्वीकार नहीं किया जायेगा। वास्तव में ये विभिन्न भेदों के रूप में अनेक प्रकार के विवादों का उपचार स्मृतियों से प्राप्त होता है। नारद ने इन विभिन्न भेदों की संख्या 108 बतायी है। परन्तु नारद स्मृति की ये संख्या स्वीकार नहीं की जा सकती है। विवाद चाहे कितने ही प्रकार के क्यों न हों, वह इन शीर्षकों के अन्तर्गत किसी न किसी प्रकार आ ही जाते हैं। न्याय-व्यवस्था की इस विवेचना से ज्ञात होता है कि अपराधियों को सुधारने तथा समाज में अपराध पुनः न हो, लोग अपने अपने धर्म का परिपालन करते रहे, समाज में शांति एवं सुव्यवस्था बनी रहे, आदि बातों को दृष्टि में रखकर मनु, याज्ञवलक्य एवं नारद स्मृतियों ने न्यायोचित दण्ड की व्यवस्था की गयी थी।

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